जब भारत की अनेक भाषाओं की बात चले तो उर्दू को भुला देना बहुत मुश्किल होता है। देखा जाए तो हिन्दी और उर्दू ऐसी दो ऐसी बहनें हैं जो एक-दूसरे के बिना रह ही नहीं सकतीं। रोजमर्रा की बोलचाल वाली हमारी हिन्दी में सैकड़ों ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है जो कि उर्दू के हैं और हिन्दी ने उसे अपना लिया है - जैसे कि हम "विशेष रूप से" कहने के स्थान पर प्रायः "खास तौर पर" का इस्तेमाल (अब यहीं देखिए कि मैंने "प्रयोग" जैसे हिन्दी शब्द के स्थान पर "इस्तेमाल" जैसा उर्दू शब्द टाइप कर डाला) करते हैं। हमें कभी भी नहीं लगता कि "खास" (विशेष), "तौर" (रूप या प्रकार), "शख्स" (व्यक्ति) "सुबह" (प्रातः), "आरजू" (अभिलाषा), "रिश्ता" (सम्बन्ध) इत्यादि शब्द हिन्दी के न होकर उर्दू के हैं, उल्टे हमें ये सारे शब्द हिन्दी के ही लगते हैं। इसी प्रकार से उर्दू के विद्वान भी सैकड़ों हिन्दी शब्दों को अपनी उर्दू रचना में शामिल कर लेते हैं। बिना एक दूसरे के शब्दों को अपनाए हिन्दी और उर्दू में से किसी भी एक का काम चल ही नहीं सकता। हिन्दी के सुविख्यात साहित्यकार प्रेमचंद जी की रचनाओं में न केवल उर्दू शब्दों के भरमार मिलते हैं बल्कि उन्होंने अपनी कृतियों को उर्दू लिपि में ही लिखा था।
यह भी सही है कि आम लोगों के बीच हिन्दी के चलन में आने बहुत पहले ही से उर्दू का चलन था। यही कारण है कि हिन्दी के आरम्भिक दिनों की रचनाओं में उर्दू शब्दों की बहुतायत पाई जाती है। देवकीनन्दन खत्री जी, जिन्होंने अपने जमाने में हिन्दी को सबसे अधिक पाठक दिए, जानते थे कि उन दिनों उर्दू का चलन हिन्दी की अपेक्षा बहुत ज्यादा है इसीलिए उन्होंने अपने उपन्यास "चन्द्रकान्ता" के आरम्भ में ढेर सारे उर्दू शब्दों का प्रयोग किया और "चन्द्रकान्ता सन्तति" के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते शनैः-शनैः उनका प्रयोग कम करते हुए हिन्दी के अधिक से अधिक शब्दों का प्रयोग किया है।
उर्दू वास्तव में तुर्की का एक शब्द है जिसका अर्थ होता है "पराया" या "खानाबदोश"। हिन्दी की तरह ही उर्दू का जन्म भारत में हुआ है और यह भाषा कैसे बनी यह जानना भी बहुत रोचक है। मुगल शासनकाल में उनकी सैनिक छावनी में फारसी, अरबी, हिन्दी तथा हिन्दी की विभिन्न उपभाषाओं के जानने वाले सैनिक एक साथ रहा करते थे जिन्होंने आपस की बोलचाल के लिए एक नई भाषा विकसित कर ली जो कि उर्दू कहलाई। यही कारण है कि उर्दू को लोग अक्सर खेमे की या छावनी की भाषा कहा करते थे। अमीर खुसरो, मीर तक़ी मीर, मिर्जा ग़ालिब, फैज़ अहमद फैज़ जैसे विद्वानों को यह भाषा भा गई और उन्होंने इसका साहित्यिक रूप विकसित करना शुरू कर के इस एक प्रकार से कविता की भाषा बना दिया। ब्रिटिश शासन के आने पर इसने राज्य भाषा का दर्जा भी पा लिया। भारत-पाक विभाजन के समय भारत छोड़कर पाकिस्तान जाने वालों के साथ यह भाषा पाकिस्तान चली गई और वहाँ की मुख्य भाषा बन गई।
उर्दू भाषा की एक अलग प्रकार की अपनी मिठास है जो कि मुंशी प्रेमचंद, ख़्वाज़ा अहमद अब्बास, सआदत हसन मंटो, कृष्ण चन्दर, इस्मत चुग़ताई, बलवन्त सिंह जैसे अनेकों रचनाकारों को लुभाती रही। भारत में सवाक् सिनेमा के आने पर हिन्दुस्तानी भाषा अर्थात् उर्दू मिश्रित हिन्दी के रूप में यह फिल्मों में छा गई और आम जनता इससे अच्छी तरह से वाक़िफ़ होने लगी। आज भी भारत में उर्दू के कद्रदानों की संख्या बहुत अधिक है क्योंकि उर्दू खालिस तौर पर एक हिन्दुस्तानी ज़ुबान है।
5 comments:
सुन्दर आलेख।
बेहतरीन.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद्|
सर्वप्रथम नवरात्रि पर्व पर माँ आदि शक्ति नव-दुर्गा से सबकी खुशहाली की प्रार्थना करते हुए इस पावन पर्व की बहुत बहुत बधाई व हार्दिक शुभकामनायें।
यकीनन हिंदी की प्यारी बहन उर्दू……सुंदर अभिव्यक्ति।
bahuat badiya bhaiya
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