मै एक हिन्दी ब्लोगर हूँ। 03-09-2007 को अपना हिन्दी ब्लोग बनाकर मैंने अपना पहला पोस्ट लिखा था और तब से आज तक मात्र कुछ माह को छोड़कर अपने ब्लोग में प्रायः रोज ही एक पोस्ट लिखते चला आ रहा हूँ।
क्यों लिखता हूँ मैं? क्या उद्देश्य है पोस्ट लिखने के पीछे मेरा?
आज जब ऐसे सवाल मेरे मन में उठते हैं तो याद आता है कि जब मैंने अपना हिन्दी ब्लोग बनाया था तो उस समय मेरे पास बहुत सारे उद्देश्य थे। मसलन अपने पोस्ट के माध्यम से अच्छी अच्छी जानकारी देना विशेषतः भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विषय में, नेट में हिन्दी को बढ़ावा देकर हिन्दी की सेवा करना और साथ ही साथ हिन्दी ब्लोगिंग से कुछ कमाई कर के स्वयं भी लाभ लेना। पर आज सोचता हूँ तो लगता है कि ऐसा कुछ भी तो नहीं कर पाया मैं। मुझे पता ही नहीं चला कि कब मेरे उद्देश्य बदल कर ढेर सारी टिप्पणियाँ पाना और संकलकों के हॉटलिस्ट में ऊपर ही ऊपर चढ़ते जाना बन गए। आज मैं टिप्पणियों के पैबन्द और संकलकों की बैसाखी पाकर अत्यन्त ही सन्तुष्ट जीव बन गया हूँ।
मैं जानता हूँ कि नेट में आने वाले करोड़ों हिन्दीभाषियों में से मुझे शायद ही कोई पढ़ता है पर क्यों ना बनूँ मैं सन्तुष्ट जीव? आखिर कुछ ऐसे लोग भी तो हैं जो मुझे पढ़ते हैं या फिर पढ़ने का दिखावा ही कर लेते हैं। क्या यह कम है मेरे लिए? आज तक मैंने जो कुछ भी लिखा है यदि मैंने उसे स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में छपने भेजा होता तो अवश्य ही मेरी वे सब रचनाएँ वहाँ की कचरा पेटी की शोभा बढ़ाती होतीं और कहाँ मिलते मुझे पढ़ने वाले? तो क्यों ना बनूँ मैं सन्तुष्ट जीव?
मुझे सन्तुष्ट रहना है इसलिए यही सोचा करता हूँ कि हिन्दी में बहुत सारे महान साहित्यकार हुए हैं पर क्या किसी की भी रचना कभी 'बेस्टसेलर' बनी है? क्या किसी ने 'मैक्सिम गोर्की' के "द मदर", 'चार्ल्स डिकन्स' के "अ टेल ऑफ टू सिटीज़" आदि जैसी पुस्तकें हिन्दी में लिखी हैं जिनके पाठक संसार भर में हैं? संसार की बात छोड़ें, अपने ही देश में ही 'जयशंकर प्रसाद' की "कामायनी", 'मैथिलीशरण गुप्त' जी के "साकेत" जैसी रचनाओं को कितने लोग पढ़ते हैं? घर में "रामचरित मानस" रहने पर भी किसने उसे पूरा पढ़ा है? तो फिर यदि मेरे लिखे को कोई पढ़ने वाला नहीं है तो इससे क्या फर्क पड़ जाता है? क्यों ना रहूँ मैं सन्तुष्ट? मुझे टिप्पणियाँ मिलती हैं, संकलकों के हॉटलिस्ट में मेरा पोस्ट ऊपर चढ़ता है यह क्या कम है मेरे लिए?
और लोग क्यों टिप्पणियाँ करते हैं यह तो मैं नहीं कह सकता पर मैं हर रोज हिन्दी के सैंकड़ों नहीं तो कम से कम पचास-साठ पोस्टों में जाकर इसलिए टिप्पणियाँ किया करता हूँ कि मुझे भी कम से कम पन्द्रह-बीस टिप्पणियाँ मिल जाए। "आप हर मरतबा एक बकवाइस लिखकर पाटक का टाइम खोटी करती है। बकवाइस बंद किरिए। ऐहसान होगी." जैसी टिप्पणियाँ पाकर भी मैं खुश होता हूँ! ऐसी टिप्पणियों को न मिटा कर मैं हिन्दी भाषा पर और खुद पर भी उपकार करता हूँ। इसे मिटा दूँगा तो हिन्दी में की गई एक टिप्पणी कम हो जाएगी और टिप्पणियाँ कम होने से नेट में हिन्दी का वर्चस्व कैसे बढ़ेगा? इसे मिटा दूँगा तो हॉटलिस्ट में मेरा पोस्ट नीचे उतर आएगा; और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसे मिटा दूँगा तो मुझ पर अपनी आलोचना न सह पाने का इल्जाम भी लग जाएगा। तो आखिर क्यों मिटाऊँ मैं इसे? आखिर ये टिप्पणियाँ ही तो हैं जो मुझे गुदगुदाती हैं और मेरे पोस्ट को संकलकों के हॉटलिस्ट में ऊपर चढ़ा कर मुझे संतुष्टि प्रदान करती हैं।
मैं अपंग हूँ क्योंकि मैं अपने दम पर आगे नहीं बढ़ सकता। पर क्या हुआ? संकलकों की बैसाखी तो है मेरे पास! मैं निर्धन हूँ क्योंकि मेरे पास ऐसी लेखन क्षमता का धन नहीं है जो हजारों-लाखों की संख्या में पाठक जुटा सके। पर क्या हुआ? टिप्पणी देने वाले तो हैं मेरे पास! मैं असहाय हूँ क्योंकि मैं चाहकर भी अपनी इस स्थिति से उबर नहीं सकता। पर क्या हुआ? सन्तुष्ट और आत्ममुग्ध तो हूँ मैं!
26 comments:
मैं अपंग हूँ क्योंकि मैं अपने दम पर आगे नहीं बढ़ सकता। पर क्या हुआ? संकलकों की बैसाखी तो है मेरे पास!
बहुत बढ़िया कत्क्ष है अवधिया जी , हम जैसे टिप्पणीकारों पर :):)
रद्दी की टोकरी में जाने से तो अच्छा है कि यहीं दो- चार पाठक जुटा लिए जाएँ .. और आठ - दस टिप्पणियाँ पा कर आत्म मुग्ध होते रहें ....
वरना सच ही है जिन्होंने जयशंकर प्रसाद और मैथिलि शरण गुप्त जैसे साहित्यकारों को नहीं पढ़ा वो हम जैसे चिरकुट रचनाकारों को क्या पढेंगे ..
आपका यह व्यंग लेख बहुत पसंद आया ...इतना सच भी भला कोई बोलता है :):)
कटाक्ष * भूल सुधार
लो जी आपको पढने का दिखावा करते हुये एक टिप्पणी मैं भी दे रहा हूँ, ताकि आपकी आत्ममुग्धता बनी रहे।
प्रणाम
जयशंकर प्रसाद,मैथिलीशरण गुप्त,मैक्सिम गोर्की, चार्ल्स डिकन्स इत्यादि हमारे ब्लॉग पर टिप्पणी करने आते हैं क्या?
फ़िर क्यों पढे उनको हम?
उनको पढने से क्या हमारी अपंगता,गरीबी दूर हो जाएगी?
नहीं ना।
इसलिए हम इसी में खुश है गुरुदेव, चाहे अंधवा हो या कनवा सब चलेगा।
जय हो, ब्लागिंग देवता की।
बेहद उम्दा ओर विचारणीय पोस्ट ! इस सार्थक लेख के लिए बधाई ।
अवधिया साहब ,
इतना ही कहूंगा कि ब्लॉग्गिंग इंसान के जीवन का एक स्वैच्छिक अथवा optional लाभ-हीन ( unprofitable) कर्म है इसलिए सिर्फ कर्म कीजिये फल की इच्छा............................! :)
क्या कटाक्ष है, किया है सुन्दर व्यंग्य
आत्म प्रशंसा सुन सचमुच, होते हैं हम धन्य
बहुत सुन्दर......
बढ़िया , आत्मालोचनात्मक प्रविष्टि !
dear awadhiya jee
aapka contact no ab kaam nahi aa raha hai.blog ke madhyam se aapse sampark ho paya hai.aapki yogyata ka sahi upyog retirement ke baad hi ho raha hai.lage raho.aapki yogyata ki abhi chand boonde hi bahar aayi hain.abhi to poora sagar baki hai.pl call .meri shubh kamnayen. .
shubhekshu
arun nigam
9907174334
सर जी ...एकदम सन्नाट ....
हमेशा की तरह आपकी पोस्ट कई तरह के गहरे अर्थ लिए हुए हैं
बधाई हो आपको
चार-एक साल में जो यह दृष्टि विकसित होती है, इस तत्वज्ञान को नये ब्लॉगर आपके इस पोस्ट से पाकर अवश्य धन्य महसूस कर सकते हैं.
हम तो रोज आते है जी....
तीखा है
कड़वा है
फिर भी
रसीला है।
बहुत खूब!
बड़ा सटीक तीर निकाला है तरकश से सर जी.
उम्दा प्रस्तूति-आभार
पढिए एक कहानी
आपके ब्लॉग की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर-स्वागत है।
आप का लिखना हमें प्रिय है, टिप्पणी बेशक रोज न करें लेकिन आपका लिखा हुआ पढ़ते हैं जरूर। हमारे जैसे पढ़्कर भी न टिपियाने वालों पर बिना पढ़े टिपियाने वालों का अहसान ही है, औसत निकाल देते हैं।
आप अगर अदना से ब्लॉगर हैं तो हमें ऐसे अदना लोग ही पसंद हैं जी और ऐसी पोस्ट भी।
आभार
व्यंग्य तो बहुत अच्छा है उसमें जो यथार्थ कि चटनी लगाकर परोसा है तो चटपटा भी खूब है. जरा भी संदेह नहीं है , ये टिपियाना तो भाई व्यवहार वाली बात है आप जितना हमारे यहाँ कर देंगे उसमें और कुछ मिलाकर वापस कर दिया जाएगा. नहीं तो उतना भी चलता है. जैसे शादी में डायरी में गिफ्ट लिखा करते हैं कि अमुक में ये दिया उसके यहाँ भी कल देना होगा न. इसमें तुरंत दान महा कल्याण वाली बात है आप दीजिये दूसरा तुरंत देगा बगैर ये समझे कि क्या लिखा है? वह वाह वाह कर दिए. कई बार वह वह पढ़ कर ऊपर चले जाते हैं तो समझ नहीं आता कि इसमें इतनी वाह वाह जैसे कोई बात ही नहीं थी लेकिन वह दिलदार लोगों के ब्लॉग होते हैं न, 11 के बदले 101 व्यवहार करते हैं.
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बहुत ही सुन्दर रचना .
अच्छी प्रस्तुति .
"आप हर मरतबा एक बकवाइस लिखकर पाटक का टाइम खोटी करती है। बकवाइस बंद किरिए। ऐहसान होगी." जैसी टिप्पणियाँ पाकर भी मैं खुश होता हूँ!
अब और क्या चाहिये....
"आप हर मरतबा एक बकवाइस लिखकर पाटक का टाइम खोटी करती है। बकवाइस बंद किरिए। ऐहसान होगी." जैसी टिप्पणियाँ पाकर भी मैं खुश होता हूँ!
और क्या chah-ye ?
कटु परन्तु सत्य ...
इस सच को सभी को स्वीकार करना चाहिये ।
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