(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित छत्तीसगढ़ी कविता)
कहाँ बिलागै गोबर खाद
अब आगै फास्फेट के जमाना,
खेती-बारी चौपट हो गै,
फुटहा करम के ताना-बाना।
गइया-बइला सबे नँदा गैं
कहाँ ले आही गोबर?
परबुधिया बन गैं छत्तिसगढ़िया
नेता हो गैं ढोबर।
फास्फेट डारेन तो भुइयाँ जर गै
अउ हो गै टकरहा
घेरी-बेरी फास्फेट मांग थै,
नइ रहि गै गोबरहा।
बिरथा जाथै नांगर-जाँगर,
मूड़ धर के रोथैं किसान,
उसर-पुसर के अकाल परथै
माई कोठी में नइ ऐ धान।
गाँव-गाँव में फूट मात गै,
पार्टी बन्दी के भइन सिकार,
मार-काट में जिव हर जाथै,
कोन्नो के नइ ऐ बेला-बिचार।
ऊपर ले सेठ महाजन मन
रकसा कस डेरुआथैं,
ढेकुना-किरनी जइसे वो मन
लहू-रकत ला चूसत जाथैं।
गिद्ध-मसानी आपस में लड़थैं
छत्तिसगढ़ के रहवइया मन,
अपने मन में अँइठत रहिथैं
छत्तिसगढ़िया कहवइया मन।
अपने भासा ला हीनत रहिथैं
पढ़े-लिखे कहवइया मन,
चमचा बन के पूछी हलाथै
आगू-आगू बढ़वइया मन।
वीर नरायन सिंग ला भूलिन
बिसराइन ठाकुर प्यारे लाल,
कतको नइ जानैं, कोन रहिन हैं
राजिम के शर्मा सुन्दर लाल।
(रचना तिथिः 07-02-1982)
1 comment:
सुघ्घर लागीसे कविता ला पढ के, मोर भाषा के पुछईया मन हावय इंटरनेट म घलो ।
संजीव
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