बिरला ही कोई व्यक्ति होगा जो फिल्मी गीतों का दीवाना न हो। भारतीय फिल्मों के गीत न केवल भारत में अपितु संसार भर के देशों में भी लोकप्रिय होते रहे हैं। एक जमाना था जब रूस में तो राज कपूर की फिल्मों के गीतों की तूती बोलती थी, रशियन लोग हिन्दी गाने गुनगुना कर खुश होते थे। फिल्मी गीतों पर आधारित रेडियो प्रोग्राम बिनाका गीतमाला ने कई दशकों तक रेडियो श्रोताओं को सम्मोहित कर के रखा था। रेडियो सीलोन, विविध भारती, आल इण्डिया रेडियो आदि का अस्तित्व ही फिल्मी गीतों से था।
भारत में सिनेमा के आने के पहले नाटक और नौटंकियों का चलन था। उस जमाने में बहुत सी नौटंकी कम्पनियाँ हुआ करती थीं जो कि पूरे भारत में अपना ताम-झाम लेकर घूम-घूम कर नाटक-नौटंकी दिखाया करती थीं, भारत में जगह-जगह लगने वाले मेलों में तो इन नौटंकी कम्पनियों की धूम हुआ करती थी। फिल्म "तीसरी कसम" की नायिका तो ऐसी ही एक नौटंकी कम्पनी की हीरोइन ही थी तथा फिल्म "गीत गाता चल" में भी नौटंकी कम्पनियों का बहुत अच्छा सन्दर्भ है। इन नाटकों तथा नौटंकियों में संवाद के साथ गीत गाने का भी चलन था, वास्तव में लोग नाच-गाना देखने के लिए ही नौटंकियों में जाया करते थे। बाद में सिनेमा का चलन हो जाने पर शनैः-शनैः नौटंकी कम्पनियाँ समाप्त हो गईं तथा सिनेमा को ही नाटक-नौटंकियों का एक नया रूप माना जाने लगा। यही कारण है कि फिल्मों में गानों का रिवाज चल निकला।
सिनेमा के प्रारम्भिक दिनों में फिल्म में काम सिर्फ उन्हीं कलाकारों को काम मिलता था जिन्हें गायन तथा संगीत का बी ज्ञान हो क्योंकि उन्हें अपना गाना खुद ही गाना पड़ता था। फिर सन् 1935 में न्यू थियेटर ने अपनी फिल्म "धूप छाँव" में प्लेबैक गायन का सिस्टम शुरू किया और इस नये सिस्टम ने भारतीय फिल्म संगीत के स्वरूप को ही पूरी तरह से बदल डाला। प्रभात पिक्चर्स ने केशवराव भोले को, जिन्हें कि पश्चिमी ऑर्केस्ट्रा का पर्याप्त अनुभव था, गानों में पियानो, हवायन गिटार और वायलिन जैसे पाश्चात्य वाद्ययंत्रों के प्रयोग के लिए नियुक्त किया जिसके परिणामस्वरूप शान्ता आप्टे, जिसके ऊपर फिल्म "दुनिया ना माने" (1937) में एक पूर्ण अंग्रेजी गाना फिल्माया गया, प्रभात पिक्चर्स की अग्रणी कलाकार बन गईं। सन् 1939 में व्ही. शान्तारम ने फिल्म "आदमी" में एक बहुभाषी गाना रखा। प्लेबैक सिस्टम का प्रयोग शुरू हो जाने पर ऐसे गायकों को भी फिल्मों में गाने का मौका मिलने लगा जिन्हें अभिनय में रुचि नहीं थी। पारुल घोष, अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अम्बालावाली, राजकुमारी, अरुण कुमार आदि शरू-शुरू के प्लेबैक सिंगर थे।
के.एल. सहगल, पंकज मलिक, के.सी. डे आदि के समय में गाने सिर्फ शास्त्रीय संगीत के आधार पर बनाये जाते थे और उनमें बहुत कम वाद्य यन्त्रों का प्रयोग किया जाता था किन्तु प्लेबैक सिस्टम आने के बाद गानों में लोक-संगीत तथा पाश्चात्य संगीत का भी पुट आने लगा। भारत के अनेक क्षेत्रों में अनेक प्रकार के लोक-संगीत होने का बहुत बड़ा फायदा फिल्म संगीत को मिलने लगा। फिल्मी गीतों की धुनों में बंगाली, पंजाबी आदि लोक-संगीतों का प्रयोग करके गानों को मधुरतर से मधुरतम रूप दिया जाने लगा और लोग उन धुनों पर थिरकने लगे। लोगों में उन दिनों फिल्मी गानों के प्रति उन्माद का कैसा आलम था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सन् 1925 में बनी फिल्म इन्द्रसभा में 71 गाने थे।
कालान्तर में नौशाद, सी. रामचंद्र, चित्रगुप्त, हेमंत कुमार, रोशन, एस.डी. बर्मन, खय्याम, जयदेव, सलिल चौधरी, मदन मोहन, शंकर जयकिशन, ओ.पी. नैयर, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर.डी. बर्मन जैसे तीव्र कल्पनाशील संगीतकारों और मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, लता मंगेशकर, सुमन कल्याणपुर, आशा भोंसले जैसे प्रतिभावान गायक गायिकाओं के संगम से फिल्म संगीत दिन-प्रतिदिन निखरता ही चला गया।
सन् 1950 से 1975-80 तक भारतीय फिल्म संगीत का स्वर्णकाल रहा। फिर उसके बाद मैलोडियस संगीत ह्रास के दिन आने लगे, फिल्मी गानों में मैलोडी के स्थान पर हारमोनी बढ़ने लग गई और फिल्म संगीत का एक नया रूप आया जिसका चलन अभी भी है।
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Friday, October 7, 2011
Saturday, December 5, 2009
दो कलाकार .. काम किया जिन्होंने एक साथ सिर्फ एक बार

- राज कपूर और हेमा मालिनी फिल्म सपनों का सौदागर के बाद फिर कभी एक फिल्म में नहीं आये। उल्लेखनीय हैकि सपनों का सौदागर हेमा मालिनी की पहली फिल्म थी।
- दिलीप कुमार और नूतन ने केवल एक बार ही एक साथ काम किया है, फिल्म कर्मा।
- दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन की एकमात्र फिल्म है शक्ति।
- जितेन्द्र और सायरा बानो की केवल एक ही फिल्म आई है आज तक, जी हाँ आपको भी याद आ गया होगा कि फिल्म है आखरी दाँव।
- जितेन्द्र और शर्मिला टैगोर की एक मात्र फिल्म है मेरे हमसफर।
- अमिताभ बच्चन और माला सिन्हा ने एक साथ केवल फिल्म संजोग में काम किया है।
- अमिताभ बच्चन और जितेन्द्र को एक साथ लेकर केवल एक ही फिल्म फिल्म बनी फिल्म का नाम है गहरी चाल।
- अमिताभ बच्चन और नूतन की एकमात्र फिल्म है सौदागर।
- अमिताभ बच्चन और रीना राय एक साथ केवल फिल्म नसीब में आये। यद्यपि फिल्म अंधा कानून में भी दोनों कारोल था पर पूरे फिल्म में दोनों कलाकारों का एक साथ कोई भी दृश्य नहीं है।
- अमिताभ बच्चन और नाना पाटेकर की एक ही फिल्म है, नाम है कोहराम।
- शत्रुघ्न सिन्हा और विद्या सिन्हा केवल एक बार फिल्म मगरूर में ही एक साथ आये।
- राकेश रोशन और हेमा मालिनी की एकमात्र फिल्म है पराया धन। यह राकेश रोशन की पहली फिल्म थी।
- राज कुमार और डैनी की एकमात्र फिल्म है बुलंदी।
- राज कुमार और नाना पाटेकर को एक साथ लेकर एक ही फिल्म बनी है तिरंगा।
- शत्रुघ्न सिन्हा और राज कुमार की केवल एक ही फिल्म है चंबल की कसम।
- शत्रुघ्न सिन्हा और रजनीकांत एक साथ फिल्म असली नकली में ही आये।
- शेखर सुमन और रेखा की एक ही फिल्म है उत्सव।
- आमिर खान और नीलम की एकमात्र फिल्म है अफ़साना प्यार का।
- एक ही परिवार के तीन पीढ़ियों के कलाकारों को एक साथ लेकर केवल एक ही फिल्म बनी है, फिल्म का नाम है "कल आज और कल" तथा कलाकार हैं पृथ्वीराज कपूर, राज कपूर और रणधीर कपूर।
- दिलीप कुमार और राजकुमार का नाम इस लिस्ट में आ जाता यदि उनकी पहली फिल्म पैगाम के 32 साल बाद सुभाष घई ने दोनों को अपनी फिल्म सौदागर में फिर से एक बार काम करने का अवसर न दिया होता।
चलते-चलते
साहिर लुधियानवी, जयदेव और विजय आनंद एक दूसरे के अच्छे मित्र थे। बात सन् 1961 से भी पहले की है। दिन भर के काम के के बाद बैठे थे तीनों यूँ ही थकान उतारने। गप-शप के बीच जयदेव ने ये शेर सुनायाः
हमको तो गर्दिशेहालात पे रोना आया
रोने वाले तुझे किस बात पे रोना आया
शेर सुना कर जयदेव ने साहिर से कहा कि इस शेर को कहने वाला शायर एक प्रश्न छोड़ गया है और तुम्हें उसका जवाब देना है। साहिर भी कम नहीं थे। उन्होंने जवाब देने के लिये उस बैठक में ही एक पूरा गजल बना डाला और जयदेव को सुनाया जो इस प्रकार हैः

बात निकली तो हरेक बात पे रोना आया
हम तो समझे थे कि हम भूल गये हैं तुमको
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया
किस लिये जीते हैं हम किसके लिये जीते हैं
बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया
कौन रोता है किसी और के खातिर ऐ दोस्त
सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया
जयदेव ने उनके इस गजल की खूब तारीफ़ की और कहा कि वे इसके लिये एक अच्छी सी धुन अवश्य बनायेंगे। विजय आनंद ने भी साहिर से कहा कि वे इस गीत को अपने निर्देशन वाली किसी न किसी फिल्म में अवश्य लेंगे। कुछ दिनों बाद ही विजय आनंद को फिल्म हम दोनों के निर्देशन का काम सौंपा गया और अपने वादे के मुताबिक उन्होंने उस फिल्म में गीत को ले लिया। तो इस प्रकार बातों बातों में ही बन गया था ये गजल!
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