Thursday, October 8, 2009

ह्यूम साहब को भारतीयों के हित की ऐसी क्या चिन्ता हो गई जो उन्होंने कांग्रेस बनाया?

आप जानते ही होंगे कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना किसी भारतीय ने नहीं बल्कि एक अंग्रेज ए.ओ. (अलेन ऑक्टेवियन) ह्यूम ने सन् 1885 में, ब्रिटिश शासन की अनुमति से, किया था। कांग्रेस एक राजनैतिक पार्टी थी और इसका उद्देश्य था अंग्रेजी शासन व्यवस्था में भारतीयों की भागीदारी दिलाना। ब्रिटिश पार्लियामेंट में विरोधी पार्टी की हैसियत से काम करना। अब प्रश्न यह उठता है कि ह्यूम साहब, जो कि सिविल सर्विस से अवकाश प्राप्त अफसर थे, को भारतीयों के राजनैतिक हित की चिन्ता क्यों और कैसे जाग गई?

सन् 1885 से पहले अंग्रेज अपनी शासन व्यवस्था में भारतीयों का जरा भी दखलअंदाजी पसंद नहीं करते थे। तो फिर एक बार फिर प्रश्न उठता है कि आखिर क्यों दी ब्रिटिश शासन ने एक भारतीय राजनैतिक पार्टी बनाने की अनुमति?

यदि उपरोक्त दोनों प्रश्नों का उत्तर खोजें तो स्पष्ट हो जाता है कि भारतीयों को अपनी राजनीति में स्थान देना अंग्रेजों की मजबूरी बन गई थी। सन् 1857 की क्रान्ति ने अंग्रेजों की आँखें खोल दी थी। अपने ऊपर आए इतनी बड़ी आफत का विश्लेषण करने पर उन्हें समझ में आया कि यह गुलामी से क्षुब्ध जनता का बढ़ता हुआ आक्रोश ही था जो आफत बन कर उन पर टूटा था। यह ठीक उसी प्रकार था जैसे कि किसी गुब्बारे का अधिक हवा भरे जाने के कारण फूट जाना।

समझ में आ जाने पर अंग्रेजों ने इस आफत से बचाव के लिए तरीका निकाला और वह तरीका था सेफ्टी वाल्व्ह का। जैसे प्रेसर कूकर में प्रेसर बढ़ जाने पर सेफ्टी वाल्व्ह के रास्ते निकल जाता है और कूकर को हानि नहीं होती वैसे ही गुलाम भारतीयों के आक्रोश को सेफ्टी वाल्व्ह के रास्ते बाहर निकालने का सेफ्टी वाल्व्ह बनाया अंग्रेजों ने कांग्रेस के रूप में। अंग्रेजों ने सोचा कि गुलाम भारतीयों के इस आक्रोश को कम करने के लिए उनकी बातों को शासन समक्ष रखने देने में ही भलाई है। सीधी सी बात है कि यदि किसी की बात को कोई सुने ही नहीं तो उसका आक्रोश बढ़ते जाता है किन्तु उसकी बात को सिर्फ यदि सुन लिया जाए तो उसका आधा आक्रोश यूँ ही कम हो जाता है। यही सोचकर ब्रिटिश शासन ने भारतीयों की समस्याओं को शासन तक पहुँचने देने का निश्चय किया। और इसके लिए उन्हें भारतीयों को एक पार्टी बना कर राजनैतिक अधिकार देना जरूरी था। एक ऐसी संस्था का होना जरूरी था जो कि ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारतीयों का पक्ष रख सके। याने कि भारतीयों की एक राजनैतिक पार्टी बनाना अंग्रेजों की मजबूरी थी।

किसी भारतीय को एक राजनैतिक पार्टी का गठन करने का गौरव भी नहीं देना चाहते थे वे अंग्रेज। और इसीलिए बड़े ही चालाकी के साथ उन्होंने ह्यूम साहब को सिखा पढ़ा कर भेज दिया भारतीयों के पास एक राजनैतिक पार्टी बनाने के लिए। इसका एक बड़ा फायदा उन्हें यह भी मिला कि एक अंग्रेज हम भारतीयों के नजर में महान बन गया, हम भारतीय स्वयं को अंग्रेजों का एहसानमंद भी समझने लगे। ये था अंग्रेजों का एक तीर से दो शिकार!

इस तरह से कांग्रेस की स्थापना हो गई और अंग्रेजों को गुलाम भारतीयों के आक्रोश को निकालने के लिए एक सेफ्टी वाल्व्ह मिल गया।

13 comments:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

उस वक़्त के वायसराय लोर्ड डफरिन के निर्देशन, मार्गदर्शन और सलाह पर ही AO HUME ने इस संगठन को जन्म दिया था, ताकि उस समय भारतीय जनता में पनपते बढ़ते आक्रोश और असंतोष को हिंसा के रूप मों फूटने से रोका जा सके. मतलब एक हिंसक क्रांति दस्तक दे रही थी, जो की कांग्रेस की स्थापना के कारण टल गयी. Young India में १९१६ में प्रकाशित अपने लेख में गरमपंथी नेता लाला लाजपत राय ने सुरक्षा वाल्व की इस परिकल्पना का इस्तेमाल कांग्रेस के नरमपंथी पक्ष पर प्रहार करने के लिए किया था. और कांग्रेस लोर्ड डफरिन के दिमाग की उपज है यह कहा था. और यह भी कहा था की कांग्रेस अपने आदर्श के प्रति इमानदार नहीं है, और आज भी नहीं है......

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

उस वक़्त के वायसराय लोर्ड डफरिन के निर्देशन, मार्गदर्शन और सलाह पर ही AO HUME ने इस संगठन को जन्म दिया था, ताकि उस समय भारतीय जनता में पनपते बढ़ते आक्रोश और असंतोष को हिंसा के रूप मों फूटने से रोका जा सके. मतलब एक हिंसक क्रांति दस्तक दे रही थी, जो की कांग्रेस की स्थापना के कारण टल गयी. Young India में १९१६ में प्रकाशित अपने लेख में गरमपंथी नेता लाला लाजपत राय ने सुरक्षा वाल्व की इस परिकल्पना का इस्तेमाल कांग्रेस के नरमपंथी पक्ष पर प्रहार करने के लिए किया था. और कांग्रेस लोर्ड डफरिन के दिमाग की उपज है यह कहा था. और यह भी कहा था की कांग्रेस अपने आदर्श के प्रति इमानदार नहीं है, और आज भी नहीं है......

Mishra Pankaj said...

नमस्कार अवधिया जी

संजय बेंगाणी said...

ज्यादातर लोग कॉंग्रेस के बारे में जानते ही नहीं है. उन्हे लगता है गाँधीजी ने आज़ादी के लिए कॉंग्रेस बनाई थी :)

भारत आज़ाद क्या हुआ, सत्ता हस्तांतरण जरूर हुआ. गाँधीजी के भक्त देशवासी पहले कॉंग्रेस को वोट देते थे, आजादी के बाद भी वफादार रहे. इसलिए नेहरू ने कॉग्रेस को खत्म नहीं किया.

Unknown said...

संजय जी,

आपकी बात बिल्कुल सही है कि ज्यादातर लोग कॉंग्रेस के बारे में जानते ही नहीं है। इस लेख का एक उद्देश्य यह भी है कि हम लोग कम से कम अपने इतिहास जानें तो सही। लोगों की सच्चाई जानने में रुचि बढ़े।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बहुत सुन्दर जानकारी अवधिया जी , इच्छुक पाठको के लिए मैं यहाँ ए. ओ. ह्यूम के बारे में थोडा विस्तृत जानकारी भी उपलब्ध करा रहा हूँ,ताकि वे आपके लेख को और अच्छे ढंग से समझ सके ! और स्पष्ट कर दूं कि यह जानकारी मैंने "भारतीय स्वाधीनता - संघर्ष में उदारवादी अंग्रेजों की भूमिका" - डॉ० पी. एन. चोपड़ा की किताव से ली है, जोकि खुद एक समर्पित कोंग्रेसी रहे है !

अलेन ऑक्टेवियन ह्यूम -

अलेन ऑक्टेवियन ह्यूम (१८२९-१९१२) का योगदान इतना सुविदित है कि उसकी विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। सिविल सर्विस से अवकाश प्राप्त करने के बाद उन्होंने लेफ्टिनेंट और गवर्नर के पद को लेना अस्वीकार कर दिया और अपना समय और शक्ति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में लगाई जो "यदि वह ठीक से संचालित की जाये तो स्वदेशी संसद का आरंभ-बिन्दु सिद्ध होगी और कुछ ही वर्षों में इस कथन का मुंहतोड़ जवाब देगी कि भारत अब भी प्रतिनिधि संस्थाओं के गठन के लिए नितांत अयोग्य है।" वे भारतीय कांग्रेस के संस्थापक थे और गोखले ने १९१३ में ठीक ही कहा था : "कोई भी भारतीय, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नींव नहीं डाल सकता था। इस तथ्य के अलावा भी, कि जो कोई भी इस विराट उपक्रम के लिए अग्रसर होता उसका व्यक्तित्व उतना ही विशाल होना चाहिए था जैसा कि श्री ह्यूम का था, यदि कोई ऐसे सम्पन्न व्यक्तित्व के साथ इस प्रकार के भारत-व्यापी आन्दोलन के शुरुआत करता भी, तो अधिकारी-वर्ग उसे अस्तित्व में लाने अनुमति नहीं देता। अगर कांग्रेस का संस्थापक एक महान अंग्रेज नहीं होता और अगर वह एक भूतपूर्व अधिकारी नहीं होता तो उन दिनों राजनैतिक आन्दोलनों के प्रति इतना गहरा और तीखा अविश्वास था कि अधिकारी आन्दोलन का दमन करने का कोई न कोई तरीका अवश्य ही खोज लेते।" ह्यूम ने बड़े उत्साह और लगन के साथ जीवन पर्यंत उस महान संगठन को सजीव बनाये रखने के लिए प्रयास किया जिसकी नींव उन्होंने डाली थी। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों को जो प्रेरणाप्रद पत्र (१ मार्च, १८८३ को) भेजा था और जिसमें उन्होंने स्नातकों का आह्वान किया था कि वे आगे आएं और अपने आपको देश-सेवा के लिए समर्पित करें, सदा के लिए उनका संगठन क्षमता और गहरी सहानुभूति का प्रतीक बना रहेगा। उन्होंने लिखा थाः "अगर आप लोग, जो चयनित व्यक्ति हैं, जो राष्ट्र में सबसे अधिक प्रबुद्ध हैं, अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं और स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों को ठुकरा कर यह दृढ़ संकल्प नहीं कर सकते कि आप अपने लिए तथा अपनी मातृभूमि के लिए और अधिक स्वाधीनता, और अधिक निष्पक्ष प्रशासन, अपने मामलों में और अधिक व्यवस्थात्मक हिस्सेदारी प्राप्त करके रहेंगे, तो हम, जो आपके मित्र हैं, गलत साबित हो जाएंगे और हमारे विरोधी सही सिद्ध होंगे; तब आपकी भलाई के लिए लार्ड रिपन ने जो आकांक्षाएं व्यक्त की हैं वे निष्फल और काल्पनिक उड़ानें बनी रह जाएंगी और तब, कम से कम वर्तमान समय में, प्रगति की सभी आशाएं धूमिल हो जाएंगी और यह बात उजागर हो जाएगी कि भारत को आज जो शासन मिला हुआ है उससे अधिक या बेहतर शासन का अधिकारी वह नहीं है।" उन्होंने स्नातकों को याद दिलाया था कि "चाहे व्यक्ति हो या राष्ट्र, स्वाधीनता और सुख का स्पष्ट दिशा-निर्देश करने वाले तत्व होते हैं आत्म-त्याग और स्वार्थहीनता।" जब सरकार ने उनकी मैत्री-भाव से रखी गई मांगों की ओर ध्यान नहीं दिया और आंदोलन को कुचने के लिए कदम उठाए तो उन्हें बहुत निराशा हुई (१८८८-१८७४)। उन्होंने घोषणा की कि अब "यह हमें तय करना है कि हम राष्ट्रों का उद्बोधन करें, महान ब्रिटिश राष्ट्र का उसकी भूमि-सीमा में उद्बोधन करें और इस विशाल महाद्वीप में स्थित इस महानतर राष्ट्र को जगाएं जिससे प्रत्येक भारतीय, जो अपनी इस मातृभूमि में, इस पवित्र धरती पर स्पंदित है, हमारा सहयोगी और सह-निर्णायक बन जाए, हमारा समर्थक बन जाये और अगर जरूरत हो तो, हम काब्डेन और उसके महान सहकर्मियों की तरह न्याय और अपनी मुक्ति तथा अधिकारों के लिए जो महान संघर्ष छेडेंगे उसमें, हमारा सैनिक बन जाये।" यह मुख्यतः उनके प्रयासों का ही फल था कि सरकार की समस्त दमनकारी कार्रवाईयों के बावजूद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने आरंभिक काल में जीवित बची रह सकी थी।

Unknown said...

धन्यवाद गोदियाल जी,

आपकी टिप्पणी का उद्धरण भी यही सिद्ध करता है किः

"एक अंग्रेज हम भारतीयों के नजर में महान बन गया, हम भारतीय स्वयं को अंग्रेजों का एहसानमंद भी समझने लगे।"

:)

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

अवधिया जी आपका प्रयास सराहनीय है, हमें ये सब ठीक से पता ही नहीं |

जो भी हो, अब समझ मैं थोडा थोडा आ रहा है की कांग्रेस पार्टी (पहले भी और आज भी) इतनी कुटिल कैसे हैं | आज भी कांग्रेस मैं बहुलता कुटिल नेताओं का ही है | मुझे लगता है कुटिलता और गन्दी राजनीति के खेल मैं दुनिया मैं कांग्रेस पार्टी को कोई हरा सकता है |

मूल बात ये है की "बोए पेड़ बाबुल का का अमवा कहाँ से होए" | कांग्रेस पार्टी का बीज ही सदा था .... तो पेड़ भी सडा ही है ....

राज भाटिय़ा said...

जी.के. अवधिया ओर गोदियाल जी,
आप का धन्यवाद, आप ने इस लेख मै हम सब को ( जिन्हे काग्रेस का पता नही था) इस कग्रेस के बारे बताया, आज भी काग्रेस किस की वफ़ा दार है??
इस सुंदर लेख ओर सुंदर टिपण्णियो के लिये आप सब का धन्यवाद

शिवम् मिश्रा said...

बढ़िया आलेख , जब कि आप के अनुसार आप की राजनीति में कोई विशेष रूचि नहीं है !!

Khushdeep Sehgal said...

अवधिया जी, गांधी जी का विचार था कि आज़ादी के बाद कांग्रेस को सत्ता के चक्कर में न पड़कर सिर्फ सामाजिक दायित्व ही निभाने चाहिेए...लेकिन हुआ क्या....कांग्रेस की सारी सोच ही सत्ता को हासिल करने तक ही सिमट गई...अब राहुल ने ज़रूर थोड़ी उम्मीद की किरण दिखाई है...
जय हिंद...

eSwami said...

आपका ये वाला लेख बहुत ज्ञानवर्धक है! मुझे यह पता नही था कि कांग्रेस का गठन एक ब्रिटिश ने किया है!

MD. SHAMIM said...

sir ji, pata nahi aisi aur kitni baatein mujhe aur humare desh ke logo ko pata nahi hai. carry on sir ji,