Tuesday, July 13, 2010

आज का आदमी

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

पक्का बेशरम बन जाइये,
और आज का आदमी कहाइये।

अगर आप ईमानदार हैं,
सीधे और सच्चे हैं,
तो दुनया की नजरों में आप,
एकदम दुधमुहे बच्चे हैं,
दुनिया से बहुत दूर रह कर
आज का आदमी बनने में कच्चे हैं।

आज का आदमी बनना हो
तो हमसे कुछ नुस्खे सीख लीजिये
धोखे का जाल बिछा कर
कदम-कदम पर तिकड़म कीजिये।

नुस्खा नम्बर एक-
छोड़ दीजिये सब विवेक
अगर आप किरायेदार है और मक्कार हैं,
तो किराये के घर को अपना ही समझिये,
किराया फूटी कौड़ी भी मत दीजिये,
और मकान मालिक को
चाकू-छुरी-पिस्तौल से दफा कीजिये।
तब आप, आज का आदमी बन पायेंगे,
दुनिया को अपना करिश्मा दिखायेंगे
और आदर्श किरायेदार कहलायेंगे।

नुस्खा नम्बर दो-
अगर आप आशुकवि हो
तो इधर-उधर से रचनायें बटोर कर
आगे आगे नाचिये
और तालियों की गड़गड़ाहट में
झूम झूम कर कविता बाँचिये
अपना स्वागत आप ही कीजिये
अपना परिचय आल राउंड शैतान के
रूप में दीजिये,
आज का आदमी यही तो करता है,
बस उठा-पटक के पीछे मरता है।

नुस्खा नम्बर तीन-
बजाइये अपनी ही बीन,
नेता बन जाइये,
जनता को नचाइये
खुद ही खाइये
और दूसरों को जी भर कर तरसाइये।
और आज के आदमी की लिस्ट में
अपना नाम पवित्र करवाइये,
लक्ष्मी जी की भक्ति में माला टरकाइये।

नुस्खा नम्बर चार-
पिछलगुए बनाइये दो चार,
और जेब में एक संस्था रख लो यार
फिर, अंधे के रेवड़ी बंटन न्याय से
बने रहो सदाबहार, सर्वराकार
तुम्हें खूब साथ देंगे
तुम्हारे चमचे, करछुल और चाटुकार।

नुस्खा नम्बर पाँच और अन्तिम
जो सीधा है, नहीं है बंकिम,
नचाते रहो सबको नाच,
सच को ही आने दो आँच,
तभी तो मजा कर लोगे,
गधा हो कर भी, घोड़े का माल चर लोगे।
आज का आदमी तो कहलावोगे
घर बैठे ही दिल्ली में हाजिरी भरवावोगे।

(रचना तिथिः शनिवार 27-07-1985)

15 comments:

रंजन (Ranjan) said...

बहुत सटीक..

उस जामाने मे ब्लोगर नहीं होता था.. नहीं तो पक्का लपेटे में आता..

संजय बेंगाणी said...

टिप्पणी बाद में फिलहाल तो यह कविता सुना सुना कर तालियाँ बटौरने जा रहा हूँ. आज का आदमी हूँ ना!

प्रवीण पाण्डेय said...

आधुनिकता को ढंग से धोया है।

रंजू भाटिया said...

वाह सही बहुत बढ़िया रचना इसको पढवाने के लिए शुक्रिया

vandana gupta said...

बिल्कुल सटीक रचना।

राज भाटिय़ा said...

अरे वाह वाह जी लेकिन हम तो दुध मुंहे बच्चे ही भले, लेकिन आप ने जो गुर सीखाये आज की दुनिया तो इसी पर चल रही है जी

डॉ टी एस दराल said...

बहुत सुन्दर व्यंगात्मक कविता है ।

निर्मला कपिला said...

वाह अवधिया जी सच्ची तस्वीर है आज की। धन्यवाद।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बढ़िया व्यंग...और सटीक रचना

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

हरिप्रसाद जी की बेहतरीन रचना पढवाने के लिए आभार

यह पोस्ट ब्लाग4वार्ता पर भी है

राजकुमार सोनी said...

अरे वाह यह कविता तो कालजयी है
यह कविता कभी नहीं मर सकती... लिखकर दे सकता हूं

M VERMA said...

तीखा स्वर और सटीक भी

सूर्यकान्त गुप्ता said...

क्या बात है! करारा व्यंग्य।

रचना दीक्षित said...

बहुत ही सुन्दर रचना मैंने तो निश्चय कर लिया है की बस अब और नहीं अब आज आदमी बन कर चैन से जीना है

Er. सत्यम शिवम said...

बहुत अच्छा....मेरा ब्लागः"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com .........साथ ही मेरी कविता "हिन्दी साहित्य मंच" पर भी.......आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद