हममें से कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो न चाहे कि भ्रष्टाचार हट जाए। हम सभी यही कामना करते हैं कि हमारे देश मे भ्रष्टाचार का पूर्ण रूप से नाश हो जाए।
तो प्रश्न यह उठता है कि आखिर भ्रष्टाचार हटता क्यों नहीं?
और इस प्रश्न का सीधा सा जवाब यही है कि हम केवल चाहते है कि भ्रष्टाचार हट जाए किन्तु भ्रष्टाचार को हटाने के लिए हम स्वयं कुछ भी प्रयास नहीं करते। हम सोचते हैं कि कोई दैवी चमत्कार हो जाए, किसी महान व्यक्ति का अभ्युदय हो जाए जो भ्रष्टाचार को हटा दे, हम जानते हैं कि हमारे नेता भ्रष्ट हैं किन्तु हम उन्हीं से उम्मीद रखते हैं कि वे भ्रष्टाचार को हटा दे।
पर क्या केवल सोच ही लेने से कोई कार्य सिद्ध हो जाता है? कार्य को सिद्ध करने के लिए परिश्रम करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है; कहा भी गया हैः
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्यणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मगाः॥
(जिस प्रकार से सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं चले जाते, सिंह को क्षुधा-शान्ति के लिए शिकार करना ही पड़ता है, उसी प्रकार से किसी कार्य की मात्र इच्छा कर लेने से वह कार्य सिद्ध नहीं हो जाता, कार्य उद्यम करने से ही सिद्ध होता है।)
भ्रष्टाचार हटाने के लिए हम स्वयं तो कोशिश करते ही नहीं पर यदि कोई अन्य इसके लिए प्रयास कर रहा हो तो हम उसका साथ तक देने की जहमत नहीं उठाते। हम यही सोचते हैं कि "कौन फालतू की बला मोल ले?" "कौन खुद को मुसीबत में डाले?" "हमें इससे क्या करना है?" "हमने क्या भ्रष्टाचार मिटाने का ठेका ले रखा है?" और भी कई ऐसी बातें सोच लेते हैं हम और भ्रष्टाचार मिटाने वाले को किंचितमात्र सहयोग तक नहीं देते। परिणाम यह होता है कि भ्रष्टाचार मिटाने में प्रयासरत वह अन्य व्यक्ति अन्त-पन्त पूर्णतः निराश होकर प्रयास करना बन्द कर देता है।
अनेक बार तो हम अपने स्वार्थ और सुविधा के लिए स्वयं ही भ्रष्टाचार करने लगते हैं जैसे कि यदि हम रेल से यात्रा कर रहे हैं और हमारे लिए बर्थ का रिजर्वेशन नहीं हो पाया है तो टीटी को हम स्वयं ही अधिक रुपये देकर बर्थ पाने की कोशिश करने लगते हैं। क्या हमारा यह कार्य भ्रष्टता की सीमा में नहीं आता? हमारे मकान का नक्शा जल्दी स्वीकृत कराने के लिए स्वयं जाकर घूस देने का प्रस्ताव करते हैं, यह जानते हुए भी कि घूस लेना जितना बड़ा भ्रष्टाचार है, घूस देना भी उतना ही बड़ा भ्रष्टाचार है।
सच बात तो यह है कि हमें ऐसी शिक्षा ही नहीं मिली है जो हमें गलत कार्य करने से रोके। पाश्चात्य नीतियों पर आधारित हमारे देश की शिक्षा ने हमें घोर स्वार्थी और सुविधाभोगी बना कर रख दिया है। ऐसे में हमारे देश से भ्रष्टाचार कैसे मिट सकेगा?
तो प्रश्न यह उठता है कि आखिर भ्रष्टाचार हटता क्यों नहीं?
और इस प्रश्न का सीधा सा जवाब यही है कि हम केवल चाहते है कि भ्रष्टाचार हट जाए किन्तु भ्रष्टाचार को हटाने के लिए हम स्वयं कुछ भी प्रयास नहीं करते। हम सोचते हैं कि कोई दैवी चमत्कार हो जाए, किसी महान व्यक्ति का अभ्युदय हो जाए जो भ्रष्टाचार को हटा दे, हम जानते हैं कि हमारे नेता भ्रष्ट हैं किन्तु हम उन्हीं से उम्मीद रखते हैं कि वे भ्रष्टाचार को हटा दे।
पर क्या केवल सोच ही लेने से कोई कार्य सिद्ध हो जाता है? कार्य को सिद्ध करने के लिए परिश्रम करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है; कहा भी गया हैः
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्यणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मगाः॥
(जिस प्रकार से सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं चले जाते, सिंह को क्षुधा-शान्ति के लिए शिकार करना ही पड़ता है, उसी प्रकार से किसी कार्य की मात्र इच्छा कर लेने से वह कार्य सिद्ध नहीं हो जाता, कार्य उद्यम करने से ही सिद्ध होता है।)
भ्रष्टाचार हटाने के लिए हम स्वयं तो कोशिश करते ही नहीं पर यदि कोई अन्य इसके लिए प्रयास कर रहा हो तो हम उसका साथ तक देने की जहमत नहीं उठाते। हम यही सोचते हैं कि "कौन फालतू की बला मोल ले?" "कौन खुद को मुसीबत में डाले?" "हमें इससे क्या करना है?" "हमने क्या भ्रष्टाचार मिटाने का ठेका ले रखा है?" और भी कई ऐसी बातें सोच लेते हैं हम और भ्रष्टाचार मिटाने वाले को किंचितमात्र सहयोग तक नहीं देते। परिणाम यह होता है कि भ्रष्टाचार मिटाने में प्रयासरत वह अन्य व्यक्ति अन्त-पन्त पूर्णतः निराश होकर प्रयास करना बन्द कर देता है।
अनेक बार तो हम अपने स्वार्थ और सुविधा के लिए स्वयं ही भ्रष्टाचार करने लगते हैं जैसे कि यदि हम रेल से यात्रा कर रहे हैं और हमारे लिए बर्थ का रिजर्वेशन नहीं हो पाया है तो टीटी को हम स्वयं ही अधिक रुपये देकर बर्थ पाने की कोशिश करने लगते हैं। क्या हमारा यह कार्य भ्रष्टता की सीमा में नहीं आता? हमारे मकान का नक्शा जल्दी स्वीकृत कराने के लिए स्वयं जाकर घूस देने का प्रस्ताव करते हैं, यह जानते हुए भी कि घूस लेना जितना बड़ा भ्रष्टाचार है, घूस देना भी उतना ही बड़ा भ्रष्टाचार है।
सच बात तो यह है कि हमें ऐसी शिक्षा ही नहीं मिली है जो हमें गलत कार्य करने से रोके। पाश्चात्य नीतियों पर आधारित हमारे देश की शिक्षा ने हमें घोर स्वार्थी और सुविधाभोगी बना कर रख दिया है। ऐसे में हमारे देश से भ्रष्टाचार कैसे मिट सकेगा?
5 comments:
सैद्धान्तत: सही है.. लेकिन वास्तविकता में नहीं हो सकता.. किसी की हिम्मत हो सकती है, सड़क पर वसूली कर रहे सिपाही जी को रोकने की.. यह ऊपर से नीचे की ओर बहने वाला दरिया है... जब ऊपर रोक लगेगी, नीचे खुद-ब-खुद बन्द हो जायेगा..
जिस देश में इस तरह का वोट बैंक हो, जिस देश में हिन्दू ऊँच-नीच, बिहारी-मराठी, अमीर- गरीब के बीच बंटा रहेगा, जब तक इस देश में मनमोहन जी जैसी साफ़-सुथरी छवि के लोग प्रधानमंत्री बनते रहेंगे, कुछ नहीं हो सकता !
जिस दिन हम सुधरेगे उस दिन इस की पहल शुरु होगी.... ओर उसी दिन से यह हटना शुरु हो जायेगा
जब कोई पेड़ जड़ जमा लेता है तो उखाड़ने में आसपास की मिट्टी उखड़ जाती है, न किसी में वह शक्ति की पेड़ उखाड़ सके और मिट्टी को कष्ट दे सके।
भ्रष्टाचार से लाभान्वित होने की चाहत, शायद सबसे बड़ा कारण है.
Post a Comment