Wednesday, October 6, 2010

मारो स्साले को जूता... याने कि जुतियाना

किसी को जुतियाने का चलन एक लम्बे काल से चला आ रहा है। यद्यपि आज के जमाने में अनेक प्रकार के हथियार उपलब्ध हैं किन्तु एक हथियार के रूप में जूते का महत्व आज भी बना हुआ है। जूता जहाँ अस्त्र है वहीं शस्त्र भी है क्योंकि किसी को मारने के लिए इसका प्रयोग इसे हाथ में पकड़े-पकड़े भी किया जा सकता है और फेंक कर भी। किसी को जूता मारने पर जहाँ उसे शारीरिक पीड़ा होती है वहीं उसके भीतर अपमानित होने का भाव भी उत्पन्न होता है जिसके कारण उसे मानसिक संत्रास भी मिलता है।

लम्बे समय से जुतियाने का प्रयोग होने के कारण जुतियाने के अनेक तरीके भी ईजाद हो चुके हैं किन्तु 'श्रीलाल शुक्ल' जी ने "राग दरबारी" में जुतियाने का जो तरीका बताया है वही तरीका हमें जुतियाने का सबसे अच्छा लगता है। हमारे विचार से तो उससे अच्छा तरीका और हो ही नहीं सकता। उनके तरीके के अनुसार यदि किसी को जुतियाना हो तो उसे गिन कर 100 जूते लगाने चाहिये, न एक कम और न एक ज्यादा। और गिनती के 93-94 तक पहुँचने पर भूल जाना चाहिये कि अब तक कितने जूते लग चुके हैं। अब भूल गये तो फिर से जुतियाना तो शुरू करना ही पड़ेगा।

जब भी इंसान को गुस्सा आता है, किसी न किसी को जुतियाने का मन हो ही जाता है। अक्सर तो होता यह है कि गुस्सा किसी और पर आता है और जुतियाया कोई और जाता है। अब आप अपने से जादा ताकतवर को नहीं जुतिया सकते ना, पर गुस्सा शांत करने के लिये जुतियाना जरूरी भी है। इसीलिये जब आफिस में बॉस और घर में बीबी पर गुस्सा आता है तो चपरासी और नौकर ही जुतियाये जाते हैं।

राजनीति, खास करके आज के जमाने की राजनीति, और जुतियाने में चोली दामन का सम्बन्ध है। जिस नेता के पास जुतियाने वाले चम्मचों की टीम नहीं होती, वास्तव में वह असली नेता ही नहीं होता। जुतियाना नेताओं के चम्मचों का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। शक्ति प्रदर्शन करके अपना बड़प्पन स्वीकार करवाने का एक मात्र माध्यम जुतियाना ही है।

जुतियाना शब्द तो जूते से बना है। तो प्रश्न यह उठता है कि जब इस संसार में जूता नहीं हुआ करता था तो लोग भला कैसे अपना गुस्सा उतारते रहे होंगे? शायद जूते की जगह खड़ाऊ लगा कर। तो 'जुतियाने' को अवश्य ही 'खड़ुवाना' कहा जाता रहा होगा। और शायद उस जमाने में नेता के चम्मच के बजाय राजाओं के मुसाहिब और खुशामदी लोग 'खड़ुआते' रहे होंगे।

जुतियाने का सबसे बढ़िया प्रयोग तो फिल्म 'शोले' में किया गया था संजीव कुमार के द्वारा अमजद खान को बड़े बड़े कील वाले जूते खिलवा कर। सच्ची बात तो यह है कि जो जितना अधिक जुतियाने का प्रयोग करेगा वह उतना ही आगे बढ़ेगा। हम तो आज तक आगे नहीं बढ़ पाये क्योंकि हमें जुतियाना ही नहीं आता।

9 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

वाह, जूता पुराण।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

काफी विचार मंथन किया है ..अच्छा जूता पुराण

Unknown said...

बहुत ज़ोर से जुतियाया आपने......

कुछ लोग इसके वास्तविक अधिकारी होते हैं उन्हें उनका हक़ मिलना ही चाहिए

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

राग दरबारी से लेकर शोले तक जुतियाने का सफर बढ़िया रहा। राग दरबारी में लंगड़दीन को जुतियाना नहीं आया इस कारण वह इसकी सजा अन्तिम तक भुगतता रहा। सांसारिक जीवन में बने रहना है तो जुतियाना भी आना चाहिए।

anshumala said...

जब जूता नहीं था तो लोग लात से मारते थे और उसे लतियाना कहते थे | आज भी ये प्रचलन में है और कही से भी जुतियाने से कम नहीं है |

Rahul Singh said...

एक जूता कृश्‍न चंदर का भी याद आ रहा है, संभवतः जामुन का पेड़ संग्रह में शामिल है.

राज भाटिय़ा said...

अब स्कुल खोल ले जुतियाना सिखाने का, सच मै बहुत चलेगा जी, धन्यवाद

Anonymous said...

ललित जी की बात पर मुस्कुराना ही पड़ा

अजय कुमार झा said...

बहुत ही गजब की पोस्ट लगी अवधिया जी