Wednesday, March 17, 2010

जिसके अपने खुद के घर शीशे के होते हैं, वे दूसरों के घरों में पत्थर नहीं फेंका करते

शीशा याने कि काँच ...

बहुत नाजुक होता है शीशा! इसीलिये कहते हैं कि "जिसके अपने खुद के घर शीशे के होते हैं, वे दूसरों के घरों में पत्थर नहीं फेंका करते।"

हजारों साल से मनुष्य के जीवन में शीशा अर्थात् काँच के महत्वपूर्ण तथा विशिष्ट प्रयोग होते रहे हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं होगा जिसने काँच से बनी वस्तु का इस्तेमाल न किया हो। काँच से बने दर्पन का प्रयोग तो हम सभी हर रोज करते ही हैं। रंग बिरंगी काँच की चूड़ियाँ नारी की सुन्दरता में चार चांद लगाती हैं। काँच के गिलास, काँच की कटोरी, काँच के बोतल, काँच की बरनी आदि हमारी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ हैं। कारों, बसों, रेलगाड़ियों आदि की खिड़कियों में शीशे का ही इस्तेमाल होता है। इत्र, सेंट रखने के लिये काँच की आकर्षक शीशियाँ भला किसने नही देखी होगी? मदिरा को तो काँच के खूबसूरत और आकर्षक बोतलों में ही रखा जाता है और मदिरापान के लिये काँच के ही सुन्दर सुन्दर प्यालियों का ही प्रयोग किया जाता है।

काँच सिलिका अर्थात् रेत का एक अवयव होता है। यह एक अकार्बनिक पारदर्शी ठोस पदार्थ होता है जो कि आम तौर पर रंगहीन या तथा अनेक रंगों में पाया जाता है। भौतिक रूप से यह कड़ा और ठोकर लगने पर टूट जाने वाला होता है तथा हवा, धूप, पानी आदि के प्रभाव से मुक्त होता है।

पृथ्वी में प्राकृतिक काँच का अस्तित्व आरम्भ से ही रहा है। समझा जाता है कि ज्वालामुखी फूटने अथवा उल्कापात होने आदि के कारण उत्पन्न उच्च ताप से विशेष प्रकार के चट्टान पिघल गये रहे होंगे और तापमान कम होने पर पुनः ठोस होने पर उनका रूप काँच में बदल गया रहा होगा। यह भी विश्वास किया जाता है कि पाषाणयुग के मानव ने भी कठोर वस्तुओं को काटने के लिये प्राकृतिक काँच से बने हथियारों तथा उपकरणों का ही प्रयोग करते रहे होंगे।

प्राचीन-रोमन इतिहासकार Pliny (ई. 23-79) के अनुसार 5000 ई.पू. के आसपास सीरिया के क्षेत्र में काँच की खोज हुई थी। एक अन्य जानकारी के अनुसार मनुष्य ने 3000 ई.पू. कांस्य युग के दौरान पहली बार काँच का निर्माण किया। मिस्र में मिले काँच में लगभग 2500 ई.पू. के मनके पाये गये हैं। काँच के बर्तन बनाने की शुरुवात लगभग 1500 ई.पू. में हुई। सीरिया में प्रथम शताब्दी के आसपास काँच को मनचाहे रूप में ढालने की कला विकसित हुई।

काँच बनाने के लिये रेत को कुछ अन्य सामग्री के साथ 1500 डिग्री सैल्सियस पर पिघलाया जाता है और इस प्रकार से प्राप्त पिघले द्रव को मनचाहा रूप देने के लिये खाँचों में बूंद-बूंद करके डाला जाता है। आजकल ये प्रक्रियाएँ स्वचालित मशीनों से की जाती हैं।

14 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

अवधिया साहब लेख सुन्दर और जानकारी पूर्ण है लेकिंलेख की हेडिंग भी समझ में आ रही है ! और इस पर कहना चाहूंगा कि मुझे तो पैदाइशी शौक रहा है कांच के घरो पर पत्थर फेंकने का :)

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

होठों पे हंसी देख ली अंदर नही देखा
यारों ने मे्रे गम का समंदर नही देखा
शीशे का मकां तुमने बना तो लि्या दोस्त
पर वक्त के हाथ मे पत्थर नही देखा।


जोर दार कांच के विषय मे जानकारी।
ज्ञानवर्धक आलेंख आभार

Anil Pusadkar said...

वाह चिनाय सारी सारी अवधिया सेठ,छा गये,राजकुमार याद आ गये।

Anonymous said...

ज्ञानवर्धक जानकारी

वैसे कल कोई कह रहा था काँच टूटना शुभ होता है!

Unknown said...

पत्थर तो खैर बिलकुल न ही फ़ेंकें…… पर कांच के घर वालों को अपने कपड़े भी लाइट बुझाकर बदलना चाहिये… :)

संजय बेंगाणी said...

कई बार धैर्यवान का मजाक बनाने के लिए भी पत्थर फैकें जाते है :)

अच्छी जानकारी.

Chandan Kumar Jha said...

कांच कथा अच्छी लगी


गुलमोहर का फूल A

अजित गुप्ता का कोना said...

कांच का एक प्रकार आइना भी है जिसके माध्‍यम से हम अपना मुखड़ा देख सकते हैं। यदि यह नहीं होता तो इंसान सभी के बारे में जानता सिवाय अपने चेहरे के।

kunwarji's said...

कांच की नाजुकता खूब बया की है आपने!

लो छोड़ दिए हमने पत्थर फेंकने...

कुंवर जी,

Udan Tashtari said...

सुन्दर जानकारी दी..आभार!!

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी जानकारी!

स्वप्न मञ्जूषा said...

Bahut acchi jaankari di Bhaiya aapne..

विनोद कुमार पांडेय said...

एकदम सही बात...

Khushdeep Sehgal said...

राजकुमार जी का ही एक और डॉयलॉग...
ये (चाकू या कांच) बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं जानी,
लग जाए तो हाथ कट जाता है...

जय हिंद...