Monday, November 1, 2010

फटाके याने कि आतिशबाजी याने कि आग का खेल-तमाशा

सदियों से न केवल हमारे देश में बल्कि विश्व के प्रायः देशों में उत्सव या खुशी के अवसर पर आतिशबाजी अर्थात् फटाके चलाने की परम्परा रही है। फटाके से उत्पन्न कर्णभेदी ध्वनी जहाँ मनुष्य को एक भयमिश्रित प्रसन्नता प्रदान करती है वहीं आग का सितारों के रूप में नाचना, ऊपर से नीचे गिरना मनुष्य को नयनाभिराम प्रतीत होता है। यह भी हो सकता है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में देवताओं के द्वारा आकाश से फूल बरसाने का उल्लेख आतिशबाजी के द्वारा आग का फूलों के रूप में आकाश से नीचे गिरने का सांकेतिक रूप हो।

आतिशबाजी उर्दू का शब्द है जिसमें "आतिश" का अर्थ होता है "आग" और "बाजी" का अर्थ है "खेल" या "तमाशा" याने कि "आतिशबाजी" का अर्थ हुआ "आग का खेल-तमाशा"। जहाँ अन्य समस्त प्राणियों के लिए आग भय की वस्तु है वहीं मनुष्य ने आग को भी खेल-तमाशे की वस्तु बना लिया; यह केवल मनुष्य के विलक्षण मस्तिष्क का ही कमाल है। हमें पता नहीं है कि मनुष्य ने आतिशबाजी की कला की खोज कब और कैसे की, हो सकता है कि आग में नमक पड़ जाने से जो चड़चड़ाहट होती है उसी ने मनुष्य का ध्यान आतिशबाजी की ओर आकर्षित किया हो। यह भी सम्भाव है कि कभी अनजाने में मनुष्य ने आग में कोई ऐसी वस्तु डाल दी हो जिसमें किसी रूप में शोरा (पोटेशियम नाइट्रेट) और गंधक रहा हो और उसके परिणामस्वरूप मनुष्य को आतिशबाजी की कला का ज्ञान हो गया हो।

अस्तु, माना जाता है कि इस कला का विकास चीन में लगभग दो हजार वर्ष पूर्व हुआ जहाँ से यह शनैः-शनैः पूरे विश्व में फैल गया। आतिशबाजी की कला के लिए बारूद का प्रयोग किया जाता है जो कि कोयला, गंधक और शोरा के चूरे का मिश्रण होता है। कालान्तर में आतिशबाजी को रंगीन करके और भी नयनाभिराम बनाने के लिए बारूद में पोटेशियम क्लोरेट (potassium chlorate), बेरियम (barium), स्ट्रोन्टियम नाइट्रेट (strontium nitrate), एल्युमीनियम (aluminium), मैग्नेशियम (magnesium) आदि को मिलाने का प्रचलन होने लगा नयनाभिराम, रंग-बिरंगी, चमकीली सितारों के रूप में आग के फौवारे छोड़ने वाले रॉकेट, गोले आदि फटाके बनाए जा सकें।

जहाँ फटाके हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं वहीं अनेक बार भयंकर दुर्घटनाओं के कारण भी बन जाते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर फटाकों के निर्माण, क्रय-विक्रय आदि के लिए नियम-कानून बनाए गए। भारत में "भारतीय विस्फोट नियम" (Indian Explosives Rules) की शुरुवात पहली बार सन् 1940 में हुई जिसके अन्तर्गत् फटाकों के निर्माण एवं विक्रय के लिए लायसेंस का प्रावधान बनाया गया।

दिवाली की रात सम्पूर्ण भारत में अरबों-खरबों रुपयों के फटाके जल जाते हैं और प्रतिवर्ष फटाकों के खपत में 10% की वृद्धि हो जाती है। आपको शायद ही पता हो कि भारत में दिवाली की रात को तीन घण्टे के भीतर जितने फटाके चलते हैं उनका निर्माण करने के लिए शिवाकाशी में स्थित अनेक फटाके निर्माता कम्पनियों को तीन सौ से भी अधिक दिन लगते हैं। यद्यपि भारत में अनेक स्थानों में फटाके बनाने वाली फैक्टरियाँ हैं किन्तु सबसे अधिक फैक्टरियाँ शिवाकाशी में ही है क्योंकि वहाँ की कम वर्षा और शुष्क वातावरण इसके लिए अत्यन्त उपयुक्त है।

एक अरसे तक विश्व भर के देशों को फटाका निर्यात करने में चीन का एकाधिकार रहा है किन्तु अब भारत से भी अनेक देशों में फटाकों का निर्यात किया जाता है।

5 comments:

निर्मला कपिला said...

ाच्छी जानकारी धन्यवाद।

Arvind Mishra said...

पटाखेदार जानकारी

प्रवीण पाण्डेय said...

हजारों का पटाका, धुआँ बनकर उड़ जाता है।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

परम्पराओं को निभाते हुये मैं बहुत थोड़े से पटाखे चलाता हूं...

Rahul Singh said...

मानों शब्‍दकोश और विश्‍वकोश का कोई पृष्‍ठ खुला हो.