जबान याने कि जीभ ... इसे रसना की संज्ञा दी गई है क्योंकि यह सभी प्रकार के रस अर्थात् स्वाद का हमें अनुभव कराती है। ये रसना ना होती तो हम कभी भी न जान पाते कि खट्टा, मीठा, चरपरा, कसैला आदि क्या चीज होती है। आजकल बाजार पटा हुआ है दसहरी, लंगड़ा, सुंदरी, बैंगनपल्ली आदि आमों से; सड़कों के किनारे ठेले भरे हुए दिखाई पड़ते हैं इन आमों से। और इन सुस्वादु आमों के दर्शन हुए नहीं कि जीभ गीली होने लगती है लार से। लज्जतदार खाद्य वस्तुओं का निर्माण मात्र इस रसना की तृप्ति के लिये ही होती हैं। पेट तो सादे भोजन से भी भरता है किन्तु इस रसना का क्या करें जो पुलाव, बिरयानी, मटर पुलाव, वेजीटेरियन पुलाव, दाल, दाल फ्राई, दाल मखणी, चपाती, रोटी, तंदूरी रोटी, पराठा, पूरी, हलुआ, सब्जी, हरी सब्जी, साग, सरसों का साग, तंदूरी चिकन आदि जायकेदार भोजन की ओर हमें खींचे चले जाती है। पर मुँह में जायका आखिर कितनी देर तक रह पाता है? जीभ से जरा नीचे गले के भीतर भोजन उतरा नहीं कि सारे स्वाद एक हो जाते हैं।
ये जबान जहाँ रस रस का अनुभव कराती है वहीं मुँह से भाँति-भाँति के शब्द निकाल कर कभी सुनने वाले के कानों में मिठास घोलती है वहीं कोड़े बरसाने से भी नहीं चूकती। चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी ने अपनी कहानी "उसने कहा था" के आरम्भ में ही इस जुबान के कमाल को बड़ी दक्षतापूर्वक दर्शाते हैं:
बडे-बडे शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जुबान के कोड़ो से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकॉर्ट वालों की बोली का मरहम लगायें। जब बडे़-बडे़ शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरों को चींरकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर, ‘बचो खालसाजी‘ ‘हटो भाईजी‘ ‘ठहरना भाई जी‘ ‘आने दो लाला जी‘ ‘हटो बाछा‘ कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पडे़। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; चलती है पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी वचनावली के ये नमूने हैं – ‘हट जा जीणे जोगिए’; ‘हट जा करमा वालिए’; ‘हट जा पुत्ता प्यारिए’; ‘बच जा लम्बी वालिए।‘ समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा।
अनेक बार तो इस जबान ने बड़े-बड़े युद्ध तक करवा दिये हैं। यदि द्रौपदी ने दुर्योधन से सिर्फ "अन्धे के अन्धे ही होते हैं" न कहा होता तो महाभारत के युद्ध में अठारह अक्षौहिनी सेना के मरने-कटने की कभी नौबत ही ना आती।
जबान के जरा से फिसल जाने से अपनों के बीच बैर व्याप्त जाता है और दूसरी ओर मीठी जबान बैरी को भी अपना बना सकता है। इसीलिये कहा गया हैः
ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय॥
9 comments:
ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय॥
साधुवचन
आज तेवर कुछ बदले बदले नजर आ रहे हैं।
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भविष्य बताने वाली घोड़ी।
खेतों में लहराएँगी ब्लॉग की फसलें।
ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय॥
@ सत्यवचन
समूचा मानवी व्यवहार सिर्फ इसी जुबान पर ही तो टिका हुआ है...
जुबान और हाव-भाव दोनों ही मधुर होने पर व्यक्ति सफल होता है।
Thats very good for you!!! You aren't in top 40 !!! lol ha ha ha ha !!!
गुलेरी जी का उद्धरण बढ़िया है.जुबान में हड्डी नहीं होती इसलिये जल्दी फिसल जाती है सो सोच समझ कर ही बोलना चाहिये
exactly
अगर के जबान में हड्डी होती तो अपने ही गले की फांस होती और आप भगवन को कोसते इसलिए उसने इसमें कोई हड्डी नहीं बनाई| अब वो नहीं है तो आप खुद इसे अपने गले की फांस बना देते हैं अब बेचारा भगवान भी क्या करे |
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