वैसे तो भारत के प्रायः क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों के नाम में दम कर दिया था पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तो अंग्रेजों के लिए साक्षात मुसीबत थे। "सुभाष" नाम सुनते ही अंग्रेजों के कान खड़े हो जाते थे, चाहे वह "सुभाष" नाम का व्यक्ति कोई भी क्यों न हो, बस नाम सुनते ही अंग्रेजी प्रशासन अपने सारे अमले को सतर्क कर दिया करता था। "सुभाष" नाम से अंग्रेजों के इतना घबराने का कारण भी था, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने एक नहीं बल्कि अनेक बार भेष बदल कर अंग्रेजी प्रशासन को छकाया था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को जेल भेज दिया था किन्तु दिसंबर 1940 में उन्होंने अंग्रेजों के मन में आमरण अनशन का ऐसा भय बिठाया कि अंग्रेजों को विवश होकर उन्हें जेल से मुक्त करके उनके स्वयं के घर में नजरबंद करना पड़ा। नेताजी ने अपने घर के एक कमरे में एकांतवास की घोषणा कर दी और उस कमरे में बंद हो गए, यहाँ तक कि किसी से भी मिलना-जुलना तक छोड़ दिया। इस बीच उन्होंने अपनी दाढ़ी भी बढ़ा ली। जब दाढ़ी खूब बढ़ गई तो एक दिन उन्होंने अपना चश्मा उतार कर स्वयं दर्पण में देखा तो खुद ही खुद को नहीं पहचान पाये। उन्हें विश्वास हो गया कि बढ़ी हुई दाढ़ी में बिना चश्मा के कोई उन्हें नहीं पहचान पाएगा। उनका वह कमरा तो क्या उनका सारा घर पुलिस के पहरे में था पर सुभाष जी उन सबकी आँखों में धूल झोंक कर 17 जनवरी 1941 के दिन उस कमरे से नाटकीय ढंग से गायब हो गए। एक पठान के भेष धर कर तथा अपना नाम मोहम्मद जियाउद्दीन रखकर वे कलकत्ता से दूर गोमोह पहुँच गए, गोमोह पहुँचने में उन्हें शरद बाबू के ज्येष्ठ पुत्र शिशिर ने पूरी सहायता पहुँचाई। गोमोह से फ्रंटियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँ गए जहाँ पर उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक के मियाँ अकबर से मुलाकात की। अकबर मियाँ के माध्यम से उनका परिचय कीर्ति किसान पार्टी के भगतराम तलवार से हुआ। भगतराम को साथ लेकर वे पेशावर से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल के लिए कूच कर गए। भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बन गए थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा। उन्होंने काबुली वेशष-भूषा बी धारण कर ली ताकि कोई उन पर शक नहीं कर सके। पासपोर्ट और नागरिकता की पहचान से बचने के लिए वे टेढ़े-मेढ़े रास्तों से पैदल गए। दुर्गम पहाडियों में रात-दिन भूखे प्यासे मीलों पैदल चलकर वे काबुल पहुँचे। जिस प्रकार से उन्होंने सर्द मौसम सर्द मौसम और कड़कड़ाती ठंड में रात-दिन एक कर अपना सफर पूरा किया उससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि उनके भीतर राष्ट्रभक्ति की भावना कैसे उफान मार रही थी। काबुल में सुभाषबाबू ने छुपकर दो महिने उत्तमचंद मल्होत्रा नाम के एक भारतीय व्यापारी के घर में बिताए। 1941 की अप्रैल महने की शुरुआत में वे अफगानिस्तान से ओर्लांदो मात्सुता नामके एक इटालियन व्यक्ति बनकर रूस की राजधानी मॉस्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन जा पहुँचे और जर्मनी पहुँचकर उन्होंने अपने आप को प्रकट कर दिया। नेताजी के घर से गायब होने से लेकर बर्लिन में स्वयं को प्रकट करने तक उनके बारे में अग्रेजी पुलिस तथा गुप्तचर सेवा को भनक तक नहीं लगी।
तो ऐसे थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस!
1 comment:
सुभाष ने पूरे प्रशासन को छका रखा था।
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