आप जितने भी जोड़े देखते होंगे उनमें से पंचान्बे प्रतिशत बेमेल ही मिलेंगे। पता नहीं क्या जादू है कि हमेशा हूर लंगूर के हाथों ही आ फँसती है। हमारे हाथ में भी आखिरकार एक हूर लग ही गई थी आज से चौंतीस साल पहले।
जब शादी नहीं हुई थी हमारी तो बड़े मजे में थे हम। अपनी नींद सोते थे और अपनी नींद जागते थे। न ऊधो का लेना था न माधो का देना। हमारा तो सिद्धान्त ही था "आई मौज फकीर की, दिया झोपड़ा फूँक"। याने कि अपने बारे में हम इतना ही बता सकते हैं कि आगे नाथ न पीछे पगहा। किसी के तीन-पाँच में कभी रहते ही नहीं थे हम। आप काज महाकाज समझ कर बस अपने काम से काम रखते थे। हमारे लिये सभी लोग भले थे क्योंकि आप तो जानते ही हैं कि आप भला तो जग भला।
पर थे एक नंबर के लंगूर हम। पर पता नहीं क्या देखकर एक हूर हम पर फिदा हो गई। शायद उसने हमारी शक्ल पर ध्यान न देकर हमारी अक्ल को परखा रहा होगा और हमें अक्ल का अंधा पाकर हम पर फिदा हो गई रही होगी। या फिर शायद उसने हमें अंधों में काना राजा समझ लिया होगा। या सोच रखा होगा कि शादी उसी से करो जिसे जिन्दगी भर मुठ्ठी में रख सको।
बस फिर क्या था उस हूर ने झटपट हमारी बहन से दोस्ती गाँठ ली और रोज हमारे घर आने लगी। "अच्छी मति चाहो, बूढ़े पूछन जाओ" वाले अन्दाज में हमारी दादी माँ को रिझा लिया। हमारे माँ-बाबूजी की लाडली बन गई। इधर ये सब कुछ हो रहा था और हमें पता ही नहीं था कि अन्दर ही अन्दर क्या खिचड़ी पक रही है।
इतना होने पर भी जब उसे लगा कि दिल्ली अभी दूर है तो धीरे से हमारे पास आना शुरू कर दिया पढ़ाई के बहाने। किस्मत का फेर, हम भी चक्कर में फँसते चले गये। कुछ ही दिनों में आग और घी का मेल हो गया। आखिर एक हाथ से ताली तो बजती नहीं। हम भी "ओखली में सर दिया तो मूसलो से क्या डरना" के अन्दाज में आ गये। उस समय हमें क्या पता था कि अकल बड़ी या भैंस। गधा पचीसी के उस उम्र में तो हमें सावन के अंधे के जैसा हरा ही हरा सूझता था। अपनी किस्मत पर इतराते थे और सोचते थे कि बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले ना भीख।
अब अपने किये का क्या इलाज? दुर्घटना घटनी थी सो घट गई। उसके साथ शादी हो गई हमारी। आज तक बन्द हैं हम उसकी मुठ्ठी में और भुगत रहे हैं उसको। अपने पाप को तो भोगना ही पड़ता है। ये तो बाद में समझ में आया कि लंगूर के हाथ में हूर फँसती नहीं बल्कि हूर ही लंगूर को फाँस लेती हैं। कई बार पछतावा भी होता है पर अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।
21 comments:
aअवधियाजी
अभी हमने आपके घर इस पोस्ट का लिंक भेजा तो भाभीजी ने दूसरी ही कहानी बताई। वे कह रही थीं कि लंगूर..(ओह सॉरी! आप) ही उनके पीछे पीछे लगे रह्ते थे। कॉलेज के बाहर रोज शाम को इंतजार किया करते थे आप, और भी बहुत सी बातें बताई थी जो मैं यहां नहीं लिखूंगा वरना आप की पोल खुल जायेगी। और हां हूर ने आपको नहीं फंसाया.. हूर ने लंगूर के चक्करों से आज़िज आ कर और उसे सबक सिखाने के लिये शादी की थी।
यह सच है ना, बताईये आप?
:)
सच सच बताईये कि क्या लंगूर.. (अगेन सॉरी! आप ) खुश नहीं थे, हूर को पाकर?
हमें तो यह भी पता चला कि बहुत इतराते फिरते थे आप।
:)
लंगूर के हाथ में हूर फँसती नहीं बल्कि हूर ही लंगूर को फाँस लेती हैं।
ha ha ha
हा हा ...अच्छी व्यथा कथा लिख डाली....पर हूर पाकर कितना इतराए होंगे...वो दिन भी याद कर लें...
हमें विश्वास है कि भाभी जी हूर थी और हैं भी किन्तु ये तो बताईये क्या आप विवाह के इतने दिनों बाद भी लंगूर ही हैं क्या?आटे-दाल के भाव मालूम हो गये होंगे.वैसे भी विवाहदिल्ली का लड्डूहैजो खाये सो पछताये न खाये सो भी पछताये
आगे के विवाहित जीवन के लिये शुभकामनायें.
हा-हा-हा
आपकी बात पसन्द आयी कि - "हूर ही लंगूर को फांस लेती है"
प्रणाम
एक मुहावरा छूट गया -घूरे के भी दिन फिरते हैं -और हूर मिल भी जाती होगी !
हमने तो सुना है कि लंगूर अपना पूरा हरम लेकर चलता है। हूर लंगूर को क्या अंगूर को भी फांस लेती हैं। हूरे होती ही ऐसी हैं। लेकिन हमें तो सागर नाहर जी की बात में भी दम लग रहा है। क्या कहते है ना कि शेखी बघारने की आदत पड़ गयी है तो क्या करें?
चलिए बीती ताही बिसारिये और आगे की सुधि लीजिए...अब तो हो चुका,जो होना था :-)
हूर और लंगूर वाह सब क्या कहने ...
langur ke haath mei aayi huur......aur langur ban gaya hur ki plate ka angur.....
असल मे टीन एज से बाहर होते ही लंगूर का भेजा थोडा थोडा घूम जाता है. और वो तभी सही होता है जब हुर के जूते खाले. तो उसी शीतनिद्रा मे चढ गये होंगे हूर के चकमे में, वर्ना तो गुरु आदमी कभी जल्दी से किसी के चक्कर मे आता नही.:)
रामराम.
लंगुर जी.... सारी अवधियाजी जी जरुर कोई पिछले जन्म मै अच्छॆ काम किये होगे जो भाभी जी जेसी हुर मिल गई, अब तो सात जन्मो का फ़िक्स है जी, खुब छलांगे लगाये
क्या कीजिएगा एक होनी थी हो गई...
लंगूर वीर कथा रही रोचक
आपसे पूरी सहानुभूति है ।
ha ha ha hoor ko paane ki katha bahut rochak hai :)
बहुत खूब लिखा है आपने. अब क्या कहे, हमें तो आपकी व्यथा सुन कर ऐसा लगा की आप ऐसा कहना चाह रहे है कि गए थे हरी भजन को ओटन लगे कपास :-)
इस के पीछे भी एक कहानी है...इंद्रलोक में एक दिन इंद्र देवता अप्सराओं के अच्छा नृत्य न करने से नाराज हो गए...और शाप दे डाला...जाओ आज से तुम सब जिन्नों के हवाले...कहीं ये लंगूर वही जिन्न तो नहीं हैं...
जय हिंद...
इसे आप लंगूर के हाथ मे हूर कहे
या
कौवे की चोंच में अँगूर
ये तो होना ही था ।
हूर के चक्कर मे फ़ंस गए जरुर
हूर तो हूर रह गई बन गए लंगुर
कभी तो एक दिन बुद्धि लौटेगी
जब वह ढुंढेगी कि कहाँ गए हजुर
जय हो गुरुदेव
वाकी बडा मजेदार लिखा आपने आशा करता हूं कि आपको मेरा पोस्ट पंसद आएग http://bit.ly/bKBPW2
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