(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
हल्की सिहरन धुंधली आभा,
सांझ शीत की आती है;
शिशुओं की नींद उनींदी-सी,
अंधियारी छा जाती है।
सूनी-सूनी सड़कें-गलियाँ,
सन्नाटा-सा छा जाता;
सिसकारी में डूबा जनपद,
तन्द्रा में द्रुत अलसाता।
सीस झुका तरुओं में पल्लव,
विहगों को सहलाते हैं;
पंख फुलाये कलरव भूले,
पंछी मन बहलाते हैं।
पश्चिम में रवि की लाली को,
निगल कालिमा खाती है;
शीतलता की ठंडी आहें,
निशि की सिसकी लाती है।
चौपालों में गाँव ठिठुरते,
कहीं अंगीठी जल जाती;
घेर घेर कर लोग तापते,
उष्ण शान्ति तन में आती।
उधर नगर में उष्ण वसन से
लिपट नागरिक फिरते हैं;
ऊनी मफलर स्वेटर में,
शिशिर सांझ पल कटते हैं।
4 comments:
''शिशुओं की नींद उनींदी-सी, अंधियारी छा जाती है।'' नाजुक अभिव्यक्ति.
इस ठंड में गर्माहट देती पंक्तियाँ।
sheet ritu ka sateek varnan...jay johar!
बहुत सुन्दर कविता...
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