Saturday, September 5, 2009

दाउद खान - जिन्हें रामायण के लिए अपने समाज से अलग होना मंजूर था

दाउद खान, जो कि धमतरी निवासी एक सेवानिवृत शिक्षक हैं, को उनके गुरुद्वय श्री शालिग्राम द्विवेदी और श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी से ऐसी प्रेरणा मिली कि वे रामायण के ही बन कर रह गये। यहाँ तक कि रामायण के लिए उन्हें अपना जमात तक छोड़ना मंजूर था, देखें http://deshbandhu.co.in/newsdetail/12196/2/210

दाउद खान जी के विषय में मुझे पहली बार सन 1993 में ज्ञात हुआ जब मैं भारतीय स्टेट बैंक छुरा में पदस्थ था। मुझे राजभाषा मास में कार्यक्रम आयोजित करना था। वहीं एक सुझाव आया था कि क्यों न दाउद खान जी का रामायण प्रवचन रखा जाए। किन्तु हमारे आयोजन में पधारने के लिए श्री रमेश नैयर जी से स्वीकृति मिल जाने से रामायण पाठ के विचार को निरस्त कर देना पड़ा। उनके दर्शन की मेरी इच्छा मेरे मन में ही रह गई। बाद में मेरा स्थानान्तरण नारायणपुर हो गया जहाँ पर वहाँ की एक समिति ने सन् 1998 में दाउद खान जी के रामायण पाठ का आयोजन किया। आयोजकों से अच्छा परिचय था इसलिए उनके सहयोग से मुझे दाउद खान जी से मुलाकात करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। दाउद खान जी मुझसे बड़े प्रेमपूर्वक मिले। उनका इतना नाम होने के बावजूद भी अहं नाम की कोई चीज उन्हें छू भी नहीं गई है और उन्होंने मुझसे मित्रवत व्यवहार किया। उनकी सरलता ने उनके प्रति मेरी श्रद्धा को बहुत अधिक बढ़ा दिया।

मेरे पूछने पर उन्होंने मुझे बताया कि रामायण से जुड़ने में उन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। एक ओर तो उनके जमात के लोग उनकी निन्दा कर रहे थे तो वहीं दूसरी ओर हमारे पण्डितों ने भी उनका बहुत विरोध किया। किन्तु वे अपने निश्चय पर अडिग रहे और आज उन्हें एक दक्ष रामायण प्रवचनकर्ता के रूप में सभी लोग स्वीकार करते हैं। भारत के प्रायः सभी बड़े नगरों में उनके रामायण पाठ का आयोजन हो चुका है।

बात ही बात में मैंने कह दिया था कि मैं समझता हूँ कि पूरे रामायण में सबसे बड़ा त्याग उर्मिला ने किया है और मुझे लगता है कि तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में उर्मिला के साथ एक प्रकार से अन्याय किया है। तुलसीदास जी की इस गलती को श्री मैथिलीशरण गुप्त जी ने साकेत की रचना करके सुधारा है।

मेरी बात सुनकर दाउद जी ने मुझे बताया कि मैथिलीशरण गुप्त जी भी उनके गुरु रह चुके हैं। उन्होंने कहा कि एक बार ऐसी ही बात उन्होंने गुप्त जी के समक्ष कह दी थी जिस पर गुप्त जी ने उन्हें समझाते हुए कहा था, "बेटा दाउद, बड़े लोगों की गलती नहीं निकालते। इतने बड़े महाकाव्य की रचना करते समय क्या किसी प्रकार की भूल नहीं हो सकती?"

रात्रि 9.00 बजे से 11.00 बजे तक दाउद जी का रामायण पाठ होना था किन्तु श्रोतागण आग्रह कर कर के कथा सुनते रहे। यहाँ तक कि रात्रि के डेढ़ बज गये। आयोजकों ने बड़ी मुश्किल से लोगों को समझाया कि दाउद जी ने भोजन नहीं किया है और तब कहीं जाकर उनका प्रवचन समाप्त हुआ।

4 comments:

राज भाटिय़ा said...

आप ने फ़िर से एक बहुत ही सुंदर जानकारी दी, पढ कर अच्छा लगा.
धन्यवद

दिनेशराय द्विवेदी said...

उत्तम जानकारी!

Gyan Dutt Pandey said...

लकीर से हट कर चलने वाले हमेशा ही आकर्षित करते हैं। दाऊदखान जी भी वैसे ही हैं!

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

देर से देखा आपका पोस्ट....

दिल खुस हो गया ये जानकार |

पोस्ट के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !