इस सार्वभौम सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि अस्तित्व रक्षा हेतु मनुष्य की तीन आधारभूत आवश्यकताएँ होती हैं - भोजन, वस्त्र और निवास याने कि रोटी, कपड़ा और मकान! और जब मनुष्य की ये तीनों आधारभूत आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं तो स्वाभाविक रूप से वह मनोरंजन खोजने लगता है। किन्तु मनोरंजन की प्राप्ति हो जाने पर भी उसकी मानसिक मानसिक प्यास नहीं बुझ पाती। उसके मस्तिष्क में "मैं कौन हूँ?", "जीवन का उद्देश्य क्या है?", "मुझे शान्ति और प्रसन्नता कैसे प्राप्त होगी?" जैसे अनेक प्रश्न उठने लगते हैं। ये सारे प्रश्न ही धर्म को जन्म देते हैं। शान्ति और आनन्द की यह खोज ही मनुष्य को अध्यात्म और धर्म की ओर आकर्षित करते हैं। इस संसार और ब्रह्माण्ड को देखकर स्वाभाविक रूप से मनुष्य को जिज्ञासा होने लगती है कि इनका निर्माण किसने किया? वह एक एक अलौकिक महान शक्ति (supernatural power), जिसने इस संसार को बनाया, के अस्तित्व के होने की अवधारणा बना लेता है जिसे कि परमात्मा, ईश्वर, भगवान, अल्ला, खुदा, गॉड जैसे नामों से जाना जाता है। वास्तव में देखा जाए तो मनुष्य का इतिहास उसका स्वयं का इतिहास न होकर अलौकिक महान शक्ति (supernatural power) की खोज का ही इतिहास है।
मनुष्य की बुद्धि ही मनुष्य को पशु-पक्षी आदि अन्य प्राणियों से अलग कर देता है। मनुष्य की यह बुद्धि ही ऐसे प्रश्नों को जन्म देती है जिनसे धर्म का जन्म होता है और यह धर्म ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ बना देता हैः
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं (अर्थात् यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं), केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।
अपनी इसी श्रेष्ठता के कारण हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने आज से कई हजारों साल पहले अनेक गूढ़ रहस्यों को जान लिया था। उन्होंने समझ लिया था कि मनुष्य मात्र एक देह नहीं होता किन्तु वास्तव में मनुष्य के भीतर एक अति सूक्ष्म रूप में एक शक्ति होती है जिसे कि आत्मा कहा जाता है। उन्होंने इस गूढ़ रहस्य को भी समझ लिया था कि यह आत्मा ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु में व्याप्त रहती है, अर्थात् मनुष्य के भीतर सूक्ष्म रूप में पूर्ण ब्रह्माण्ड होता है। इसीलिए ईशावास्योपनिषद में कहा गया हैः
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥
इस ब्रह्माण्ड मे जो कुछ भी गतिशील अर्थात चर अचर पदार्थ है, उन सब मे ईश्वर अपनी गतिशीलता के साथ व्याप्त है उस ईश्वर से सम्पन्न होते हुये तुम त्याग भावना पूर्वक भोग करो। आसक्त मत हो कि धन अथवा भोग्य पदार्थ किसके है? अर्थात् किसी के भी नही है। अत: किसी अन्य के धन का लोभ मत करो क्योकि सभी वस्तुऐं ईश्वर की है।
ऊपर बताया गया है कि धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है। केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से अलग करता है। तो प्रश्न यह उठता है कि आखिर धर्म है क्या? धर्म शब्द की उत्पत्ति "धृ" क्रिया से हुई है जिसका अर्थ है "धारण करना", अतः जो धारण करे वही धर्म है, इसी को संस्कृत में इस प्रकार कहा गया है - धरति इति धर्मः"। महाभारत में भी इसी बात को दुहराया गया हैः
धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥
"धर्म" शब्द की उत्पत्ति "धारण" शब्द से हुई है (अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है), यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है। अतः यदि किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निस्सन्देह वह धर्म है।
हमारे प्राचीन ऋषियों ने, जो वास्तव में दार्शनिक, चिंतक तथा वैज्ञानिक होते थे, अनेक प्रकार के खोज तथा आविष्कार किए थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने खोज लिया था कि मनुष्य का मस्तिष्क सतत् कार्य करते रहता है। यहाँ तक कि मनुष्य के सोते समय भी उसका मस्तिष्क नहीं सोता और कार्य करता ही रहता है जिसके परिणाम स्वप्न होते हैं। हमारे पूर्वजों ने अनेक प्रकार के अन्वेषण करके यह खोज निकाला कि यदि किसी प्रकार से मस्तिष्क को कार्य करने से रोक दिया जाए तो उस अवस्था में एक अद्भुत् शान्ति की प्राप्ति होती है। अपनी इस शुद्धतम अवस्था में मनुष्य परमात्मा के अत्यन्त निकट पहुँच जाता है। इस अवस्था को ही योग की अवस्था कहा जाता है जिसे कि महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में "योगश्चित्तवृतिनिरोधः" कह कर बताया है, अर्थात मस्तिष्क को विचार तरंगों से हीन कर देना ही योगावस्था है।
यद्यपि हम आज केवल भौतिक सुख-सुविधा के साधन प्रदान करने वाले खोजों तथा आविष्कारों को ही विज्ञान की संज्ञा देते है, किन्तु हमारे ऋषियों की आत्मा-परमात्मा, योग-ध्यान आदि सम्बन्धित खोज और आविष्कार निःसन्देह विज्ञान ही है। ऐसी बात नहीं है कि हमारे पूर्वजों ने केवल अध्यात्मिक विज्ञान में उपलब्धियाँ प्राप्त की थीं बल्कि भौतिक विज्ञान में भी वे आज से भी कहीं बहुत आगे थे। जिन खोजों और आविष्कारों को हम आज पाश्चात्य वैज्ञानिकों की उपलब्धि मानते हैं उनके विषय में हमारे पूर्वज हजारों साल पहले ही जानते थे, जैसे कि आज जिसे पाइथागोरस का साध्य कहा जाता है उसका प्रयोग बोधायन ने पाइथागोरस से हजारों साल पहले अपने शुल्बसूत्र में किया था, पृथ्वी की परिधि की माप, सूर्य से पृथ्वी की दूरी आदि की सही सही गणना हमारे ऋषियों ने हजारों साल पहले ही कर लिया था।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में अनेक गूढ़ रहस्य छुपे हुए हैं! आज आवश्यकता है शोध करके उन रहस्यों को खोज निकालने की।
मनुष्य की बुद्धि ही मनुष्य को पशु-पक्षी आदि अन्य प्राणियों से अलग कर देता है। मनुष्य की यह बुद्धि ही ऐसे प्रश्नों को जन्म देती है जिनसे धर्म का जन्म होता है और यह धर्म ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ बना देता हैः
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं (अर्थात् यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं), केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।
अपनी इसी श्रेष्ठता के कारण हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने आज से कई हजारों साल पहले अनेक गूढ़ रहस्यों को जान लिया था। उन्होंने समझ लिया था कि मनुष्य मात्र एक देह नहीं होता किन्तु वास्तव में मनुष्य के भीतर एक अति सूक्ष्म रूप में एक शक्ति होती है जिसे कि आत्मा कहा जाता है। उन्होंने इस गूढ़ रहस्य को भी समझ लिया था कि यह आत्मा ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु में व्याप्त रहती है, अर्थात् मनुष्य के भीतर सूक्ष्म रूप में पूर्ण ब्रह्माण्ड होता है। इसीलिए ईशावास्योपनिषद में कहा गया हैः
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥
इस ब्रह्माण्ड मे जो कुछ भी गतिशील अर्थात चर अचर पदार्थ है, उन सब मे ईश्वर अपनी गतिशीलता के साथ व्याप्त है उस ईश्वर से सम्पन्न होते हुये तुम त्याग भावना पूर्वक भोग करो। आसक्त मत हो कि धन अथवा भोग्य पदार्थ किसके है? अर्थात् किसी के भी नही है। अत: किसी अन्य के धन का लोभ मत करो क्योकि सभी वस्तुऐं ईश्वर की है।
ऊपर बताया गया है कि धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है। केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से अलग करता है। तो प्रश्न यह उठता है कि आखिर धर्म है क्या? धर्म शब्द की उत्पत्ति "धृ" क्रिया से हुई है जिसका अर्थ है "धारण करना", अतः जो धारण करे वही धर्म है, इसी को संस्कृत में इस प्रकार कहा गया है - धरति इति धर्मः"। महाभारत में भी इसी बात को दुहराया गया हैः
धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥
"धर्म" शब्द की उत्पत्ति "धारण" शब्द से हुई है (अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है), यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है। अतः यदि किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निस्सन्देह वह धर्म है।
हमारे प्राचीन ऋषियों ने, जो वास्तव में दार्शनिक, चिंतक तथा वैज्ञानिक होते थे, अनेक प्रकार के खोज तथा आविष्कार किए थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने खोज लिया था कि मनुष्य का मस्तिष्क सतत् कार्य करते रहता है। यहाँ तक कि मनुष्य के सोते समय भी उसका मस्तिष्क नहीं सोता और कार्य करता ही रहता है जिसके परिणाम स्वप्न होते हैं। हमारे पूर्वजों ने अनेक प्रकार के अन्वेषण करके यह खोज निकाला कि यदि किसी प्रकार से मस्तिष्क को कार्य करने से रोक दिया जाए तो उस अवस्था में एक अद्भुत् शान्ति की प्राप्ति होती है। अपनी इस शुद्धतम अवस्था में मनुष्य परमात्मा के अत्यन्त निकट पहुँच जाता है। इस अवस्था को ही योग की अवस्था कहा जाता है जिसे कि महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में "योगश्चित्तवृतिनिरोधः" कह कर बताया है, अर्थात मस्तिष्क को विचार तरंगों से हीन कर देना ही योगावस्था है।
यद्यपि हम आज केवल भौतिक सुख-सुविधा के साधन प्रदान करने वाले खोजों तथा आविष्कारों को ही विज्ञान की संज्ञा देते है, किन्तु हमारे ऋषियों की आत्मा-परमात्मा, योग-ध्यान आदि सम्बन्धित खोज और आविष्कार निःसन्देह विज्ञान ही है। ऐसी बात नहीं है कि हमारे पूर्वजों ने केवल अध्यात्मिक विज्ञान में उपलब्धियाँ प्राप्त की थीं बल्कि भौतिक विज्ञान में भी वे आज से भी कहीं बहुत आगे थे। जिन खोजों और आविष्कारों को हम आज पाश्चात्य वैज्ञानिकों की उपलब्धि मानते हैं उनके विषय में हमारे पूर्वज हजारों साल पहले ही जानते थे, जैसे कि आज जिसे पाइथागोरस का साध्य कहा जाता है उसका प्रयोग बोधायन ने पाइथागोरस से हजारों साल पहले अपने शुल्बसूत्र में किया था, पृथ्वी की परिधि की माप, सूर्य से पृथ्वी की दूरी आदि की सही सही गणना हमारे ऋषियों ने हजारों साल पहले ही कर लिया था।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में अनेक गूढ़ रहस्य छुपे हुए हैं! आज आवश्यकता है शोध करके उन रहस्यों को खोज निकालने की।
5 comments:
यही गहराई धर्मग्रन्थों की पठनीयता रोचक करती है।
bahut hi rochak our gyaanvardhak post...aabhaar.
एक बढ़िया लेख के लिये बधाई.. और धन्यवाद..
प्राचीन ग्रंथों के बारे मे बताने के लिये ओर अच्छी जानकारी देने के लिये आप का धन्यवाद
आपकी पिछली कई पोस्ट में इस ओर आपने अच्छा प्रयास किया है.
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