Sunday, June 1, 2008

आत्माओं से बातचीत

बात सन् 1967 की है। मेरे पूज्य पिताजी को कहीं से आत्माओं से बातचीत (planchette) करने की विधि का पता चला। मैंने हायर सेकेंडरी (ग्यारहवी कक्षा) की परीक्षा दी थी और गर्मी की छुट्टियाँ मना रहा था। पिताजी ने अपनी स्कूल टीचर की नौकरी किसी कारणवश छोड़ दी थी अतः उनकी भी छुट्टियाँ ही थीं। एक दिन दोपहर को आत्माओं से बातचीत करने का प्रयोग करने का निश्चय किया गया। पिताजी ने एक कार्ड बोर्ड पर प्लेंचेट चार्ट बनाया। कमरे के एक फर्श को गंगाजल छिड़क कर पवित्र किया और उस पर प्लेंचेट चार्ट रख दिया। अगरबत्ती जला कर पूजा करने के बाद प्लेंचेट के बीचोबीच तांबे की एक ढिबरी रखी और उस पर मैं, पिताजी और मेरी दादी माँ ने तर्जनी उंगली रख दिया। मेरी माँ तथा अन्य भाई-बहन दर्शक के रूप में कमरे में बैठे थे। सभी मौन थे और वातावरण एकदम शांत था। पिताजी ने मन ही मन आत्मा का आह्वान करना शुरू किया। कुछ ही देर में हम सभी आश्चर्यचकित रह गये क्योंकि ढिबरी प्लेंचेट चार्ट पर घूम रही थी।
Planchette Chart

पिताजी ने कहा, "क्या पवित्र आत्मा आ चुकी है?" और जवाब में ढिबरी yes लिखे हुये गोले पर पहुँची और फिर वापस अपने नियत स्थान पर आ गई। उसके बाद पिताजी ने लगभग एक-डेढ़ घंटे तक आत्मा से अनेकों प्रश्न पूछे। जवाब में ढिबरी एक के बाद एक अंग्रेजी के अक्षरों तक जाती और एक शब्द बन जाने के बाद अपने नियत स्थान पर वापस आ जाती। इस प्रकार शब्द और वाक्य बनते जाते थे तथा प्रश्नों के उत्तर मिलते जाते थे। आत्मा से मिले प्रश्नों के कुछ उत्तर सही लगे थे किन्तु प्रायः उत्तर गलत थे।

प्रयोग समाप्त करने के बाद परिवार के सभी सदस्यों में चर्चा होती रही और सभी का मत यह बना कि आत्मा आई तो थी किन्तु प्रश्नों के उत्तर संतोषजनक नहीं थे। शायद सही के बजाय कोई गलत आत्मा आ गई थी। अब तो हमें प्लेंचेट करने की एक लत सी लग गई। दोपहर के भोजन के बाद रोज प्लेंचेट करना हमारी दिनचर्या का एक अंग बन गया। यद्यपि संतोषजनक उत्तर नहीं मिलते थे किन्तु हमें गर्मी की दोपहर में समय बिताने तथा मनोरंजन का एक नया साधन मिल गया था।

इस प्रकार रोज प्लेंचेट करते लगभग एक माह बीत गया। रोज की तरह एक दिन प्लेंचेट करने के लिये हमने ढिबरी पर अपनी उंगलियाँ रखी ही थीं कि बिना किसी आह्वान के ढिबरी चार्ट पर घूमने लगी, शब्द और वाक्य बनने लग गये। चार्ट पर ढिबरी की गति इतनी तेज थी कि हमारी उंगलियाँ ढिबरी पर टिक नहीं पा रही थीं, कभी किसी की उंगली ढिबरी से अलग हो जाती थी तो कभी किसी की। जिसकी उंगली ढिबरी से अलग हो जाती थी वह फिर से अपनी उंगली शीघ्रतापूर्वक उस पर रख देता था। इस प्रकार से निम्न संदेश हमें प्राप्त हुआः

'मैं गोकुल प्रसाद अवधिया (मेरे दादा जी) हूँ। यह बताने के लिये कि तुम लोग इस प्रयोग को करना बंद कर दो, मैं अपनी मर्जी से आया हूँ। इस प्रयोग के करते रहने से कभी भी कुछ अशुभ और अनिष्ट होने की आशंका है।'

हम लोग स्तब्ध रह गये। कुछ क्षणों के बाद जब हम संयत हुये तो पिताजी ने कहा, "ठीक है, अब से हम इस प्रयोग को नहीं किया करेंगे। पर यहाँ से जाने के पहले क्या आप हमारे प्रश्नों के उत्तर देने की कृपा करेंगे?"

उत्तर 'हाँ' में था।

उस रोज के अनेकों प्रश्न और उत्तर मुझे आज भी याद हैं जो नीचे दिये जा रहे हैं:

'मृत्यु के बाद तो मोह समाप्त हो जाता है फिर आप क्यों हमें संदेश देने आये हैं?' (पिताजी का प्रश्न था)

"मोह समाप्त हो तो जाता है किन्तु पूर्ण रूप से नहीं, जब तक मोक्ष न मिल जाये मोह का कुछ न कुछ अंश बना रहता है।"

'क्या सात लोक या आसमान होते हैं?'

"हाँ"

'आप किस लोक में हैं?'

"5वाँ"

'क्या मैं पास होउंगा?' (मेरा प्रश्न था)

"हाँ"

'किस डिवीजन में?'

"सेकण्ड डिवीजन में"

'मुझे तो फर्स्ट डिवीजन की उम्मीद है?'

"सेकण्ड डिवीजन"

(जब परीक्षा परिणाम आया तो मुझे 58.8% मिले थे।)

'मेरे प्राविडेंट फंड का पैसा मिलेगा?'(पिताजी का प्रश्न था)

"हाँ, किन्तु केवल तुम्हारा अंशदान मिलेगा, म्युनिस्पाल्टी का अंशदान नहीं मिलेगा।"

'कब मिलेगा?'

"21 जून 1967 को"

(सच मे ही 21 जून 1967 को पिताजी के प्राविडेंट फंड के अपने अंशदान का ही भुगतान हुआ था। मुझे आज भी याद है कि उसी दिन मेरे लिये पिताजी ने उन्हीं पैसों में से फिलिप्स कंपनी का रेडियो खरीदा था और घर में रेडियो को फिट करने के बाद मैने विविध भारती का मनचाहे गीत कार्यक्रम लगाया था तथा उसमें फिल्म "राजा और रंक" का "रंग बसंती..." गीत प्रसारित हो रहा था।)

और भी प्रश्न पूछे गये थे जो कि विशेष उल्लेखनीय नहीं है।

उस दिन के बाद से पिताजी ने न तो फिर कभी प्लेंचेट का प्रयोग किया और न ही हमें करने दिया।

इस पोस्ट से मेरा आशय अलौकिक शक्तियों का प्रचार-प्रसार नहीं है। एक घटना जो मेरे साथ बीती थी याद आ गई और मैने पोस्ट कर दिया। वैसे प्लेंचेट के प्रयोग को परामनोविज्ञान मान्यता देती है।

2 comments:

L.Goswami said...

kya yah sach hai? aisa bhi ho sakta hai?..mujhe in baton par viswas nhi..par yah meri apni sonch hai..aapka anubhaw pad kar aashchrya huya.

बालकिशन said...

एक डर मिश्रित आश्चर्य हो रहा है.
वैसे अपन तो ना करेंगे कभी येप्रयोग