Monday, March 10, 2008

वसन्त की बहार

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

ऋतुराज है -
वासन्ती साज है,
वसन्त पर हमें नाज है,
प्रकृति के मंच पर -
नया संगीत नया साज है।

मौर लगे आम्र वृक्ष -
भीनी मादक महक से -
मुग्ध करते मन को,
शीतल-मन्द-सुगन्धित बयार के हल्के झोंके
पुलकित और उमंगित करते तन को।

सरसों के पीले खेत,
अलसी के अलसाये नीले फूल,
टेसू के लाल लाल चमकते झुण्ड,
सेमल के पत्रविहीन वृक्ष पर आकर्षक पुष्प,
प्रकृति के ये सब नये परिधान -
सौन्दर्य गागर छलकाते हैं,
'सेनापति' और 'पद्माकर' की स्मृति जगाते हैं।

महुए के नशीले फूल,
मधुमास की उठती हल्की धूल,
कोपलों से भरे सरिता के दुकूल,
मदहोशी, ऋतु के अनुकूल,
वसन्त की यह साज-सज्जा,
गूंजते भ्रमर और पुष्प के प्रेम में -
न संकोच, न अनावश्यक लज्जा।

कोयल की मधुर तान में -
छिड़ता ऋतुराज का संगीत,
मदन वसन्त का और -
वसन्त मदन का मीत
वसन्त पंचमी से होलिका दहन तक,
करते सब श्रृंगार में ही बातचीत।

(रचना तिथिः शनिवार 30-01-1982)

3 comments:

समयचक्र said...

bahut sundar likhate rahiye

Kaput bhatkav said...

basant bahar to sachmuch basanti hai

परमजीत सिहँ बाली said...

प्राकृतिक सोंदर्य को रचना में बहुत सुन्दर शब्दों में समेंटा है।बहुत बढिया!!