जरा हम अपने हृदय पर हाथ रख कर सोचें कि क्या हम बारह भारतीय महीनों के नाम भी जानते हैं? शायद ही हम में से कुछ ही लोग जानते होंगे और क्रमवार तो उनमें से भी बहुत ही कम लोग जानते होंगे। ईसवी सन् कौनसा है यह हम सभी जानते हैं किन्तु पूछ दिया जाये कि कौन सा संवत् चल रहा है तो हम बगलें झाँकने लगते हैं। यदि सोते से उठा कर भी हमें अंग्रेजी के छब्बीस अक्षर बताने के लिये कहा जाये तो हम उन्हें तुरन्त बोल देंगे, किन्तु बहुत सोचने के बाद भी हमें देवनागरी के अक्षर पूरे याद नहीं आते।
हम केवल दीवाली, होली जैसे प्रमुख त्योहारों को मना कर आत्मप्रवंचना कर लेते हैं कि हम भारतीय हैं। अपने पश्चिमी संस्कारों के ऊपर भारतीय संस्कार का एक मुलम्मा चढ़ा लेते हैं। हम अंग्रेजी माध्यम के कन्व्हेंट स्कूलों में पढ़े हुये लोग हैं। अपने त्योहारों को मनाते हुये हम गर्व का अनुभव करते हैं और सभ्य लोगों के बीच अपनी ही भाषा बोलने में हमें शर्म और संकोच होता है। किसी साक्षात्कार में यदि हमसे हिन्दी में भी प्रश्न किया जाये तो उसका उत्तर अंग्रेजी में दे कर हम स्वयं को बुद्धिमान सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। यदि उत्तर हिंदी में ही देते हैं तो भी उसमें अंग्रेजी के शब्दों को घुसेड़ कर यह तो अवश्य ही बता देते हैं कि हम हिंदी जानें या न जानें, अंग्रेजी अवश्य ही जानते हैं।
फिर जैसे हमारे माता-पिता ने किया था वैसे ही हम भी अपने बच्चों को बचपन से ही माँ-पिताजी, चाचा-चाची कहना सिखाने के बदले मम्मी-डैडी, अंकल-आंटी कहना सिखलाते हैं। उन्हें कन्व्हेंट स्कूलों में भेज कर उन्हें अंग्रेजी की शिक्षा दिलवाते हैं। हिन्दी हमारे बच्चों के लिये द्वितीय भाषा हो जाती है। हमारे बच्चों को हम याद नहीं आते बल्कि वे हमें 'मिस' करते हैं।
अब तो हमारी फिल्में और टी।व्ही। चैनल्स जैसी प्रभावशाली माध्यमों ने भी हममें एक खिचड़ी भाषा का संस्कार भरना शुरू कर दिया है। फिल्मों के नाम आधा हिन्दी और आधा अंग्रेजी में होते हैं। टी.व्ही. का कोई भी 'सीरियल', कोई भी विज्ञापन देख लें, भाषा खिचड़ी पायेंगे।
इन सभी बातों को ध्यान में रख कर सोचें कि क्या हम वास्तव में भारतीय हैं?
10 comments:
मैं आपसे सहमत हूँ.
आज भी वर्णमाला अच्छी तरह याद है और भारतीय बारह महिनों के नाम पिताजी ने विद्यालय शुरु होने से पहले ही याद करवा दिये थे, विक्रमी संवत भी याद रहता है।
आपकी पोस्ट पढकर अच्छा लगा।
प्रणाम स्वीकार करें
प्रश्न तो सही किया है।
हमारे अन्दर की संस्कृति और संस्कार विलुप्त हो चुके हैं>..
भारतीयता की पहचान तेजी से बदल रही है.
भारतीयता धीरे धीरे ढल रही है।
समय के साथ चीजे बदलती रहती है कुछ सकरात्मक होती है तो कुछ नकारात्मक | समय के साथ हो रहे इन बदलाव में हम सिर्फ सकरात्मक चीजो को ही नहीं चुन सकते है | अब भारतीय होने और भारतीयता की पहचान बदल रही है | किसी को ये सही लगती है किसी को गलत | मै भी अपने बच्ची को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाती हु आज के समय के लिए जरुरी है लेकिन इसके साथ ही उसकी हिंदी भी अच्छी बनाती हु और मुम्बईया हिंदी से दूर रखती हु |
भारत में सदियों से महाभारत होता आ रहा है. नेता से लेकर शिक्षक तक... हर तरफ महाभारत.. सिखायेगा कौन? सीखेगा कौन?
जैसा देश वैसा...
हाँ यह सवाल हमे अपने दिल पर हाथ रखकर करना चाहिये कि क्या हम सचमुच हिन्दी जाति के है ? ( प्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा जी के शब्दों मे )
अपसे पूरी तरह सहमत। शुभकामनायें।
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