Wednesday, November 7, 2007

वापस चल

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

विनाश से सृजन की ओर-
मुख मोड़ और चल,
धूर्त-पथ त्याग कर,
मानव मन बन निश्छल।

विनाशिनी संहारिणी शक्ति-
तेरी ही कृति का प्रतिफल,
मोड़ दे अपनी दिशा,
उत्फुल्ल कर शतदल कमल,
कृत्रिम से प्रकृति उत्तम
शान्त सुन्दर धवल,
तो फिर ओ अशान्त मन,
चल वापस, प्रकृति ओर वापस चल।

(रचना तिथिः शनिवार 24-12-1983)

2 comments:

Udan Tashtari said...

बाबू जी क्या गहरी बात कह गये..हमेशा के लिये सत्य. नमन करता हूं उनकी याद को.

मीनाक्षी said...

भावपूर्ण रचना जिसमे गहरा अर्थ छिपा है.उन्हें नतमस्तक प्रणाम ! कल आपकी टिप्पणी मिली पढा और जो अनुभव किया उसके अनुसार इतना ही कहना चाहती हूँ कि 1986 से भारत छोड़ा है और अब तक बाहर हैं, 1995-96 की लिखी कविता पुरानी यादों(रियाद मे बिताए दिन) के साथ ताज़ा हो गई थी सो पोस्ट कर दी. अन्यथा न लें. यदि आपकी भावनाओं को ठेस पहुँची हो तो क्षमा चाहती हूँ .