Wednesday, May 26, 2010

एक कप चाय और ब्लोगवाणी के तलब ने भट्ठा बैठा दिया दिमाग का

आपने भी अनुभव किया होगा कि जब कभी भी परेशानी आती है केवल एक ही परेशानी नहीं आती बल्कि एक के बाद एक परेशानियाँ आती ही चली जाती हैं। कहावत भी है कि "विपत्ति कभी अकेली नहीं आती"। आज सुबह ही सुबह एक कप चाय और ब्लोगवाणी के तलब ने हमें ऐसा परेशान किया कि हमारी हालत खराब हो गई।

आदत के मुताबिक हम रोज सुबह छः बजे उठ जाते हैं और घर के लोगों के सुबह की मीठी नींद में खलल डालना उचित ना समझ कर अपने लिये स्वयं ही एक कप चाय बना लेते हैं। तो ब्रुश करने के बाद रोज की तरह चाय बनाने के लिये जब हम रसोईघर में आये तो देखा कि चाय बनाने के लिये बर्तन एक भी नहीं है। सारे बर्तन पड़े थे क्योंकि कल कामवाली बाई आई ही नहीं थी। दिमाग भन्ना गया हमारा। ये दिमाग का भन्ना जाना या झल्ला जाना ही सभी मुसीबतों की जड़ है। झल्लाहट में आदमी की बुद्धि सही तरीके से काम करना बंद कर देती है। इस झल्लाहट ने हमारी भी बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया।

तो हम बता रहे थे कि सारे बर्तन जूठे पड़े थे पर हम कर ही क्या सकते थे। झखमारी एक गंजी को साफ किया और गैस चूल्हे में चाय के लिये दूध चढ़ा दिया। अब जो देखते हैं तो चायपत्ती खत्म है। दिमाग और ज्यादा भन्ना गया। चूल्हा बुझा कर चायपत्ती लेने निकल लिये किन्तु निकलते-निकलते कम्प्यूटर चालू करते गये ताकि हमारे आते तक वो अपने चालू होने की प्रक्रिया को पूरी कर ले। भाई "समय प्रबन्धन" भी तो आखिर कोई चीज है! मुहल्ले की दुकान से चायपत्ती लाकर हमने फिर से चूल्हे को जलाया और दूध में चायपत्ती और शक्कर डाल दिया।

यह सोचकर कि जब तक चाय उबलना शुरू हो क्यों ना ब्लोगवाणी खोल लिया जाये हम कम्प्यूटर रूम में आ गये। पर यह क्या? कम्प्यूटर में किसी भी आइकान को डबल क्लिक करने पर कुछ खुल ही नहीं रहा है। जो कुछ भी कर सकते थे सब कुछ कर के थक गये पर किसी भी प्रोग्राम नहीं खुलना था सो नहीं खुला। इतने में याद आया कि 'अरे हम तो चाय चढ़ा कर आये हैं'। रसोई में जाकर देखा तो उफन कर आधी चाय नीचे गिरी हुई थी और बची हुई चाय इतनी उबल चुकी थी कि काढ़ा बन गया था।

कप में चाय को छाना तो तो पता चला कि मात्र चौथाई कप से भी कम है। दिमाग का पारा एकदम ऊपर चढ़ गया और जी में आया कि फेंक दें इसको। किन्तु ईश्वर ने थोड़ी सी सद्‍बुद्धि दी और हम सोचने लगे कि यदि हम इसे फेंक देंगे तो फिर से चाय बनानी पड़ेगी इसलिये इतनी ही चाय पीकर काम चलाया जाये। सो उतनी ही चाय को लेकर हम फिर से कम्प्यूटर रूम में आये और चुस्की लगाने लगे।

चाय की चुस्की ने दिमाग को थोड़ा शान्त किया तो अचानक हमें नजर आया कि कम्प्यूटर के कीबोर्ड में 'आल्ट की' (ALT Key) तो भीतर ही धँसी हुई है याने कि दब कर अटक गई है। तुरन्त समझ में आ गया कि इस की के दबे रह जाने के कारण ही कोई भी प्रोग्राम खुल नहीं पा रहा है। थोड़ी सी कोशिश करने पर उसका स्प्रिंग काम करने लग गया और सामने ब्लोगवाणी हाजिर हो गई।

सारी झल्लाहट पल भर में काफ़ूर हो गई और हम सोचने लगे कि हम ही हैं जो दूसरों को सैकड़ों बार उपदेश देते रहते हैं कि झल्लाहट के समय दिमाग को शान्त रखने का प्रयास करना चाहिये पर आज खुद पर गुजरी तो समझ में आया कि हम भी "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" ही हैं। वास्तव में झल्लाहट के समय दिमाग को शान्त रखना बहुत ही मुश्किल काम है, सिर्फ स्वयं पर पूर्ण नियन्त्रण रखने वाला व्यक्ति ही इस कार्य को कर सकता है।

पर परेशानियाँ कभी कभी फायदेमंद भी हो जाती हैं। अब देखिये ना, आज की परेशानियों नें इस पोस्ट को जन्म दे दिया।

18 comments:

SANJEEV RANA said...

किसी ने ठीक ही कहा हैं अवधिया साहब


"किस पे मरू किस - किस पे जाऊ वारी वारी
मुसीबत में परखे जाते
धीरज, धरम, मित्र और नारी "

और वैसे पता भी नही चलता की चाय आई और हमने कब में पी ली.

बहुत खूब

honesty project democracy said...

इसलिए कहा गया है विपत्ति में धैर्य और सच्चे इन्सान की जरूरत परती है / आप तो समझदार है फिर ऐसी भूल ----? खैर छोडिये आगे की सुध लीजिये /

kunwarji's said...

mast hai ji....

kunwar ji,

Anonymous said...

होता है कभी कभी ऐसा भी होता है :-)

राजकुमार सोनी said...

यह भी कोई भूल है। यह तो ललक है जिसने चाय को आधी कर दिया।

राज भाटिय़ा said...

इसी लिये तो... मै कभी चाय बनाता ही नही, अगर कभी बना दुं तो नमकीन चाय कोई भी नही पीता... ओर उलटी बीबी नाराज हो जाती है कि सारा समान आप ने बिखरा दिया, इस लिये जल्द उठने पर आच की तलब भी नही होती

Unknown said...

अगली बार जब चाय की तलब हो, तो इतना झंझट मत करना जी...........

सीधे सूरत आ जाना

गुड्डू की माँ आ गई है, आप आ जायेंगे तो आपके साथ वो मुझे भी पिला देगी एक प्याला चाय का............

अन्तर सोहिल said...

सचमुच ऐसा ही होता है जी
जब कोई एक काम बिगड जाता है और हम झल्लाने लगते हैं तो उस भन्नाहट की वजह से दूसरे काम भी खराब होने लगते हैं। शुक्र है चाय की पत्ती लेने जाते वक्त आप किसी से टकराये नहीं और फिसल कर गिरे भी नहीं :-)

प्रणाम

डॉ टी एस दराल said...

अवधिया जी , कीबोर्ड को इतना दबाते ही क्यों हो कि ऊपर ही न आ सके ।
आखिर उसकी भी कोई इज्ज़त होती है।
मेरा मतलब हम अक्सर कीज को जोर जोर से मारते हैं ।

Unknown said...

दराल साहब, वैसे मेरी आदत कीबोर्ड को जोर जोर से दबाने की नहीं है। कभी कभी कीबोर्ड को धीरे से दबाने पर भी किसी की के नीचे का रबर का गुटखा, जो कि स्प्रिंग का काम करता है, काम करना बंद कर देता है।

Unknown said...

shayad apke pas likhane ke masale khatam ho gaye tabhi kal ki post likhi thi apane
tippani dekhiye us par

Unknown said...

श्रीमान राजू साहब,

आप को यदि मेरे पोस्ट में आपत्तिजनक सामग्री नजर आती है तो कृपया आप गूगल को रिपोर्ट करें। आप मेरे किसी पोस्ट को मिटाने के लिये मुझ पर जबरदस्ती दबाव नहीं डाल सकते। और सबसे पहले आप अपना प्रोफाइल बनाइये ताकि लोगों को पता चल सके कि आप हैं कौन?

Unknown said...

jaisi apaki marji lekin baki logo ka bhi yahi ray hai shayad apane padha nahi

विवेक रस्तोगी said...

वाह साहब, ये चाय वाली आदत अपन ने तो कब की छोड़ दी पर हाँ ये ब्लॉगवाणी वाली आदत नहीं छूटी। हम अपने लेपटॉप को स्लीप मोड में डाल कर सो जाते हैं और फ़िर सुबह केवल स्क्रीन खोली और डाईरेक्ट ब्लॉगिंग शुरु, तो हमारा बहुत सारा समय बच जाता है। हमें तो याद ही नहीं है कि अपने लेपटॉप को आखिरी बार कब शटडाऊन किया था, शायद कुछ दिनों पहले जब किसी सॉफ़्टवेयर ने संस्थापित होने के बाद रिस्टार्ट करने के लिये बोला था। आप भी अपने कम्प्यूटर पर हाईबरनेट का उपयोग कर सकते हैं तो बूटिंग टाईम बच जायेगा।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

सच में गुस्सा, क्रोध, झल्लाहट इन्सान की बुद्धि हर लेती है.......
वैसे आईडिया लगा रहे हैं कि वो चायपत्ती जरूर रैड लेबल होगी...क्यों कि सुना है रैड लेबल पीने वालों की बात ही कुछ खास होती है :-)

shikha varshney said...

ye mari chay ki aadat hi kharab hai ...or blogvani ki bhi :)

M VERMA said...

चलो चाय तो पी आधी ही सही
वैसे इसका भी अलग ही आनन्द है
मैं भी ऐसे ही रूबरू हुआ था ऐसे ही एक अनुभव से जब मैं चावल को जला दिया था (पत्नी गाँव चली गयी थी) पर जो स्वाद उस चावल को खाने में मिला वह फिर नहीं मिला

Udan Tashtari said...

चलिये, अंत भला तो सब भला.