Friday, August 27, 2010

मुस्लिम आक्रमणकारियों ने तो सिर्फ भारत को लूटा पर अंग्रेजों ने भारत को न केवल लूट कर दरिद्र बनाया बल्कि उसकी संस्कृति और सभ्यता का भी नाश कर दिया

मुस्लिम आक्रमणकारियों ने तो भारत की अपार सम्पदा में से उसके सिर्फ एक छोटे से हिस्से को ही लूटा था। उनकी लूट के बावजूद भी सत्रहवीं शताब्दी के के अन्त तक भारत संसार का सर्वाधिक धनाड्य देश था। किन्तु भारत दरिद्र बना अंग्रेजों के लूट के कारण। प्लासी के युद्ध से वाटरलू के युद्ध तक अर्थात् सन् 1757 से 1815 तक, लगभग एक हजार मिलियन पाउण्ड याने कि पन्द्रह अरब रुपया शुद्ध लूट का भारत से इंग्लैंड पहुँच चुका था। इसका सीधा-सीधा अर्थ यह हुआ कि अट्ठावन साल तक ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकर प्रति वर्ष लगभग पचीस करोड़ रुपये भारतवासियों से लूटकर अपने देश ले जाते रहे। समस्त संसार के इतिहास में ऐसी भयंकर लूट की मिसाल अन्य कहीं नहीं मिलती। इस लूट मुकाबले महमूद गज़नवी और मोहम्मद गोरी की लूट तो एकदम ही नगण्य है।

भारत से लूटे गए इसी धन से इंग्लैंड के लंकाशायर और मनचेस्टर में भाफ के इंजिनों से चलने वाले अनेक कारखाने उन्नत हुए। इस भयंकर लूट के कारण ही इंग्लैंड में नई-नई ईजादों को फलने और अनेक कारखानों को खुलने का अवसर मिला। इस लूट के कारण ही इंग्लैंड की आय दिन-ब-दिन बढ़ती चली गई और उसी हिसाब से भारत दरिद्र होता चला गया। परिणामस्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक भारत के सारे उन्नत उद्योग-धन्धे सिर्फ कहानी बनकर रह गए और सौ बरस पहले जो भारत संसार का सर्वाधिक धनी देश था, संसार का सबसे निर्धन देश बन गया।

इंग्लैंड की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षा की पूर्ति में भारत के उन्नत और लाभदायक उद्योग-धन्धे बाधा बनकर खड़े थे इसलिए इन उद्योग-धन्धों का सत्यानाश करने के उद्देश्य से ही सन् 1813 में नया चार्टर तैयार किया गया। तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर जनरल हेस्टिंग्ज ने इस चार्टर एक्ट की सहायता से भारत के प्राचीन व्यापार और उद्योग-धन्धों को तहस-नहस कर डाला। जिस गति से भारत के उद्योग-धन्धे खत्म होते चले गए उसी गति से इंग्लैंड में नए-नए उद्योग-धन्धे शुरू होते चले गए जिनके लिए कच्चा माल भारत से ही सस्ते दरों में खरीद कर ले जाया जाता था और उन कारखानों के उत्पादों को भारत में ही लाकर भारी दामों में बेचा जाता था।

अगले लगभग सौ सालों में भारत में किसानों का लगभग सर्वनाश हो गया, पुराने खानदान गारत हो गए, अदालतों की कार्यवाहियों को पेचीदा बनाकर न्याय को मँहगा बना दिया गया। वास्तविकता तो यह थी कि अंग्रेजों को टैक्स न पटा पाने वाली भारतीय गरीब जनता के लिए उस काल में न्यायालय के द्वार ही बन्द कर दिए गए थे, उनके लिए न कानून था न इन्साफ! उस काल की पुलिस अत्याचार की नमूना थी। गाँव की पंचायतों का नाश कर डाला गया था और वहाँ की पाठशालाएँ तोड़ डाली गईं थीं। सुलभ जीवन के लिए जीवन के सारे धन्धों में कुशल, सुसभ्य भारतीयों को उन्हीं के देश में अयोग्य, असहाय और नालायक करार देकर सदा के लिए नीच बना दिया गया था। इतना ही नहीं उन्हें शराबी और दुराचारी तक बनाया जा रहा था। सन् 1833 में पुनः चार्टर एक्ट को बदल कर देशी रियासतों को हड़प कर अंग्रेजी राज्य में मिलाया जाने लगा था।

भारत में अंग्रेजी सरकार को और भी मजबूत करने के लिए गवर्नर जनरल की कौंसिल में लॉ मेम्बर का नया पद बना कर मेकॉले को भेजा गया जो कि एक निर्धन घराने का व्यक्ति था किन्तु अपनी योग्यता से लॉर्ड के पद तक पहुँच चुका था। बत्तीस वर्ष की अवस्था में ही वह विचारशील, उत्साही और बुद्धिमान व्यक्ति माना जाने लगा था। लॉर्ड मैकॉले ने भारत आकर देखा कि अंग्रेजों की करतूत के कारण हिन्दुस्तान में करोड़ों नन्हे-मुन्ने बच्चे, जिन्हें पाठशालाओं में शिक्षा ग्रहण करने की जरूरत थी, माँ-बाप के पेट भरने के लिए उनके साथ मेहनत-मजदूरी कर रहे हैं किन्तु बावजूद इसके भारत शिक्षा-प्रचार के मामले में यूरोप के समस्त देशों में अग्रणी ही बना हुआ था। असंख्य ब्राह्मण अध्यापक अपने घरों में लाखों विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा देते थे। भारत के बड़े-बड़े नगरों में जहाँ उच्च संस्कृत-साहित्य की शिक्षा के लिए विद्यापीठ बने हुए थे वहीं उर्दू-फारसी की शिक्षा के लिए अनेक मक़तब और मदरसे भी कायम थे। छोटे-छोटे गाँवों में भी ग्राम-पंचायतों के नियन्त्रण में पाठशालाएँ चला करती थीं। डा-वेल नामक एक प्रसिद्ध मिशनरी, जो मद्रास में पादरी रह चुके थे, ने तो यहाँ की शिक्षा-व्यवस्था से प्रभावित होकर इंग्लिस्तान में भी भारतीय प्रणाली के अनुसार शिक्षा देना आरम्भ कर दिया था।

लॉर्ड मैकॉले को भारत की यह शिक्षा-प्रणाली चुभने लग गई और उसने एक ऐसी शिक्षा-प्रणाली बनाकर, जो कि भारतीयों को अपनी संस्कृति और सभ्यता से दूर ले जाए और उनमें राष्ट्रीय भावना पैदा ही ना होने दे, अंग्रेजी शासन को भेज दिया। अंग्रेजी शासन ने उस शिक्षा-प्रणाली को सहर्ष स्वीकार कर लिया और भारत में तत्काल लागू भी कर दिया।

दुःख की बात तो यह है कि आज तक हमारे देश की शिक्षा-नीति कमोबेश वही बनी हुई है जिसे कि लॉर्ड मैकॉले ने बनाया था परिणामस्वरूप आज हम तथा हमारे बच्चे अपनी संस्कृति और सभ्यता को हेय दृष्टि से देखते हैं।

7 comments:

honesty project democracy said...

बहुत ही सार्थक प्रस्तुती ,अवधिया जी बाकि जो बचा उसे ये अग्रेज के नाजायज औलाद भ्रष्ट पार्टियाँ और बेशर्म नेताओं ने बर्बाद कर दिया है , आपके और आप जैसे ब्लोगरों के सहयोग और सहायता की जरूरत है ,श्री हरी प्रसाद जी के समर्थन में भी एक पोस्ट जरूर लिखिए जानकारी के लिए पढ़िए....

http://gantantradusrupaiyaekdin.blogspot.com/2010/08/blog-post_27.html

उम्मतें said...

अवधिया जी ,
सबसे पहले एक तथ्यपरक लेख के लिए बधाई ! उसके बाद कहना ये है कि आनें वाले आक्रांता जो भी रहे हों , लूट का मार्जिन उनके उद्देश्य पर निर्भर रहा है ! आर्य / हूण / कुषाण / मुग़ल या फिर अंग्रेज में से जिसनें भी इस धरती पर बसना तय किया उसकी लूट का मार्जिन घट गया ! अंग्रेजों का उद्देश्य यहां बसना कतई नहीं था सो उनकी लूट बड़ी रही !

P.N. Subramanian said...

बहुत ही सुन्दर आलेख. परन्तु अंग्रेजों के कारण हम एक भारत के रूप में उभर पाए हैं अन्यथा यहाँ कई राष्ट्र होते.

नीरज मुसाफ़िर said...

सुब्रमण्यन जी की बात में भी दम है।
मुस्लिम काल में ही कौन सा सुकून था।

राज भाटिय़ा said...

जी.के. अवधिया, आप की बात से सहमत है जी. वेसे आज भी तो कच्चा माल तो खुब जा रहा है

ब्लॉ.ललित शर्मा said...


उम्दा पोस्ट-सार्थक लेखन के लिए आभार

प्रिय तेरी याद आई
आपकी पोस्ट ब्लॉग4वार्ता पर

Mithilesh dubey said...

पहली बार मुझे आपके ब्लोग पर आना बढ़िया लगा, बहुत ही सार्थक लेख ।