कितने खुश होते थे हम भाई-बहन जब हम सभी को एक साथ बैठा कर माँ खाना परसती थी! हम चार भाई और एक बहन में कोई एक भी अनुपस्थित होता तो हम सभी उसके आने की प्रतीक्षा करते और उसके आ जाने के बाद ही एक साथ खाना खाते थे। एक-दूसरे को देखे बिना हम भाई-बहन रह नहीं पाते थे और हमारे माता-पिता हमारे इस सौहार्द्र को देखकर खुशी से फूले नहीं समाते थे।
आज माता-पिता दोनों ही परलोक सिधार चुके हैं। हम सभी के अपने-अपने परिवार हो गए हैं। सब अलग-अलग घरों में रहते हैं। एक ही शहर में रहते हुए भी महीनों एक दूसरे से मुलाकात नहीं होती। अभी भाई दूज के दिन बहन ने हम सभी भाइयों को निमन्त्रित किया था किन्तु सभी अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार अलग-अलग समय में बहन के घर पहुँचे। किसी ने किसी की भी प्रतीक्षा नहीं की।
सोच-सोच कर हैरान हूँ कि कहाँ गया वो बचपन का सौहार्द्र? कहाँ गई वो खुशी?
11 comments:
सब समय का फेर है ... सबकी अपनी अपनी जिम्मेदारी भी तो होती है जिस कारण चाहते हुए भी सभी समय पर एकत्र नहीं हो पाते हैं ..... आभार
किन्तु सभी अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार अलग-अलग समय में बहन के घर पहुँचे। किसी ने किसी की भी प्रतीक्षा नहीं की।
अब सब अपनी सुविधानुसार ही काम करते हैं ...कम से कम इतना सौहार्द बाकी है कि बहन ने निमंत्रित किया ....
अब वह बचपन बच्चों में खोजा जाए ।
पहले परिवारों में प्रेम बड़ा था लेकिन अब व्यक्ति बड़ा हो गया है। नहीं रही पहले सी बात। फिर भी मध्यम वर्गीय परिवारों में प्रेम दिखायी देता है।
व्यक्तिवादी सोच ने बदल दिया है सारा माहौल
दिक्कत है बढ़ी हुई जनसंख्या. जिसके कारण लोगों की लाइफस्टाइल बदल गयी. घर दूर दूर हो गये. पैसा कमाना आवश्यक है, जिसके कारण समय की किल्लत हो गयी...
दराल जी ने कहा कि वो बचपन अब बच्चों मे खोजा जाये मगर वो बचपन रहा ही कहाँ है जीवन शैली ने सब कुछ बदल दिया। आपकी पोस्ट ने बचपन की याद दिला दी। धन्यवाद।
जिन्दगी ऐसे ही चलती है जी
सबके साथ ऐसा होता है
कोई नया बना रिश्ता आपका इंतजार करता है और पुराने दूर होते जाते हैं।
प्रणाम
जाने कहाँ गया वो वक्त? सच यही है जो आज है बाकी तो सब यादों मे रह गया है।
साथ बैठ कर खाने का आनन्द ही अलग है।
निरंतर बदलते परिवेश में मानव जीवन के अंतर्विरोंधों की कटु सच्चाईयों को दर्शाती खूबसूरत और संवेदनशील प्रस्तुति. आभार.
सादर,
डोरोथी.
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