ये दरिद्र शब्द भी बड़ा विचित्र है! हम समझते हैं कि जिसके पास कुछ भी नहीं है वह दरिद्र है किन्तु देखा जाये तो जिसके पास सब कुछ होता है वे भी दरिद्र की श्रेणी में आ जाते हैं क्योंकि सब कुछ होते हुए भी कुछ और पाने की चाह उन्हें बनी ही रहती है। हमें याद है कि बचपन में हम सायकल चलाने के लिये तरसते थे, सोचा करते थे कि काश हमारे पास भी एक सायकल होता। आज हमने अपने बच्चों को मोटरसायकल दिला दिया है किन्तु फिर भी सन्तुष्ट नहीं हैं वे और कार के लिये तरसते रहते हैं। बचपन में हमारे घर में रेडियो ना होने की वजह से बिनाका गीतमाला सुनने के लिये प्रत्यके बुधवार को रात के आठ बजने से पहले "मान ना मान मैं तेरा मेहमान" बनकर कभी किसी के घर तो कभी किसी के घर पहुँच जाया करते थे। आज गाने मोबाइल से सुने जाते हैं और हमने अपने बच्चों को अपनी हैसियत के अनुसार अच्छे मोबाइल सेट्स दिला दिये हैं किन्तु उन्हें और भी मँहगा मोबाइल सेट्स चाहिये। स्पष्ट है कि कभी सायकल और रेडियो के मामले में दरिद्र थे हम और कार तथा मोबाइल के मामले में हमारे बच्चे दरिद्र हैं आज।
हर वह वस्तु जो हमारी पहुँच में नहीं होती हमें ललचाती है और जिस दिन हमारी हैसियत बढ़ जाती है और हम उसे प्राप्त कर लेते हैं, उसी वस्तु की हमारी नजर में कुछ भी कीमत नहीं रह जाती तथा हम किसी अन्य वस्तु की लालसा करने लग जाते हैं जो कि हमसे समृद्ध लोगों के पास है किन्तु हमारे पास नहीं है।
जिन्हें भरपेट भोजन नहीं मिल पाता उनके लिये अच्छे भोजन का कितना महत्व होता है इसे वे ही समझ सकते हैं जो स्वयं कभी उस स्थिति से गुजर चुके हों। 'मानव मन के कुशल चितेरे' "प्रेमचंद" जी ने अपनी कहानी "कफ़न" में इस तथ्य को बहुत सुन्दर ढंग से चित्रित किया है। वे लिखते हैं:
...दोनो आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नही खाया था। इतना सब्र ना था कि उन्हें ठण्डा हो जाने दे। कई बार दोनों की ज़बान जल गयी। छिल जाने पर आलू का बहरी हिस्सा बहुत ज़्यादा गरम ना मालूम होता, लेकिन दोनों दाँतों के तले पड़ते ही अन्दर का हिस्सा ज़बान, हलक और तालू जला देता था, और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज़्यादा खैरियत तो इसी में थी कि वो अन्दर पहुंच जाये। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी समान था। इसलिये दोनों जल्द-जल्द निगल जाते । हालांकि इस कोशिश में उन्ही आंखों से आँसू निकल आते ।पूरी कहानी आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
घीसू को उस वक़्त ठाकुर कि बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वो उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताज़ा थी।
बोला, “वह भोज नही भूलता। तबसे फिर उस तरह का खाना और भर पेट नही मिला। लड़कीवालों ने सबको भरपेट पूड़ियाँ खिलायी थी, सबको! छोटे-बड़े सबने पूड़ियाँ खायी और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोग में क्या स्वाद मिल, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज़ चाहो, मांगो, जितना चाहो खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पीया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गरम-गरम गोल-गोल सुवासित कचौड़ियां डाल देते हैं। मन करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल को हाथ से रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिए जाते हैं और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान इलाइची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी! खड़ा हुआ ना जाता था। झटपट अपने कम्बल पर जाकर लेट गया। ऐसा दिल दरियाव था वह ठाकुर!”
माधव नें पदार्थों का मन ही मन मज़ा लेते हुए कहा, “अब हमें कोई ऐसा भोजन नही खिलाता।”
“अब कोई क्या खिलायेगा। वह ज़माना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। शादी-ब्याह में मत खर्च करो। क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोर कर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमं नही है। हाँ, खर्च में किफायती सूझती है।”
“तुमने बीस-एक पूड़ीयां खायी होंगी?”
“बीस से ज़्यादा खायी थी!”
“मैं पचास खा जाता!”
“पचास से कम मैंने भी ना खायी होगी। अच्छा पट्ठा था। तू तो मेरा आधा भी नही है ।” ...
सिर्फ वही व्यक्ति दरिद्रता से दूर रह सकता है जो अपनी हालत में सन्तुष्ट रहते हुए आगे बढ़ते रहने का उद्योग करता रहे। इसीलिये कहा गया है आयो रे सब सन्तोष धन बाबा सब धन धूल समान रे ....
8 comments:
अउ नेता सपनाए.... (सत्ता, कुर्सी, रूपया, पैसा और छत्तीसगढ़ी में आप बताएं)
सही कहा आपने, यह मार्मिक कहानी नहीं आज की सच्चाई है ! अभी कुछ दिनों पहले अपना ऑफिस का ड्राइवर गाँव से छुट्टी बिताकर लौटा तो मैंने यों ही पूछ लिया कि गाँवों मेंक्या हाल है, महंगाई का ! छूटते ही बोला, साहब, आप विस्वास नहीं करेंगे लोग मंडवे की रोटी में गूंदते वक्त ही चुटकी भर नमक मिलकर चाय के साथ नमकीन रोटी खाने को मजबूर हैं ! खेतो के किनारे उगी हरी सब्जी बना भी ली तो उसे दो दिन चलाते है ! उसकी बात सुन मुझे लगा कि स्थित सचमुच भयावह है, जो हम लोग नहीं देख पाते !
जबतक लालसा है, तबतक दरिद्रता रहेगी ही।
सच कहा आपने हम सब दरिद्र हैं
प्रणाम
बने कहेस गा नवतप्पा के गरमी मा ररूहा सपनावै एसी.
हालात दिनोंदिन बद से बदतर होते जा रहे हैं
आप के लेख से सहमत है,वेसे हालात सच मै बहुत ही खराब भी है, मैने मजदुरो ओर रिक्क्षे वालो को बहुत नजदीक से देखा.... काश भगवान सब को खाने को दे
कोनो ला अभाव रथे त कोनो खाथे हदरही मा। बाकी प्रेमचन्द जी के द्रिष्टिकोण के बाते अलग हे जी। बहुत बढिया चित्रण करे हव आप।
बात तो सही है..मगर मानव स्वभाव में यह संतोष धन कहाँ.
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