अन्ना हजारे की एक हुँकार पर आबालवृद्ध जनों का एकसूत्र में बँध जाना सिद्ध करता है कि देश की समस्त जनता देश से भ्रष्टाचार का सफाया चाहती है। अन्ना के भ्रष्टाचार के विरुद्ध अनशन के परिणामस्वरूप जनता की एकसूत्रता से घबराकर देश की अड़ियल सरकार को झुकने के लिए विवश होकर टीम अन्ना के साथ बातचीत करनी तो पड़ी किन्तु तीन मुद्दों पर मामला फिर लटक गया और इस बाबत सभी दलों से राय लेने के लिए प्रधान मन्त्री को सर्वदलीय बैठक बुलानी पड़ी। देश के लोगों की उम्मीद बँधी कि सर्वदलीय बैठक के बाद मामला सुलझेगा किन्तु बैठक के बाद सरकार अपने द्वारा पहले मान ली गई बातों से भी पलट गई और जनता की आशाओं पर तुषारापात हो गया। अब स्वाभाविक रूप से सवाल यह उठता है कि आखिर उस बैठक में क्या हुआ जिससे सरकार अपनी बातों से पलट गई? वास्तव में इस बैठक ने सरकार के इस अनुमान को सच साबित कर दिया कि कोई भी सांसद नहीं चाहता कि संसद की सर्वोच्चता समाप्त हो। सभी जानते हैं कि संसद की इस सर्वोच्चता के कारण ही जीप घोटाला से लेकर, जो कि स्वतन्त्र भारत के प्रथम ज्ञात घोटाला है, 2G स्पैक्ट्रम घोटाला जैसे बड़े-बड़े घोटाले करने वालों में से आजतक किसी एक भी सजा नहीं मिली, उल्टे अधिकांश घोटाले करने वालों को और भी ऊँचे पदों पर बिठा दिया गया।
सर्वोच्च बने रहने वाला यह संसद आखिर है कौन? यह है जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों अर्थात् सांसदों का जमावड़ा, जो कि सर्वोच्च होने के कारण मनमाने रूप से कुछ भी फैसला कर सकता है, घोटाले करने वालों को और भी ऊँचे पदों पर बिठा सकता है, सांसदों को मात्र कुछ साल के कार्य करने के बदले जीवनपर्यन्त पेन्शन दिला सकता है, उनके वेतन तथा भत्तों में कभी भी 200% तक वृद्धि करवा सकता है, कहने का मतलब यह कि कुछ भी मनमानी कर सकता है। संसद की इस मनमानी पर देश की जनता कुछ भी नहीं कर सकती। जो संसद करे वह जनता को, उस जनता को जिसने प्रतिनिधियों को चुनकर संसद को बनाया है, मानना ही पड़ता है। संसद के बनने तक जनता सर्वोच्च रहती है, जनता के प्रतिनिधि बनने वाले उम्मीदवार जनता के समक्ष आकर वोट की भीख तक माँगते हैं। यदि जनता उन्हें वोट देकर अपना प्रतिनिधि न बनाए तो कभी भी संसद का निर्माण न हो सके। किन्तु एक बार संसद बन जाने के बाद जनता की सर्वोपरिता समाप्त हो जाता है और संसद सर्वोच्च हो जाता है और जनता को उसके नियन्त्रण में आ जाना पड़ता है। जनतारूपी शिव भस्मासुर रूपी संसद को किसी को भी, यहाँ तक कि स्वयं शिव को भी, भस्म कर देने का वरदान दे देते हैं। ऐसे में भला कौन सांसद चाहेगा कि संसद की सर्वोच्चता समाप्त हो जाए? संसद की सर्वोच्चता खत्म हो जाने पर तो देश की जनता ही सर्वोपरि हो जाएगी, जनता का अधिकार एक सांसद के अधिकार से अधिक हो जाएगा। और यही तो सांसद नहीं चाहते। वे संसद को ही सर्वोच्च देखना चाहते हैं। वे भ्रष्टाचार को रोकना नहीं चाहते उल्टे उसे पनपते तथा फलते-फूलते देखना चाहते हैं। सांसदों के इस निश्चय से देश की अड़ियल सरकार, जो अन्ना के आन्दोलन से विवश होकर झुकी थी, को सर्वदलीय बैठक के बाद, सभी सांसदों का साथ मिल जाने से, एक नई ताकत मिल गई और वह अपने वादों से पलट गई तथा फिर से अपने अड़ियल रुख पर आ गई।
मूलतः विज्ञान का विद्यार्थी होने तथा राजनीति में कभी भी बहुत अधिक रुचि न होने के कारण मुझे राजनीति, संविधान आदि के विषय में बहुत अधिक जानकारी नहीं है। किन्तु मुझे लगता है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् अंग्रेजों के बनाए गए संविधान को जैसे का तैसा या थोड़ा बहुत फेरबदल करके अपना लेना ही संसद की सर्वोच्चता का कारण हो सकता है। अंग्रेजों के लिए राजा ही सर्वोच्च था, स्वतन्त्र भारत में राजा का स्थान संसद ने ले लिया इसलिए वह सर्वोच्च हो गया। भारत में अत्यन्त प्राचीन काल में राजन्त्र था किन्तु उन दिनों की राजनीति भी प्रजा को ही सर्वोपरि मानने की थी। यही कारण है कि राम प्रजा की भावनाओं का ध्यान रखते हुए तथा प्रजा को सर्वोपरि मानते हुए अपनी धर्मपत्नी सीता तक का भी त्याग कर दिया। महान राजनीतिज्ञ चाणक्य ने प्रजा और राज्य को ही सर्वोपरि बताया है। चाणक्य सूत्र में वे लिखते हैं - 'प्रकृतिकोपः सर्वकोपेभ्यो गरीयान्' अर्थात् राज्य के विरुद्ध प्रजा का कोप समस्त प्रकार के कोपों से भारी होता है। याने कि प्रजा अर्थात् जनता ही सर्वोपरि है। यहाँ पर यह उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा कि नन्द वंश के अत्याचारी राजाओं का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को उनके राजसिंहासन पर आरूढ़ित कर उन्हें भारत का सम्राट बनाने वाले महान राजनीतिज्ञ चाणक्य नगर के बाहर पर्णकुटी में निवास करते थे। उन्हें साधारण सी कुटिया में रहते देखकर चीनी यात्री फाह्यान ने उनसे पूछा था, "इतने विशाल साम्राज्य के प्रधान मन्त्री होने पर भी आप इस छोटी सी कुटिया में क्यों निवास करते हैं?" उनके इस प्रश्न के उत्तर में चाणक्य ने कहा था, "जिस देश का प्रधान मन्त्री छोटी सी कुटिया में निवास करता है उस देश की प्रजा भव्य भवनों में निवास करती है और जिस देश का प्रधान मन्त्री राज-प्रासादों में निवास करता है वहाँ के प्रजाजन झोपड़ियों में निवास करते हैं।"
अस्तु, वर्तमान संविधान को बनाते समय यदि भारत की संस्कृति तथा 'जनता को ही सर्वोपरि मानने वाली' नीति को ध्यान में रखा गया होता तो संसद को कदापि सर्वोच्च स्थान नहीं दिया गया होता।
2 comments:
मेरी अपनी राय में -
महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनमत संग्रह होना चाहिये.
प्रधानमन्त्री का चुनाव सीधे होना चाहिये.
केन्द्र और राज्यों का दुहरा सिस्टम समाप्त होकर स्थानीय इकाइयों का गठन होना चाहिये.
बड़ी मुद्रा खत्म कर, ५०००/- से ऊपर के भुगतान खाते में ट्रांसफर द्वारा होना चाहिये.
कम से त्रिस्तरीय खुफिया प्रणाली हो, जिसके जरिये उचित और अनुचित में भेद कर तदनुसार कार्रवाई की जा सके.
प्रशासन और शासन दोनों व्यवस्थायें अलग अलग होना चाहिये.
अन्त भला तो सब भला।
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