(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
दूर रहा करते हो मुझसे,
मैं भी तुमसे दूर रहूँगी;
होगा इससे कष्ट मुझे जो,
तो उसको चुपचाप सहूँगी।
स्पर्श तुम्हारा जब हो जाता है,
गहरी शान्ति मिला करती है;
लगता है नील-गगन में ज्यों,
समा गई हो यह धरती है।
किया समर्पण तन-मन तुमको,
पर सच को तुम क्या पहचानो;
डूबे रहते हो अपने में ही,
दिल को तुम कैसे पहचानो।
तुम मस्तक मैं बुद्धि तुम्हारी,
पर यह तुम कैसे जानोगे?
आयेगी मिलने की बारी,
तब ही मुझको पहचानोगे।
पर ठुकराओगे मुझको तो,
मन ही मन मैं घुटन सहूँगी;
दूरी जो रखते हो मुझसे तो,
मैं भी तुमसे दूर रहूँगी।
(रचना तिथिः गुरुवार 31-01-1981)
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