Saturday, July 30, 2011

कई काम हम सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि उस काम को दूसरों ने भी किया है

आज छत्तीसगढ़ के प्रायः सभी मकानों के दरवाजों पर नीम की पत्तियों वाली टहनियाँ खुँसी हुई दिखाई पड़ रही हैं। भोर होते ही घरों के दरवाजों में नीम पत्ती लगाने का सिलसिला शुरू हो गया था। रायपुर में तो ऑटोरिक्शा, बस आदि वाहनों में भी नीम की टहनियाँ खुँसी हुई दिखाई दे रही हैं। अभी कुछ देर पहले मैं जिस ऑटो रिक्शा में था उस के सामने भी नीम की टहनी लगी हुई थी। ऑटो में बैठे एक सवारी ने, जो कि शायद छत्तीसगढ़ से बाहर से आया हुआ था, ऑटो वाले से पूछ लिया कि उसने यह नीम की टहनी क्यों लगा रखी है तो ऑटो वाले ने जवाब दिया कि अन्य वाहनों में नीम की टहनी लगी है इसलिए उसने भी अपने ऑटो में नीम की टहनी लगा लिया है। याने कि उसे स्वयं नहीं पता कि उसने नीम की टहनी लगाने का काम क्यों किया है। प्रायः होता यह है कि कई काम हम सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि उस काम को दूसरों ने भी किया है।

नीम की टहनी लगाने के पीछे वास्तविक कारण यह है कि आज छत्तीसगढ़ का एक विशिष्ट त्यौहार हरेली है जिसके विषय में मान्यता यह है कि आज का दिन विभिन्न प्रकार की शक्तियों के जागृत करने का दिन है और किसी प्रकार की तन्त्र-मन्त्र जनित बुरी शक्ति से नीम की टहनी रक्षा करती है। कहा जाता है कि हरेली, दीवाली, होली तथा हर महीने की अमावस्या और पूर्णिमा तान्त्रिकों तथा जादू-टोना करने वालों के लिए विशेष दिन होते हैं और इन्ही दिनों में उनकी विद्या का सफलतम प्रयोग होता है। उल्लेखनीय है कि हरेली का त्यौहार श्रावण माह की अमावस्या को मनाया जाता है।

यद्यपि आज छत्तीसगढ़ में टोनही की अवधारणा तो समाप्तप्राय हो चुकी है किन्तु टोनही की अवधारणा से जनित भय आज भी बाकी है। यही कारण है कि आज प्रत्येक घर के दरवाजों में नीम की पत्तियों वाली छोटी-छोटी डंगाले टंगी हुई दिखाई दे रही हैं। वास्तव में हम अंध-विश्वास को तो दूर कर लेते हैं किन्तु अंध-विश्वास जनित भय को अपने भीतर से नहीं भगा पाते। अज्ञात का डर मनुष्य को आरम्भ से ही सताता रहा है और शायद अन्त तक सताता ही रहेगा।

हरेली को छत्तीसगढ़ में एक विशिष्ट त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। यह हिन्दू वर्ष (चैत्र-फाल्गुन) का प्रथम त्यौहार है जबकि होली अन्तिम! हरेली के दिन छत्तीसगढ़ में गाँव का बैगा गाँव की रक्षा करने के लिए ग्राम-देवता की पूजा करता है जिसके आयोजन के प्रत्येक ग्रामवासी सहयोग-राशि प्रदान करता है। दिन में त्यौहार की खुशियाँ मनाई जाती है किन्तु रात्रि को अत्यन्त भयावह माना जाता है।

6 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत से कार्य इस तरह से कर लिए जाते हैं सोचते हैं कि यह परम्परा है ..इस बहाने एक नयी जानकारी मिली

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

काबर लइका मन डेरवात हस ग?

हरेली तिहार के गाड़ा गाड़ा बधई।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

यही भेड़ चाल होती है...

P.N. Subramanian said...

सुन्दर आलेख. क्या नीम के विकल्प के रूप में टोरा (Castor) के पत्ते भी प्रयुक्त होते हैं.

प्रवीण पाण्डेय said...

परम्पराओं का कारण होता होगा, कारण न मिल पाना तो उन्हे छोड़ने का कारण नहीं हो सकता है।

निर्मला कपिला said...

जैसे लोग आजकल के संतों के पीछे भाग रहे हैं अन्दर से चाहे वो कितने नकाब ओढे हुये हैं \ सब भीड देख कर उस काम को कर रहे हैं।