Thursday, July 15, 2010

रिमझिम रिमझिम मेघा बरसे पवन चले पुरवाई...

पावस के दिनों में भरी दुपहरी में भी घटाटोप अंधरे का आभास होता है तो लगने लगता है कि आसमान में छाये काले-काले मेघों के लिहाफ के भीतर भगवान भास्कर मुँह ढाँप कर घुस गये हैं। बादलों के बीच बिजली की तड़प से क्षण भर के लिये सम्पूर्ण धरा का चौंधिया जाना और फिर गगनभेदी गर्जन से उसका काँप जाना ही तो पावस का अपूर्व सौन्दर्य है। मूसलाधार वर्षा की टिपर-टिपिर, तेज गति से चलती हुई पुरवाई की साँय-साँय, बादलों की गड़गड़ाहट, दादुरों की टर्राहट आदि ध्वनियाँ आपस में गड्डमड्ड होकर एक विचित्र किन्तु मनभावन हारमोनी उत्पन्न कर देती हैं जिसके संगीत में डूबकर मन विभोर हो जाता है।


घनघोर अंधेरे में डूबी हुई बरसात की रात की तो बात ही कुछ और होती है। सुनसान सड़क के किनारे लगे बिजली के खम्भे पर लगा हुआ बल्ब अंधेरे से लड़ने का अथक प्रयास करने के बाद भी विजित नहीं हो पाता। वर्षाकाल की ऐसी ही तिमिरमय और नीरव रात्रि में अपने एक मित्र के साथ बरसते पानी में छाता लेकर मैं रायपुर के महराजवन तालाब तक घूमने जाया करता था। कभी बरसात की टिपिर-टिपिर के बीच किसी घर के आँगन में लगे हिना के फूलों की मनमोहक महक लेकर आने वाली बयार मन को मुग्ध कर देती थी तो कभी कहीं दूर रेडियो से आने वाली "ये रात भीगी-भीगी ये मस्त हवाएँ...."  गीत की स्वरलहरी में हम स्वयं को भी भुला दिया करते थे। आज छत्तीसगढ़ में उन दिनों जैसी वर्षा होती ही नहीं है, दस-दस बारह-बारह दिनों की झड़ी लगा करती थी, सूरज के धूप के अभाव और वातारवण में अत्यधिक आर्द्रता के कारण गीले कपड़े सूख नहीं पाते थे। जंगलों की कटाई और कल-कारखानों से निकलने वाली धुआँओं ने छत्तीसगढ़ में होने वाली वर्षा को लील लिया है। कभी छत्तीसगढ़ 60 इंच वर्षा का प्रदेश हुआ करता था पर आज मुश्किल से 30 इंच भी वर्षा हो जाये तो बहुत है।

मेघों के चार प्रकार - वर्षा, कपसीले, घुड़पुच्छ और तहदार - में से पहला प्रकार अर्थात् काले-काले वर्षा मेघ ही हैं जो वृष्टि करवाते हैं। सफेद कपास के सदृश छिटके-छिटके रहने वाले कपसीले मेघ जब पृथ्वी के नजदीक पहुँचकर सघन होने लगते हैं तो उनकी परिणिति वर्षा मेघ में हो जाती है। घुड़पुच्छ मेघ भी वर्षा करवाते हैं किन्तु ये पानी के साथ ही साथ ओले भी बरसाते हैं और अपने साथ भयानक आँधी-तूफान लेकर आते हैं। दिनभर अपने प्रकाश को बिखेरते हुए तेजहीन हुए तथा रात्रिविश्राम हेतु अस्ताचल की और गमन करते हुए रक्तिम सूर्य को घेरे लाल रंग के के तहदार मेघ 'शून्य-श्याम-तनु' अर्थात् नभ के अलंकरण मात्र ही होते हैं।

वर्षा का महत्व क्या है यह कोई छत्तीसगढ़ के किसी किसान से पूछे। उसके लिये वर्षा प्राणों से भी प्रिय होती है क्योंकि छत्तीसगढ़ का मुख्य फलस धान है और धान के लिये भरपूर वर्षा का होना अति आवश्यक है। वर्षा ना हो तो किसान का जीवन असह्य हो जाता है। नवतपा में रोहिणी नक्षत्र के सूर्य के तपना शुरू होते ही किसान जीवनदायिनी वर्षा लाने वाली मृग नक्षत्र के आगमन की प्रतीक्षा करने लगते हैं। यदि समय पर वर्षा ना हो तो भाट और भड्डरी के "कलसा पानी गरम है चिड़िया नहावे धूर, अंडा ले चींटी चढ़े तो बरखा भरपूर", "शुक्रवार की बादरी रही शनीचर छाय, तो यों भाखै भड्डरी बिन बरसे नहि जाय", आदि कहावतों में बताये लक्षणों को देखने के लिये व्याकुल हो जाते हैं। पहली बरसात होने जाने पर वे बड़े उल्लास के साथ अपने खेतों की जोताई में लग जाते हैं ताकि जल्दी ही उनमें धान के पौधे अपनी हरियाली बिखेरते हुए लहलहा उठें।

वर्षा न केवल किसानों को हर्षाती है ब्लकि प्रेमी हृदयों पर भी वह राज करती है। प्रेमियों के हृदय में प्रेम की भावना का उद्दीपन करने वाला यह बरखा का सौन्दर्य ही तो है जिसने नायक-निर्देशक राजकपूर को मूसलाधार वर्षा से बचने के लिये एक ही छाते के भीतर सिमट कर "प्यार हुआ इकरार हुआ..." गाते हुए प्रेमी-प्रेमिका वाले दृष्य के फिल्मांकन की प्रेरणा दिया! श्री चार 420 फिल्म का यह दृष्य कालजयी बन कर रह गया। इसी मूसलाधार बरसात में बरसाती पहन कर जाते हुए बच्चों को देखकर ही गीतकार शैलेन्द्र के हृदय में बरबस ही गूँज उठा होगा "मैं न रहूँगी तुम ना रहोगे फिर भी रहेंगी निशानियाँ....."!यह बादल की गगनभेदी गड़गड़ाहट ही है जो प्रेमिका के हृदय में भय का संचार करके उसे भयभीत होकर अपने प्रेमी के विशाल वक्ष से लिपट जाने के लिये विवश कर देता है - "बादल यूँ गरजता है, डर कुछ ऐसा लगता है....."! यह पावस का सौन्दर्य ही तो है जो प्रियतम से दूर प्रियतमा को "मत बरसो रे मोरी अटरिया, परदेस गये हैं सँवरिया, जा रे जा रे ओ कारे बदरिया..."  को कहने के लिये मजबूर कर देता है। संगीतकार नौशाद जी का कोकिल-कण्ठी लता जी से 'परदेस गये हैं साँवरिया' गाते हुए एक राग में दूसरे राग के सुर का क्षणिक अतिक्रमण करवा देना वैसा ही प्रतीत होता है जैसे कि अनिंद्य सुन्दरी के दूधिया गाल में छोटा सा काला तिल!

बालकों के हृदय में भयमिश्रित हर्ष, किशोरों के हृदय में उल्लास, युवाओं के हृदय में कमोद्दीपन उत्पन्न करने वाली दामिनी की दमक, मेघों का गर्जन और कादम्बिनी अर्थात् मेघमाला से अनवरत रूप से टपकती जल की बूंदें हम जैसे, उल्लासहीन और कब्र में पैर लटकाए, वृद्ध के हृदय में भी ऐसा कुछ उत्पन्न कर जाती है कि बासी कढ़ी में भी उफान सा आने लगता है। मनुष्य तो मनुष्य, इस पावस ने तो विष्णु के अवतार श्री राम को भी प्रभावित किया हैः

घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥

व्यापारी बरसात से फायदा ना उठाये तो उसकी व्यापार-बुद्धि को धिक्कार है। छंगूमल सफल और अनुभवी व्यापारी हैं। अनेकों जाने-माने दवा कंपनियों के वितरक हैं। बरसात के आरम्भ में ही वे अपने गोदाम में रखे करोड़ों रुपयों की दवाओं की सुरक्षा व्यवस्था कर लिया करते हैं। मतलब सभी अमूल्य दवाएँ सुरक्षित स्थान पर और एक्सपायर्ड तथा नियर एक्सपायरी डेट वाली दवाएँ ऐसे स्थान पर जहाँ पर बारिश का पानी भर जाये। प्रत्ये तीन-चार साल में उनकी किस्मत चमक उठती है क्योंकि बेकार हो चुकी दवाएँ बरसात के पानी से भीग जाया करती हैं और छंगूमल बीमा कंपनी से लाखों रुपयों की भरपूर वसूली कर लिया करते हैं।


चलते-चलते

संस्कृत ग्रंथ अमरकोष के अनुसार

बादल के अन्य नामः

मेघ, घन, वारिद, जलधर, धाराधर, अभ्र, वारिवाह, स्तनयित्रु, बलाहक, ताडित्वान, अभ्युभृत, जीमूत, मुदिर, जलमुक् और धूमयोनि

मेघपंक्ति के अन्य नामः

कादम्बिनी और मेघमाला

बिजली के अन्य नामः

शंपा (शम्बा), शतह्रदा, ह्रादिनी, ऐरावती, क्षणप्रभा, तडित, सौदामिनी (सौदाग्नी), विद्युत और चपला

12 comments:

honesty project democracy said...

अच्छी व सार्थक प्रस्तुती व विचारणीय पोस्ट ....

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

वर्षा ऋतु के बहाने आपने उसके कारणों और माहौल की सुंदर चर्चा की है, बधाई।
--------
पॉल बाबा की जादुई शक्ति के राज़।
सावधान, आपकी प्रोफाइल आपके कमेंट्स खा रही है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

वर्षा की फुहार जैसा लेख..

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

"मैं न रहूँगी तुम ना रहोगे फिर भी रहेंगी निशानियाँ....."!

वाह गुरुदेव आज तो घायल कर दिए,
दिन भर मन पंछी पंख फ़ड़फ़ड़ाते घायल पड़ा रहेगा। उन दिनों को याद करके।
काश! आज भी कहीं ऐसा हो पाता और वो मिल जाते।
एक गाना बारिश में भीगते हुए गाते और फ़िर रात हो जाती, सिर छुपाने के लिए मंदिर का सहारा लेते, फ़िर एक गाना होता- जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात-"एक अनजान हसीना से मुलाकात की बात।"
कहां गयी वे हसिनाएं जो बारिश में भीगते हुए पल्लु निचोती थी। "जाने कहां गए वो दिन'
बस एक याद ही है,बड़ा दिल तड़फ़ता है।
आमीन

"ब्रह्माण्ड भैंस सुंदरी प्रतियोगिता"

निर्मला कपिला said...

समसामयिक चर्चा-- और मेघ के अन्य नाम --- बहुत सार्थक पोस्ट् है बधाई।

समयचक्र said...

विचारणीय प्रस्तुति...आभार

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर लेख। छंगूमल जी को बधाई।

The Straight path said...

आप की ये पोस्ट यादो के समंदर में गोता लगाने को मजबूर करती है

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर जी

सूर्यकान्त गुप्ता said...

अवधिया जी नमस्कार! महू ला कवि सेना पति के ये पंक्ति के सुरता आगे।"अंबर अडंबर सौ उमड़ि घुमड़ि छिन छिछके छछारे छिति अधिक उछारे हैं" आपने बहुत ही सुंदर तरीके से वर्षा ॠतु के भूत और वर्तमान का वर्णन किया है। शुक्रिया।

July 15, 2010 10:26 PM

सूर्यकान्त गुप्ता said...
This comment has been removed by the author.
शिवम् मिश्रा said...

बेहद उम्दा पोस्ट!