Monday, September 7, 2009

क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को दो लात

सबेरे की चाय पीने के बाद कम्प्यूटर चालू करके एक दो टिप्पणी की ही थी कि मित्र महोदय आ पहुँचे। कानों में इयरफोन ठुँसा हुआ था। चेहरे पर मग्नता के भाव और मुंडी हिलती हुई। शायद संगीत का आनन्द ले रहे थे।

मैंने उनके स्वागत में कहा, "आओ, आओ! बैठो।"

"क्याऽऽऽ?" वो इतने जोर से बोले जैसे मैं बहरा हूँ।

मैंने भी जोर से चिल्ला कर कहा, "अरे बैठो भाई।"

कुर्सी पर बैठकर मुंडी डुलाते वे हुए मुझसे भी ज्यादा जोर से बोले, "और सुनाओ क्या हाल है?"

उनकी आवाज से मेरे कान झन्ना गए। आपने भी अवश्य ही कई बार अनुभव किया होगा कि यदि किसी के कानों में इयरफोन ठुँसा हो तो वह सामने वाले से कैसे ऊँची आवाज में बात करता है।

मैंने उनके कानों से इयरफोन खींच कर निकाल दिया और कहा, "इतने जोर से चिल्लाकर क्यों बोल रहे हो? क्या मैं बहरा हूँ?"

"मैं कहाँ चिल्ला रहा हूँ?"

"अरे चिल्ला रहे थे यार तुम। इयरफोन लगा कर खुद तो बहरे बन गए थे पर समझने के लिये मुझे बहरा समझ रहे थे।"

"हे हे हे हे, चलो मैं बहरा बन गया था तो तुम तो अन्धे नहीं थे ना?"

"अबे क्या बोल रहा है? मैं भला क्यों अन्धा होने लगा?"

"भइ बहरे के साथ अन्धे का होना जरूरी है इसीलिए तो कहावत बनी है 'अंधरा पादे बहरा जोहारे', है कि नहीं?"

मैं कुछ कहता उससे पहले ही वो फिर बोल उठे, "अच्छा एक बात बता यार, कहावत के अनुसार बहरे के साथ अंधा होना चाहिए और वो दोस्ती वाली कहानी के अनुसार अन्धे के साथ लंगड़ा होना चाहिये। ये आखिर बहरे के साथ बहरा, अन्धे के साथ अन्धा या लंगड़े के साथ लंगड़ा क्यों नहीं होता?"

अब आप ही बताइये कि मैं इस प्रश्न का उन्हें क्या जवाब दूँ? मैंने भी कह दिया, "इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा होने पर न तो कोई कहावत बन सकती है और न ही कोई कहानी।"

वो बोले, "यार, कह तो रहे हो सही, मगर गलत है।"

"अबे जब सही कह रहा हूँ तो गलत कैसे होगा?"

"ये सब बड़े लोगों की बाते हैं, तू नहीं समझेगा। खैर, ये बता कि बच्चों का क्या हाल है?"

"ठीक ही होंगे।" मैंने जवाब दिया।

"होंगे? होंगे से क्या मतलब? क्या तेरी उनसे मुलाकात नहीं होती?"

"होती है भइ, हर दो-तीन दिन में आते हैं हमारे पास। जब भी उन्हें कभी मोबाइल रिचार्ज और टॉपअप कराने, गाड़ी में पेट्रोल डलाने और उसकी सर्व्हिसिंग कराने, दोस्तों को पार्टी देने जैसे कामों के लिए रुपयों की जरूरत पड़ती है तो याद आ जाती है हमारी। चल छोड़, ये छोटे लोगों की बाते हैं, इसे तू नहीं समझेगा।"

"अच्छा भाभी जी कैसी हैं?"

"वो भी अच्छी हैं, भाई क्यों अच्छी नहीं होंगी? आज से तीस-पैतीस साल पहले जैसी अच्छी हुआ करती थीं उतनी अच्छी तो अब नहीं हैं पर फिर भी अच्छी ही हैं।" मैंने कहा।

अचानक मुझे कुछ याद आया और वो कुछ और बोलें उसके पहले ही मैंने कहा, "सुना है कि मेरे बारे में तू लोगों से कहता फिरता है कि 'लिखता क्या है, अपने आपको ब्लोगर शो करता है'।"

"तो क्या गलत कहता हूँ मैं? तू खुद ही बता तू कोई ब्लोगर है? सींग कटा के बछड़ों में शामिल हो जाने से भला क्या कोई ब्लोगर हो जाता है? क्या ये सच नहीं है कि तू अपने लिखे कूड़े को जबरन नेट में डाल रहा है! अबे सच का सामना कर! बोल हाँ।"

थोड़ी शर्मिंदगी के साथ मैं बोला, "यार बहुत कोशिश करता हूँ कि कुछ अच्छा लिख पाऊँ, अब अच्छा लिख ही नहीं पाता तो मैं क्या करूँ?"

"चल बेटा मैं तुझे बताता हूँ कि तू अच्छा क्यों नहीं लिख सकता। तू भी क्या याद करेगा! तू अच्छा इसलिए नहीं लिख पाता क्योंकि तू अतीत में जीता है, पुरानी बातों को अच्छा बताने की कोशिश में पुरानी घिसी-पिटी बातें ही लिखता है। तुझे पता नहीं है कि पुरानी बातों को कोई भी पसंद नहीं करता। लिखना है तो कुछ नई लिख जैसे कि मैं लिखता हूँ।"

"अच्छा बता तूने ऐसा क्या लिखा है जिसमें नयापन है?"

"मैंने लिखा है 'क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को दो लात', बोल है ना नई चीज?"

"क्या नया है इसमें? तू तो पुराना दोहा बता रहा है और वो भी गलत। सही है - 'क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात'।"

अब वे हत्थे से उखड़ गए और बोले, "बस यहीं पर तो मात खाता है तू। समझ तो सकता नहीं और शो करता है कि बहुत अकलमंद है। अगर मैंने चार चरण का दोहा लिखा होता तो वो पुरानी चीज होती पर मैंने तो दो चरण का दोहा लिखा है जो कि बिल्कुल नई चीज है।"

"पर तेरी इस नई चीज का मतलब क्या हुआ?"

"इसका मतलब है कि यदि पॉवरफुल याने कि बड़ा आदमी गलती करे तो उसे क्षमा कर देना चाहिए और छोटा आदमी गलती करे तो उसे दो लात मारना चाहिए। समझे? आज जो हो रहा है वह लिख, आज यही हो रहा है। अडवानी और जसवन्त के मामले में क्या हुआ बोल?"

हमें इतना ज्ञान देकर वे चले गये और हम अपना पोस्ट लिखने बैठ गये।

Saturday, September 5, 2009

दाउद खान - जिन्हें रामायण के लिए अपने समाज से अलग होना मंजूर था

दाउद खान, जो कि धमतरी निवासी एक सेवानिवृत शिक्षक हैं, को उनके गुरुद्वय श्री शालिग्राम द्विवेदी और श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी से ऐसी प्रेरणा मिली कि वे रामायण के ही बन कर रह गये। यहाँ तक कि रामायण के लिए उन्हें अपना जमात तक छोड़ना मंजूर था, देखें http://deshbandhu.co.in/newsdetail/12196/2/210

दाउद खान जी के विषय में मुझे पहली बार सन 1993 में ज्ञात हुआ जब मैं भारतीय स्टेट बैंक छुरा में पदस्थ था। मुझे राजभाषा मास में कार्यक्रम आयोजित करना था। वहीं एक सुझाव आया था कि क्यों न दाउद खान जी का रामायण प्रवचन रखा जाए। किन्तु हमारे आयोजन में पधारने के लिए श्री रमेश नैयर जी से स्वीकृति मिल जाने से रामायण पाठ के विचार को निरस्त कर देना पड़ा। उनके दर्शन की मेरी इच्छा मेरे मन में ही रह गई। बाद में मेरा स्थानान्तरण नारायणपुर हो गया जहाँ पर वहाँ की एक समिति ने सन् 1998 में दाउद खान जी के रामायण पाठ का आयोजन किया। आयोजकों से अच्छा परिचय था इसलिए उनके सहयोग से मुझे दाउद खान जी से मुलाकात करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। दाउद खान जी मुझसे बड़े प्रेमपूर्वक मिले। उनका इतना नाम होने के बावजूद भी अहं नाम की कोई चीज उन्हें छू भी नहीं गई है और उन्होंने मुझसे मित्रवत व्यवहार किया। उनकी सरलता ने उनके प्रति मेरी श्रद्धा को बहुत अधिक बढ़ा दिया।

मेरे पूछने पर उन्होंने मुझे बताया कि रामायण से जुड़ने में उन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। एक ओर तो उनके जमात के लोग उनकी निन्दा कर रहे थे तो वहीं दूसरी ओर हमारे पण्डितों ने भी उनका बहुत विरोध किया। किन्तु वे अपने निश्चय पर अडिग रहे और आज उन्हें एक दक्ष रामायण प्रवचनकर्ता के रूप में सभी लोग स्वीकार करते हैं। भारत के प्रायः सभी बड़े नगरों में उनके रामायण पाठ का आयोजन हो चुका है।

बात ही बात में मैंने कह दिया था कि मैं समझता हूँ कि पूरे रामायण में सबसे बड़ा त्याग उर्मिला ने किया है और मुझे लगता है कि तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में उर्मिला के साथ एक प्रकार से अन्याय किया है। तुलसीदास जी की इस गलती को श्री मैथिलीशरण गुप्त जी ने साकेत की रचना करके सुधारा है।

मेरी बात सुनकर दाउद जी ने मुझे बताया कि मैथिलीशरण गुप्त जी भी उनके गुरु रह चुके हैं। उन्होंने कहा कि एक बार ऐसी ही बात उन्होंने गुप्त जी के समक्ष कह दी थी जिस पर गुप्त जी ने उन्हें समझाते हुए कहा था, "बेटा दाउद, बड़े लोगों की गलती नहीं निकालते। इतने बड़े महाकाव्य की रचना करते समय क्या किसी प्रकार की भूल नहीं हो सकती?"

रात्रि 9.00 बजे से 11.00 बजे तक दाउद जी का रामायण पाठ होना था किन्तु श्रोतागण आग्रह कर कर के कथा सुनते रहे। यहाँ तक कि रात्रि के डेढ़ बज गये। आयोजकों ने बड़ी मुश्किल से लोगों को समझाया कि दाउद जी ने भोजन नहीं किया है और तब कहीं जाकर उनका प्रवचन समाप्त हुआ।

Friday, September 4, 2009

अपना प्रोफाइल क्यों नहीं बनाते?

किसी ब्लोग को पढ़ने के बाद जब लेख अच्छा लगता है तो लेखक याने कि ब्लोगर के विषय में जानने की इच्छा होती है। और उसको जानने का साधन है उसका प्रोफाइल। पर कई बार प्रोफाइल को क्लिक करने पर या तो नीचे वाला संदेश आता है या फिर वही ब्लोग फिर से खुल जाता है।

क्या आपको नहीं लगता कि लोग आपको अच्छे से जानें? तो क्यों नहीं बनाते अपना प्रोफाइल?

Thursday, September 3, 2009

सावधान! सावधान!! राजेश की बातों में न आना, ये राजेश "स्वच्छ संदेश: हिन्दोस्तान की आवाज़" वाला सलीम है

दोस्तों, पता नहीं क्यों ये ब्रह्मज्ञानी इस्लाम विशेषज्ञ हज़रत एक फालतू बहस को हर हाल में जारी रखना चाहता है। मेरे कल के पोस्ट हिन्दी ब्लोगिंग को अस्वच्छ करने गया "स्वच्छ संदेश: हिन्दोस्तान की आवाज़" में सलीम मियाँ ने राजेश नाम से बहुरूप धर कर निम्न टिप्पणी किया हैः
मेरे हिसाब से इसके सभी सवालों का उत्तर इसी के हथियार से हम लोगों को देना होगा. इसका बॉयकाट करना हम लोगों की बुजदिली होगी. अगर यह वेदों में से श्लोक निकाल कर यह सिद्ध कर रहा है कि अगर यह सिद्ध करता है कि मांसाहार ठीक है तो हमें भी इसकी किताब से इसे यह बताना होगा कि मांसाहार अनार्यों का कर्म है. अगर यह कहता है कि स्त्री एक ज्यादा शादी नहीं कर सकती है तो हम सबको भी यह मिलकर इसे यह बताना होगा कि स्त्री भी कई विवाह कर सकती है. अगर यह वेदों में से श्लोक निकाल कर यह सिद्ध कर रहा है कि ईश्वर एक है तो हमें भी वेदों में से ही निकाल कर यह बताना होगा कि ईश्वर एक नहीं है.

हमें इसके तर्कों का जवाब तर्कों से ही देना होगा. और अगर हम ऐसा नहीं कर पा रहें है और पीछे हट रहें है तो यह हमारी बुजदिली होगी. केवल उसे इसी प्रकार से निरुत्तर कर हम उस स्वच्छ को अस्वच्छ सिद्ध कर पाएंगे.
इस राजेश उर्फ सलीम ने अपने फालतू बहस में हम लोगों को उलझाए रखने के लिए दूसरा तरीका निकाला है याने कि अब हमारी बुजदिली का हवाला दे कर जोश दिला रहा है। ये समझता है कि हम इसके बहकावे में आ जायेंगे। इसे शायद पता नहीं है कि हमारे पास इतना फालतू समय नहीं है कि हम उसकी किताब याने कि कुरआन में खोजते फिरें कि उसमें कोई मांसाहार विरोधी आयत भी है या नहीं। ये समझता है कि जिस प्रकार से वो हमारे श्लोकों को तोड़-मरोड़ कर हमें बताता है, उसी प्रकार से हम भी उसके किसी आयत को तोड़ मरोड़ कर उसे बतायेंगे।

अरे राजेश उर्फ सलीम भाई! तुम्हारी तालीम ने तुम्हें सिखाया होगा कि अर्थ का अनर्थ करो, हमारे श्लोकों को तोड़ मरोड़ कर हमारे धर्मग्रंथों का अपमान करो। पर तुम नहीं जानते कि हमारी शिक्षा तो यही कहती है कि सभी का सम्मान करो, सिर्फ रचनात्मक कार्य करो और आपसी भाईचारा को बढ़ावा दो।

अब आप लोगों को जरूर यह जानने की उत्सुकता हो रही होगी कि मुझे कैसे पता चला कि यह राजेश वास्तव में सलीम है। तो मैं आपको यह बता दूँ कि इस राजेश की एक मूर्खता ने ही उसकी पोल खोल दी। वो क्या है कि कल के मेरे पोस्ट में अपने खुद के नाम से टिप्पणी करने की सलीम मिंया की हिम्मत हो नहीं पाई पर टिप्पणी करने की खुजाल इसे बेतरह सता रही थी। इसलिए उसने राजेश नाम से ब्लोगर में एक खाता खोला और राजेश बन कर एक टिप्पणी कर दिया। पर इसकी मूर्खता देखो कि नाम तो इसने बदल लिया पर टिप्पणी सलीम वाली ही कर गया। टिप्पणी प्रकाशित होते ही इसे अपनी गलती समझ में आई और इसने तत्काल अपनी टिप्पणी को मिटा दिया। देखें मिटाई गई टिप्पणी का स्क्रीनशॉटः


अपनी उस टिप्पणी को मिटा देने के डेढ़-दो घंटे बाद उसने फिर से राजेश नाम से ही दूसरी टिप्पणी कि जिसे कि आप ऊपर पढ़ चुके हैं।

ये राजेश उर्फ सलीम मियाँ बड़े खुश थे कि उनकी पहली टिप्पणी को उनके सिवाय और किसी ने देखा-पढ़ा नहीं है क्योंकि वो तो मिट चुकी है। पर इन हजरत को यह नहीं पता है कि हमारे ब्लोगर बाबा उर्फ गूगल ने हमें एक जादू की छड़ी दी है जिससे हम जान जाते हैं कि हमारे ब्लोग में किसने क्या टिप्पणी की है, भले ही उस टिप्पणी को मिटा दिया गया हो। तो हमें पता चल गया कि मिटाई गई टिप्पणी में क्या लिखा था। नीचे स्क्रीनशॉट देख कर आप भी पढ़ लें कि उस टिप्पणी में क्या लिखा थाः


अब सोचने की बात यह है कि आखिर यह ब्रह्मज्ञानी इस्लाम विशेषज्ञ महापुरुष इस फालतू बहस को जारी क्यों रखना चाहता है? दाल में कुछ काला लग रहा है भाई! कहीं किसी प्रकार की साजिश तो नहीं है?

Wednesday, September 2, 2009

हिन्दी ब्लोगिंग को अस्वच्छ करने आ गया "स्वच्छ संदेश: हिन्दोस्तान की आवाज़"

आम तौर पर मैं फालतू बहस का मुद्दा बन जाने वाला पोस्ट लिखने से बचने की कोशिश करता हूँ पर पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूँ हिन्दी ब्लोगिंग को अस्वच्छ करने के लिए एक ब्लोग "स्वच्छ संदेश: हिन्दोस्तान की आवाज़" अवतरित हो गया है जिसमें संदेश तो अस्वच्छ होते हैं और आवाज इस्लाम की।

इस ब्लोग के मालिक मियाँ सलीम के पास सिर्फ दो ही काम रह गए हैं पहला इस्लाम को येन-केन-प्रकारेण दूसरे लोगों पर थोपना और दूसरा ऊल-जलूल लेख लिख कर और टिप्पणियाँ कर के लोगों को भड़काना। ये बात अलग है कि ये खुद ही नहीं जानते कि क्या लिख रहे हैं, अपनी ही बात को खुद काटते हैं। इनके एक लेख का शीर्षक है "मांसाहार क्यूँ जायज़ है? Non-veg is allowed, even in hindu dharma?" तो दूसरे लेख का शीर्षक है "मांसाहार जायज़ नहीं है, यह एक राक्षशी कृत्य है. Non-veg is not-permitted, its an evil task" है। (दोनों शीर्षक कॉपी पेस्ट किए गये हैं अतः हिज्जों की गलती को अनदेखा करें)। अब भला इन शीर्षकों से क्या समझा जाए? यही तो समझा जायेगा कि लिखने वाला बावला है।

ये कहते हैं कि ये इस्लाम का प्रचार कर रहे हैं। तो करो ना प्रचार, किसने मना किया है? पर इस्लाम को जबरन दूसरों पर थोपने की कोशिश तो मत करो। हम मानते हैं कि सभी धर्म मानव जाति के कल्याण के लिए हैं, किसी धर्म का किसी धर्म से किसी प्रकार का झगड़ा नहीं है। तो तुम अपने धर्म के हिसाब से चलो और हमें अपने धर्म के अनुसार चलने दो।

छत्तीसगढ़ी में एक कहावत है "रद्दा में हागै अउ आँखी गुरेड़ै" अर्थात् रास्ते में हग रहा है और मना करने वाले को आँखें दिखाता है। यह छत्तीसगढ़ी कहावत मियाँ सलीम पर सौ फी सदी लागू होता है। ऊल-जलूल लेख लिखने और टिप्पणियाँ करने याने कि रास्ते में हगने का इन्होंने ठेका लिया हुआ है। कहीं पर भी हिन्दू शब्द, हिन्दू देवी देवताओं के नाम आदि दिख भर जाए कि ये वहाँ पहुँच जायेंगे और टिपियाना शुरू कर देंगे। ऐसे किसी भी पोस्ट में टिप्पणी के रूप में अपनी टांग अड़ाना ये अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। समझाने से समझते तो हैं नहीं और बेशर्म ये इतने हैं कि इन्हें किसी भी प्रकार की बात नहीं लगती।

ये स्वयं को इस्लाम और कुरआन के विशेषज्ञ तो बताते ही हैं, साथ ही साथ खुद को वेद-पुराण आदि के भी प्रकाण्ड पण्डित भी दर्शाते हैं। इनकी निगाहों में हम हिन्दू इतने मूर्ख हैं कि हमने अपने ही धर्मग्रंथ पढ़े ही नही हैं और ये इतने ज्ञानी हैं कि अपने धर्मग्रंथ के साथ ही हमारे धर्मग्रंथों को भी पढ़ते रहते हैं। ये हमें हमारे ही धर्मग्रंथ सिखाना-पढ़ाना चाहते हैं। अवतार शब्द का अर्थ तो ये जानते नहीं और हमें हमारे ही अवतारों के बारे में बताते हैं। ये समझते हैं कि अवतार सिर्फ ईश्वर का होता है। इन्हें नहीं पता कि अवतार मनुष्य का भी होता है, अवतार मनोविकारों का भी होता है। गोस्वामी तुलसीदास आदिकवि वाल्मीकि के अवतार थे और ये स्वयं "नफरत" के अवतार हैं। वेद और पुराण के उन उद्धरणों को इन्होंने रट लिया जो कि इन्हें इस्लाम विचारधारा से मेल खाते हुए से लगते हैं।

इन्हें यह नहीं पता है कि हिन्दू धर्म और संस्कृति अनेक प्रकार के विचारधाराओं का मेल है। इसमें जहाँ एकेश्वरवाद है वहीं बहुईश्वरवाद भी है। जहाँ निर्गुण ब्रह्म है वहीं सगुण ब्रह्म भी है। जहाँ ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार करने वाले आध्यात्मिक ऋषिगण हैं वहीं चार्वाक जैसा ईश्वररीय सत्ता को अस्वीकार करने वाला भौतिकवादी ऋषि भी है। और इन्हें यह भी नहीं मालूम कि हम हिन्दू जितना सम्मान आध्यामिक ऋषि को देते हैं, भौतिवादी ऋषि के लिए भी हमारे हृदय में उतना ही आदर है।

कुछ और जानें या न जानें पर हमारे धर्मग्रंथों से अपने मतलब की बातें खोज लेना अच्छी प्रकार से जानते हैं। हमारे धर्मग्रंथों से एकेश्वरवाद, निर्गुण ब्रह्म जैसी विचारधाराओं, जो कि इस्लाम विचारधारा से मिलते हैं, को ढूँढ निकालते हैं और उन्हीं अपने मतलब की बातों के सहारे हमें ज्ञान देने का प्रयास करते हैं। ये यह भी दर्शाते हैं कि इन्हें हमारे धर्म की हमसे अधिक चिंता है, किस फिल्म में हमारे धर्म से सम्बन्धित बातों को गलत रूप फिल्माया गया था। कहने का तात्पर्य है कि ये बुड्ढे को मूतना सिखाना चाहते हैं।

इन्हें अच्छी तरह से पता है कि कोई इनकी बात को नहीं मानने वाला है इसलिए जनाब कैरानवी को अपनी हाँ में हाँ मिलाने के लिए सहायक बना रक्खा है।

हम जानते हैं कि गंदगी में यदि पत्थर फेकेंगे तो गंदगी के छींटे हमें ही लगेंगे पर हमें गंदा करने के लिए गंदगी बन जाने में भी इन्हें किसी प्रकार का परहेज नहीं है। ये ऐसी गंदगी हैं जो चाहते हैं कि हम उन पर पत्थर फेंकें, ये हमें जानबूझ पत्थर फेंकने के लिए उकसाते हैं।

ज्ञानी यदि ज्ञानी से मिले तो काम की बातें होती हैं और मूर्ख मूर्ख से मिलता है तो जूतमपैजार होती है इसीलिए कहा गया हैः

ज्ञानी से ज्ञानी मिले, हो गई अच्छी बात।
मूरख से मूरख मिले, हो गई दो दो लात॥

पर यदि ज्ञानी मूरख से मिलता है तो मूरख खुद को उससे बड़ा ज्ञानी सिद्ध करने की ही कोशिश करता है क्योंकि अगर सिद्ध न भी हो पाए तो उसका क्या बिगड़ना है? है तो वह आखिर मूरख ही।

मैं अपने सभी ब्लोगर बन्धुओं से आग्रह करता हूँ कि इस गंदगी में पत्थर फेंक कर खुद को गंदा न करें। न तो इनके ब्लोग पर जाकर टिप्पणी ही करें और न ही अन्य ब्लोग में इनके द्वारा की गई टिप्पणी का जवाब देने में अपना वक्त बरबाद करें। इनका ध्येय ही है कि हम इनसे उलझते रहें, तो इन्हें इनके ध्येय में सफल न होने दें। इनका सोशल बायकाट करें।

और मैं जानता हूँ कि मियाँ सलीम को ज्योहीं पता चलेगा कि उनके लिए एक नया आफत का परकाला अवतरित हो गया है त्योंही मेरे इस ब्लोग में अवश्य आयेंगे ऊल-जलूल टिप्पणी करने के लिए और या अपने पहले या फिर बाद में कैरानवी मियाँ को भी भेजेंगे। तो उनसे भी गुजारिश है कि अल्लाह ने जरा भी अक्ल दिया है तो आपसी नेकनीयती को खतम करने जैसा नापाक काम छोड़ कर कुछ इन्सानियत का भला करने वाला शबाब का काम करो। हजरत! तालीमयाफ्ता हो तो इतना तो समझते हो कि प्यार से प्यार बढ़ता है और नफरत से नफरत। तो प्यार और भाईचारा को बढ़ाओ ना, नफरत क्यों फैलाते हो? तुम्हारे ही ब्लोग में आकर एक नेकबख्त शख्स ने तुम्हें यह लिंक दिया था, पता नहीं तुम उस लिंक में गए कि नहीं, यदि नहीं गए हो तो अब जाकर देखो कैसे होते हैं अच्छे विचार! हिन्दी में ब्लोगिंग कर रहे हो तो कुछ अपना भला करो, कुछ जग का भला करो, कुछ हिन्दी का भला करो, हिन्दी ब्लोगिंग को अस्वच्छ तो मत करो।