Thursday, January 27, 2011

भारतीय ज्ञान के प्रतीक - यज्ञवेदी

आज जिसे हम हवनकुण्ड या यज्ञकुण्ड कहते हैं वह वास्तव में यज्ञवेदी हैं। "तंत्रार्णव" में बताया गया है कि यज्ञ की वेदी समस्त ब्रह्माण्ड का एक छोटा रूप ही है। इस सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी ने सृष्टियज्ञ करके ही किया था। वेदों में अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ जैसे अनेक यज्ञों के विषय में वर्णन है। इन सभी यज्ञों के लिए भिन्न-भिन्न आकृतियों वाली वेदियाँ हुआ करती थीं। तैत्तिरीय ब्राह्मण कहता है कि जो स्वर्ग प्राप्ति की कामना से यज्ञानुष्ठान करता है उसे श्येन (बाज) पक्षी की आकृति जैसी वेदी बनवानी चाहिए क्योंकि श्येन की उड़ान समस्त पक्षियों में श्रेष्ठ है; ऐसी वेदी बनवाने वाला स्वयं श्येन का रूप लेकर उड़ते हुए स्वर्गलोक पहुँच जाता है।

यज्ञ की वेदियों की आकृति कितनी जटिल होती थीं इसका अनुमान नीचे के चित्रों को को देखकर लगाया जा सकता हैः

 

(चित्र http://www.ece.lsu.edu/kak/axistemple.pdf के सौजन्य से साभार)

यज्ञ की वेदियों में त्रिभुज, चतुर्भुज जिसमें वर्ग तथा आयत दोनों ही होते थे, षट्भुज, अष्टभुज, वृत आदि रेखागणितीय आकार सम्मिलित रहते थे तथा उन रेखागणितीय आकृतियों के क्षेत्रफल भी पूर्वनिर्धारित तथा निश्चित अनुपात में हुआ करते थे। आकृतियों के आकार-प्रकार, क्षेत्रफल आदि की गणना के लिए सूत्र बनाए गए थे जिन्हें शुल्बसूत्रों के नाम से जाना जाता है। बोधायन एवं आपस्‍तम्‍ब के शुल्बसूत्र प्रमुख माने जाते हैं। आपको शायद ज्ञात होगा, और यदि आप नहीं जानते हैं तो जानकर आपको आश्चर्य होगा, कि त्रिभुज की भुजाओं के वर्ग से सम्बन्धित जिस प्रमेय का प्रतिपादन करने के लिए ग्रीक लोग पैथागोरस को श्रेय देते हैं, उसके विषय में हमारे आचार्यों को पैथागोरस के काल से हजारों वर्ष पहले ही न केवल ज्ञान था बल्कि वे उस प्रमेय का यज्ञवेदी बनाने के लिए व्यवहारिक रूप से प्रयोग भी किया करते थे। बोधायन अपने शुल्बसूत्र में कहते हैं

समचतुरसस्याक्ष्णया रज्जुः पार्श्वमानी तिर्यङ्मानी च यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति।

इसका अर्थ है, किसी आयात का कर्ण क्षेत्रफल में उतना ही होता है, जितना कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई के वर्गों का योग होता है, दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किसी वर्ग के कर्ण का क्षेत्रफल स्वयं उस वर्ग के क्षेत्रफल से दोगुना होता है। हमारे पूर्वजों के इस ज्ञान को ग्रीक दार्शनिक तथा गणितज्ञ पैथागोरस अपने शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि किसी समकोण त्रिभुज के कर्ण का वर्ग उस त्रिभुज की अन्य दो भुजाओं के वर्गों के योग के बराबर होता है।

इन शुल्बसूत्रों में विशेषरूप से निर्धारित रेखागणितीय आकृतियों के निर्माण के विषय में बहुत से विवरण हैं तथा यह भी बताया गया है कि एक रेखागणितीय आकृति के क्षेत्रफल के बराबर या किसी निश्चित अनुपात के क्षेत्रफल वाले दूसरी रेखागणितीय आकृति कैसे बनाया जा सकता है जैसे कि एक आयत के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल वाले त्रिभुज, चतुर्भुज आदि बनाना।

यज्ञवेदियों के निर्माण के लिए विशेषज्ञ आचार्यों द्वारा इन्हीं सूत्रों का प्रयोग किया जाता था। दूरी की इकाई अंगुल होती थी जो कि जो कि आज के एक इंच के लगभग तीन चौथाई के बराबर होती थी। अंगुल को यव तथा तिल में पुनः विभाजित किया गया था, 8 यव या 34 तिल के बराबर एक अंगुल हुआ करता था। रेखागणितीय आकृतियों की भुजाओं, कर्णों आदि को नापने के लिए डोरी का प्रयोग किया जाता था जिसे कि रज्जु कहा जाता था।

बोधायन ने न केवल पैथागोरस प्रमेय (Pythagorean Ttheorem), जिसे कि अब (Boudhayan Ttheorem) के नाम से जाना जाता है, का ज्ञान दिया बल्कि अंक 2 के वर्गमूल ज्ञात करने सूत्र भी निम्न रूप में हमें दियाः



ऐसा प्रतीत होता है कि शुल्बसूत्रों का प्रयोग उस काल में भवन, अट्टालिकाएँ आदि के निर्माण के लिए भी अवश्य ही हुआ करता रहा होगा। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या, मिथिला, लंका के साथ ही साथ अनेक अन्य नगरों का वर्णन मिलता है जिनमें अनेक सुन्दर विशाल अट्टालिकाएँ, भवन, बावड़ियाँ, वाटिकाएँ तथा उपवन, बावड़ियाँ आदि बने होने का विवरण मिलता है जिनके निर्माण के लिए ज्यामितीय ज्ञान का होना अत्यावश्यक है। अतः यही कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में शुल्बसूत्रों का प्रयोग वास्तु से सम्बन्धित निर्माणकार्य में भी हुआ करता था। हमारा तो यह भी विश्वास है कि वर्तमान ताज महल के निर्माण में भी शुल्बसूत्रों का ही प्रयोग हुआ है।

भारत भूमि आरम्भ से ही ज्ञान का भण्डार रहा है और इसीलिए हमारा देश जगद्गुरु के रूप में जाना जाता था। पाश्चात्य विद्वानों ने हमारे वैदिक साहित्य का अपनी भाषाओं में अनुवाद अठारहवीं शताब्दी के अंत या उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में कर डाला था जिन पर शोध आज तक जारी है। प्राचीनकाल के आचार्यों के इन जटिल सूत्रों के विषय में जानकर विश्व के समस्त विद्वजन आज भी हतप्रभ हैं।

7 comments:

Mithilesh dubey said...

बहुत ही उम्दा व जानकारी से भरा रहा आपका ये आलेख , आभार आपका ।

प्रवीण पाण्डेय said...

काश आज की शिक्षा पद्धति इन गौरवशाली तथ्यों को समझ पाये।

P.N. Subramanian said...

सारगर्भित जानकारी. आभार.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

सब कुछ लुटाकर भी होश में नहीं आये..हम लोग.

Rahul Singh said...

सरल ढंग से प्रस्‍तुत गंभीर जानकारी. अपस्तान, पुष्टि कर लें आपस्‍तम्‍ब तो नहीं.

Unknown said...

अपस्तान गलती से टाइप हो गया था, आपस्तम्ब ही है। त्रुटि का ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद राहुल जी! गलती सुधार दी गई है।

shyam gupta said...

बहुत शानदार,,अवधिया जी...ग्यान का भन्डार क्या...ग्यान ही भारत से प्रारम्भ हुआ...वेद का अर्थ ही ग्यान है...