(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
मानते हैं कि-
हम धर्म निरपेक्ष देश में रहते हैं
और हर तरह की ज्यादती-
हम लोग ही तो सहते हैं।
धर्म निरपेक्ष!
अर्थात् जिसे धर्म की अपेक्षा ही न हो
याने कि पूरा पूरा अधर्मी
जिन्हें रौंद डालें विधर्मी।
क्या संसद ने ऐसा कोई कानून बनाया है-
कि हम वेद, शास्त्र, उपनिषद्, रामायण-
पढ़ ही नहीं सकते-
फिर हम ऐसा क्यों नहीं करते
कौन हमें रोकता है?
कौन हमारी धार्मिकता को
गहन अन्धकार में झोंकता है?
कोई हृदय पर हाथ रख कर कहे-
कि हम अपने धर्म ग्रंथों को नियमित पढ़ते हैं!
बारम्बार उनका पुनश्चरण करते हैं।
यदि हाँ, तो भारत आज भी-
धर्म निरपेक्ष नहीं धर्म प्राण राष्ट्र है-
और यदि नहीं, तो
निश्चित है कि यह संस्कृति-संस्कार विहीन राष्ट्र है।
हम मर चुके हैं और हमारा जीना,
केवल भीषण त्रास और उपहास है।
कौन रोकता है हमें-
नित्य स्वाध्याय करने से-
और सद् ग्रंथों को छोड़ स्वयं के साथ
घोर अन्याय करने से।
पर हमारा मन ही मर गया है-
पश्चिमी चकाचौंध से भर गया है।
हम एक नई संस्कृति उभार रहे हैं-
ब्राह्म-मुहूर्त में कुत्ते के साथ भ्रमण कर-
श्वान संस्कृति में जीवन को ढाल रहे हैं।
और चार्वाक को भी धिक्कार रहे हैं!
हमारी आत्मा गहरी नींद ले रही है-
हमारी मूर्खता यही सन्देश दे रही है-
कि हमें कोई नहीं रोकता-
हम पतन की आग में भस्म हो रहे हैं,
हमारे सिवाय-
उस आग में हमें और कोई नहीं झोंकता।
हम सब कुछ हैं पर भारतीय नहीं-
हममें संस्कार ही नहीं इसलिये-
वह हमें नहीं टोकता-
पर हमें संभलना चाहिये-
अपने धर्म ग्रंथों को नियमित पढ़ना ही चाहिये,
क्योंकि ऐसा करने से हमें,
कोई नहीं रोकता।
(रचना तिथिः शनिवार 09-04-1981)
मानते हैं कि-
हम धर्म निरपेक्ष देश में रहते हैं
और हर तरह की ज्यादती-
हम लोग ही तो सहते हैं।
धर्म निरपेक्ष!
अर्थात् जिसे धर्म की अपेक्षा ही न हो
याने कि पूरा पूरा अधर्मी
जिन्हें रौंद डालें विधर्मी।
क्या संसद ने ऐसा कोई कानून बनाया है-
कि हम वेद, शास्त्र, उपनिषद्, रामायण-
पढ़ ही नहीं सकते-
फिर हम ऐसा क्यों नहीं करते
कौन हमें रोकता है?
कौन हमारी धार्मिकता को
गहन अन्धकार में झोंकता है?
कोई हृदय पर हाथ रख कर कहे-
कि हम अपने धर्म ग्रंथों को नियमित पढ़ते हैं!
बारम्बार उनका पुनश्चरण करते हैं।
यदि हाँ, तो भारत आज भी-
धर्म निरपेक्ष नहीं धर्म प्राण राष्ट्र है-
और यदि नहीं, तो
निश्चित है कि यह संस्कृति-संस्कार विहीन राष्ट्र है।
हम मर चुके हैं और हमारा जीना,
केवल भीषण त्रास और उपहास है।
कौन रोकता है हमें-
नित्य स्वाध्याय करने से-
और सद् ग्रंथों को छोड़ स्वयं के साथ
घोर अन्याय करने से।
पर हमारा मन ही मर गया है-
पश्चिमी चकाचौंध से भर गया है।
हम एक नई संस्कृति उभार रहे हैं-
ब्राह्म-मुहूर्त में कुत्ते के साथ भ्रमण कर-
श्वान संस्कृति में जीवन को ढाल रहे हैं।
और चार्वाक को भी धिक्कार रहे हैं!
हमारी आत्मा गहरी नींद ले रही है-
हमारी मूर्खता यही सन्देश दे रही है-
कि हमें कोई नहीं रोकता-
हम पतन की आग में भस्म हो रहे हैं,
हमारे सिवाय-
उस आग में हमें और कोई नहीं झोंकता।
हम सब कुछ हैं पर भारतीय नहीं-
हममें संस्कार ही नहीं इसलिये-
वह हमें नहीं टोकता-
पर हमें संभलना चाहिये-
अपने धर्म ग्रंथों को नियमित पढ़ना ही चाहिये,
क्योंकि ऐसा करने से हमें,
कोई नहीं रोकता।
(रचना तिथिः शनिवार 09-04-1981)
5 comments:
धर्म को इन निर्पेक्षों से कहाँ कोई अपेक्षा है।
और यह निर्पेक्ष धर्म से कोई अपेक्षा भी न रखे।
अधर्मी ही रहे, ताकि धर्मी शान्ति से धर्माध्यन कर जीवन उन्नत बना सके।
अधर्मीयों-निर्पेक्षों को कोई अधिकार नहीं वे धर्म के सम्बंध में कुछ भी बोले।
स्तुत्य काव्य है।
संभवतः सामयिक सत्य यही है।
सहमत हे जी आप की कविता से, धन्यवाद
अर्थपूर्ण चिंतन.
बहुत ही सार्थक और सामयिक रचना. धर्म से दूर रहने से ही तो परेशानियां उत्पन्न हो रही हैं..
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