Friday, March 6, 2015
मोहे रहि रहि मदन सतावै....
टेसू और सेमल के लाल-लाल फूल...
बौराये हुए आम के पेड़...
पीले फूलों वाले सरसों के खेत...
गेहूँ की लहलहाती बालियाँ...
मादक सुगंध लिए हुए शीतल मंद बयार...
किस रसिक का मन मदमस्त नहीं हो उठेगा यह सब देख कर!
भला किसकी कोमल भावनाएँ उद्दीप्त न हो उठेंगी फागुन के इस महीने में!
ऐसे में किसी विरहणी, जिसका प्रिय परदेस में जा बसा हो, के मन की हालत क्या होगी?
क्या वह विरह में कह न उठेगी ...
नींद नहि आवै पिया बिना नींद नहि आवै
मोहे रहि रहि मदन सतावै
पिया बिना नींद नहि आवै
सखि फागुन मस्त महीना
सब सखियन मंगल कीन्हा
अरे तुम खेलव रंगे गुलालै
मोहे पिया बिना कौन दुलारै
पिया बिना नींद नहि आवै
सखि लागत मास असाढ़ा
मोरे प्रान परे अति गाढ़ा
अरे वो तो बादर गरज सुनावै
परदेसी पिया नहीं आवै
पिया बिना नींद नहि आवै
सखि सावन मास सुहाना
सब सखियाँ हिंडोला ताना
अरे तुम झूलव संगी सहेली
मैं तो पिया बिना फिरत अकेली
पिया बिना नींद नहि आवै
सखि भादो गहन गंभीरा
मोरे नैन बहे जल नीरा
अरे मैं तो डूबत हौं मँझधारे
मोहे पिया बिना कौन उबारे
पिया बिना नींद नहि आवै
सखि क्वार मदन तन दूना
मोरे पिया बिना मंदिर सूना
अरे मैं तो का से कहौं दुःख रोई
मैं तो पिया बिना सेज ना सोई
पिया बिना नींद नहि आवै
सखि कातिक मास देवारी
सब दियना बारैं अटारी
अरे तुम पहिरौ कुसुम रंग सारी
मैं तो पिया बिना फिरत उघारी
पिया बिना नींद नहि आवै
सखि अगहन अगम अंदेसू
मैं तो लिख लिख भेजौं संदेसू
अरे मैं तो नित उठ सुरुज मनावौं
परदेसी पिया को बुलावौं
पिया बिना नींद नहि आवै
सखि पूस जाड़ अधिकाई
मोहे पिया बिना सेज ना भायी
अरे मोरा तन मन जोबन छीना
परदेसी गवन नहिं कीन्हा
पिया बिना नींद नहि आवै
सखि माघ आम बौराये
चहुँ ओर बसंत बिखराये
अरे वो तो कोयल कूक सुनावै
मोरे पापी पिया नहि आवै
पिया बिना नींद नहि आवै
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