भारत में आज मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली जैसे विशाल महानगर हैं जिनमें देश भर के पढ़े-लिखे लोग आजीविका के चक्कर में आकर निवास करते हैं; छोटे-छोटे मगर आलीशान फ्लैटों में रहते हैं जिनमें न तो आँगन ही होता है और न ही अतिथि के लिए स्थान। सुबह नौ-दस बजे वे टिड्डीदलों की भाँति दफ्तर की तरफ निकल पड़ते दिखाई दिया करते हैं। पापी पेट के लिए लाखों-करोड़ों स्त्री-पुरुष गाँव-देहातों को छोड़कर महानगरों में आ बसे हैं। इन महानगरों में बड़े-बड़े मिल और कल कारखाने हैं जिनमें लाखों मजदूर एक साथ मजदूरी करके पेट पालते हैं और गन्दी बस्तियों में, मुर्गे-मुर्गियों के दड़बों की भाँति, झोपड़पट्टियों में रहते हैं।
और सभी खुश हैं!
एक समय वह भी था जब भारत में लोग गाँव-देहातों-कस्बों में रह कर खेती करते या घर पर अपने-अपने हजारों धन्धे करते थे। छोटे से छोटा गाँव भी उन दिनों अपनी हर जरूरत के लिए आत्मनिर्भर हुआ करता था। प्रत्येक आदमी बहुत कम खर्च में सीधे-सादे ढंग से मजे में रहता था। अपना मालिक आप! अपने आप में सम्पूर्ण आत्मनिर्भर! परिश्रम, सादा जीवन और आत्मनिर्भरता उनके स्वभाव के अंग थे क्योंकि उनके बगैर एक क्षण भी काम नहीं चल सकता था। स्थानीय शासकों मसलन मालगुजारों, जमींदारों आदि की स्वेच्छाचारिता से तंग भी होते थे और उनकी दयाशीलता से निहाल भी।
और सभी भी खुश थे!
8 comments:
वाह वाह
वाह वाह
वे भी ख़ुश थे
ये भी ख़ुश हैं
___इसी का नाम ज़िन्दगी है दोस्त जो हर हाल में ख़ुश होना सिखा देती है
जीवन में खुश रहना जरुरी है
खुशी छोटी ही होनी चाहिए।
छोटी खुशी विस्तार पाकर घातक हो जाती है।
इसलिए देखिए आपने भी शी्र्षक एक शब्द "खुशी" का ही दिया है।
आओ हर हालात में खुश रहें-यही जीवन है।
कोई काहू मा मगन, कोई काहू मा मगन
हर जगह हर चीज़ नहीं मिलती है।
कुछ पाने के लिए कुछ तो खोना ही पड़ता है ये लोगों के अपनी सोच पर निरभर है की उनको क्या पाना है और क्या खोना |
किसी चिंतक का कथन है - 'भौतिक समृद्धि के नर्क में जाने को आतुर सभ्यता'
क्या करें, हम लोग गम में भी ख़ुशी ढूँढ ही लेते हैं.... :-)
बहुत ही सही कहा आपने, उस समय वो लोग अपनी दिनचर्या से खुश थे, आज यह लोग अपनी से खुश हैं ।
स्वाभाविक बात है कि समय के साथ खुशियों का रंग,रूप,साइज भी बदले !
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