Tuesday, October 30, 2007

गीत

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो;
मुझे निराश सदा तुम करती,
फिर भी तुम मेरी आश ही हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

उत्कण्ठा में आकुल मैं तो,
चिरप्रतीक्षा के क्षण गिनता हूँ;
किन्तु नहीं आते हो जब तुम,
सपनों में तुमसे मिलता हूँ;
तुम तो मेरा जीवन हो,
तुम ही मेरी श्वाँस भी हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

मिलने की घड़ियाँ कब आवेंगी?
दिन-रात यही सोचा करता हूँ;
पर न मिलन जब होता है तो,
ठंडी ठंडी आहें भरता हूँ;
तुमने मुझको बांधा है, तुम मेरी उलझन हो,
फिर भी तुम मेरी पाश ही हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

तुमसे मेरे जीवन में स्पन्दन है,
नस नस में तुम छाये रहते हो;
पल भर भी भूल न पाता तुमको,
जाने किस जादू में भरमाये रहते हो;
तुम ही मेरे जीवन के रक्षक-
तुम ही मेरी नाश भी हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

देख न पाता हूँ जब तुमको,
ऐंठन मन में होती है;
तुम्हें सामने जब पाता हूँ,
जगी वेदना सोती है;
तुम ही मेरी दुनिया हो,
मेरे जीवन का विश्वास भी हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

आओ दो से एक बनें हम,
हिलमिल दोनों खो जायें;
मैं मैं न रहूँ, और तुम न रहो तुम,
सरिता-सागर हो जायें;
धड़कन तेरे दिल की बन जाउँ,
तुम तो मेरी श्वाँस ही हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

(रचना तिथिः शनिवार 31-01-1981)

3 comments:

अनुनाद सिंह said...

रचना अच्छी लगी।

Udan Tashtari said...

तुमसे मेरे जीवन में स्पन्दन है,
नस नस में तुम छाये रहते हो;
पल भर भी भूल न पाता तुमको,
जाने किस जादू में भरमाये रहते हो;
तुम ही मेरे जीवन के रक्षक-
तुम ही मेरी नाश भी हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।


--सुन्दर प्रस्तुति. बाबू जी की याद को नमन.

Rajiv K Mishra said...

छू गया....शब्द नहीं हैं कि प्रशंसा कर सकूं।