अधिक नहीं, मात्र चालीसेक साल पहले हमारे समाज में स्टील के बर्तनों में खाना खाने को अकरणीय माना जाता था। जहाँ सम्पन्न परिवारों में सोने-चाँदी के बर्तनों का चलन था वहीं सर्वसाधारण लोग फूलकाँस के बर्तनों का प्रयोग किया करते थे। स्टील और अल्यूमीनियम के बर्तनों को हिकारत की नजर से देखा जाता था। आज फूलकाँस के बर्तन गाँवों में तो शायद कहीं दिखाई दे जाएँ किन्तु नगरों में तो ये विलुप्तप्राय हो चुके हैं। शहरों में ये बर्तन यदि कहीं दिखाई देते भी हैं तो विवाहादि समारोहों में जहाँ पर परम्परा के अनुसार कन्या को पाँच बर्तन दहेज के रूप में दिए जाते हैं।
सिर्फ पारम्परिक बर्तन ही नहीं बल्कि खाना पकाने की पारम्परिक विधि भी आज समाप्त हो चुकी है। आज मिट्टी के चूल्हे पर मिट्टी के बर्तन में खाना पकाने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। मिट्टी के चूल्हे पर मिट्टी की हांडी में चाँवल, मिट्टी के ही बर्तन में, जिसे छत्तीसगढ़ में कुरेड़िया कहा जाता है, सब्जी और पीतल की बटलोई में दाल पका कर मेरी माँ मुझे परसा करती थी उस खाने के लिए आज भी मेरा मन तरसता है।
5 comments:
पहली बार आपके व्लाग पर आया, देर में आने की गलती की यही तो हमारा तथाकथित विकास है अच्छी पोस्ट..
सही कहा आपने अवधिया साहब ! मैं जब छुतियों में गाँव जाया करता था तो मेरी दादी माँ लम्बे-लम्बे गिलास में दूध देती थी , एक गिलास दूध के बाद खाना खाने की जगह नहीं बचती थी पेट में !
अब पुराने बर्तन नहीं दिखते है।
परिवर्तन बड़ी तेजी से हुये हैं. एक बात और, वे बर्तन (फूलकांस के) आर्थिक मजबूती भी देते थे.
वक्त के साथ परिवर्तन तो लाज़मी है ...हमारे बच्चों ने तो चूल्हा देखा ही नहीं ...कोयले की अंगीठी या बुरादे की अंगीठी तो सुनी भी नहीं ...रही बर्तनों की बात तो पीतल या कांसे के बर्तनों का रख रखाव करना ही कठिन काम लगता है ...पुरानी बातें तो याद आती ही हैं ..
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