हमारे परिचित एक व्यापारी बन्धु हैं जो प्रायः हमसे अंग्रेजी में अपने व्यापार से सम्बन्धित पत्र लिखवाया करते हैं। पत्र लिखने के एवज में वे हमें हमारा पारश्रमिक तो देते ही हैं पत्र लिखवाने के पहले वे हमें मुफ्त में ही तारीफ के कुछ शब्द दे देते हैं जैसे कि 'अवधिया जी, आपसे परिचय होने के पहले भी मैंने बहुत लोगों से लेटर लिखवाया है पर आपकी लेटर ड्राफ्टिंग की बात ही कुछ और है!' अब इसका हम पर प्रभाव यह पड़ता है कि हम बड़े ही मनोयोग से उनकी चिट्ठी-पत्रियों को अच्छा से अच्छा बनाने में जुट जाते हैं, आखिर अपनी तारीफ गुदगुदाती जो है हमें!
उन व्यापारी बन्धु से परिचय के कुछ दिनों बाद ही हमें पता चल गया था कि जिस किसी से भी उन्हें कुछ काम करवाना होता है, काम करवाने के पहले उनके कसीदे अवश्य ही पढ़ते हैं। ऐसा कर के वे न केवल अपने काम को बहुत अच्छी प्रकार से करवा लेते हैं बल्कि काम के बदले दिए जाने वाले पारश्रमिक को भी कम करवा लेते हैं याने कि काम करने वाला कम दाम में भी अच्छा काम कर दिया करता है।
अपनी तारीफ भला किसे अच्छी नहीं लगती?
अब हमारे किसी पोस्ट में यदि कोई टिप्पणी करे 'केवल आपकी लेखनी ही ऐसा चमत्कार कर सकती है!' तो क्या फूल के कुप्पा नहीं होंगे? अब यह बात अलग है कि इस टिप्पणी से पता ही नहीं चलता कि टिप्पणीकर्ता ने हमारे पोस्ट को पढ़कर टिप्पणी की है या बगैर पढ़े हुए। पर कोई हमारे पोस्ट को पढ़कर टिप्पणी करे या बगैर पढ़े, हमें उससे क्या मतलब है? हमें तो टिप्पणी चाहिए क्योंकि सरस्वती-पुत्र जो ठहरे हम! तारीफ पाना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
तारीफ का एक अन्य रूप नाम होना है। यदि किसी नामधारी लेखक ने अपनी पुस्तक प्रकाशित किया है और उसमें सहयोगकर्ताओं की सूची में हमारा नाम दे दिया है तो हम खुश हो जाते हैं जबकि हम स्वयं किसी पुस्तक को पढ़ते हैं तो सहयोगकर्ता की सूची या उन पुस्तकों की सूची जहाँ से प्रसंग लिया गया है आदि की तरफ झाँकते तक नहीं। जब हम फिल्म देखते हैं तो शायद ही फिल्म की पूरी कॉस्टिंग को पढ़ते हों पर वह आदमी अवश्य ही खुश होता है जिसका नाम उस कॉस्टिंग में होता है। आदमी तो अपने नाम का भूखा होता है क्योंकि नाम होना ही उसकी तारीफ होना होता है।
संसार में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसे अपनी तारीफ अच्छी ना लगती हो। आजकल तो एक प्रकार से चलन भी बन गया है अपनी तारीफ करवाने का, भले ही वह तारीफ झूठी ही क्यों ना हो।
हमारे हिसाब से तो मुँह पर की जाने वाली तारीफें प्रायः झूठी ही हुआ करती हैं और पीठ पीछे की जाने वाली तारीफों में अधिकतर सच्ची!
12 comments:
चलिए साहब एक सदाबहार और सर्वमान्य टिप्पणी आपके इस लेख को देता हूँ.....nice.
विचारणीय प्रस्तुती ...
पूरे सौ में सौ नम्बर दिए जाते है।
जय हो गुरुदेव की।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। बिना पढे जी, हमे तो पता भी नही वो व्यपारी सब से प्यार से बोल कर कम पेसॊ मै चिठ्ठी लिखबाता है...
आप तो उसे प्रेम समझ कर स्वीकारिये उसकी नियत में क्या है उसकी चिंता मत कीजिये , इस दौर के संबंधों को प्रेम और सकार की जरुरत है !
सटीक विचार .... शतप्रतिशत सहमत हूँ .... आभार
बिल्कूल सही कहा आपने टिप्पणी के रूप में एक तारीफ पाने के लिए लोग दुसरे कितने ब्लगो पर टिप्पणी कर आते है
अपने मान अभिमान के मोह पर विजय पाना तो दुष्कर है, विरले होते है जो कर पाते है।
सही कहा आप ने।
लोकेषणा से बहुत कम ही बच पाते हैं।
सुंदर लेख प्रस्तुत किया है .... .....
एक बार इसे भी पढ़े , शायद पसंद आये --
(क्या इंसान सिर्फ भविष्य के लिए जी रहा है ?????)
http://oshotheone.blogspot.com
बिलकुल सही कहा....
वैसे आप हमेशा ही बेहतरीन लिखते हैं.... ;-)
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