"लोभिया ला लबरा ठगे" छत्तीसगढ़ी का एक "हाना" अर्थात् लोकोक्ति है जिसका अर्थ है "लोभी व्यक्ति को झूठा आदमी ठग लेता है"।
देखा जाए तो यह लोभ या लालच संसार की सबसे बुरी बला है। चारे की लालच में मछली बंशी में फँस कर जान गवाँ देती है, दाने की लालच में पक्षी जाल में फँस जाते हैं, सहज में भोजन पाने के लालच में वन्य पशु भी मनुष्य की गिरफ्त में आ जाते हैं।
किन्तु यह भी ध्रुव सत्य है कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति लोभी या लालची होता है, लालच या लोभ प्राणीमात्र की स्वाभाविक मानसिकता है। और प्राणीमात्र की इस कमजोरी का ही फायदा उठा कर मनुष्य मछली, पक्षी, वन्य पशुओं आदि को फाँस लेता है।
मनुष्य न केवल अन्य प्राणियों के बल्कि मनुष्यों के भी लालच की मानसिकता का फायदा उठाता है चारे के रूप में "फोकट" या "मुफ्त" शब्द का इस्तेमाल करके। वास्तव में "फ्री", "मुफ्त", "फोकट" जैसे शब्द अचूक हथियार हैं लोगों के भीतर की लालच को उभारने के लिए। ये शब्द लोगों को बरबस ही आकर्षित कर लेते हैं। मुफ्त में मिलने वाली चीज को छोड़ देना कोई भी पसंद नहीं करता। वो कहते हैं ना “माले मुफ्त दिले बेरहम”। किन्तु इस मुफ्त पाने के चक्कर में हम लोगों को कितना लूटा जाता है यह बहुत कम लोगों को ही पता होगा।
बाजार में आप "दो साबुन खरीदने पर एक साबुन बिल्कुल मुफ्त!" जैसी स्कीम रोज ही देखते होंगे। और इस स्कीम को जान कर हम खुश हो जाते हैं यह सोचकर कि एक साबुन हमें मुफ्त मिल रहा है, परिणामस्वरूप हम एक के बजाय तीन साबुन खरीद लेते हैं। तीन साबुन की फिलहाल हमें कतइ जरूरत नहीं है फिर भी हम तीन साबुन खरीद लेते हैं। क्यों? सिर्फ लालच में आकर। किन्तु हमें यह पता होना चाहिए कि जिसने हमें दो साबुन की कीमत में तीन साबुन दिए हैं उसने घाटा खाने के लिए दुकान नहीं खोला है, उसने हमसे कुछ न कुछ कमाया ही है। उसने अपनी कमाई के लिए हमारी लालच की मानसिकता का लाभ उठाते हुए हमें बेवकूफ बनाया है।
कैसे बेवकूफ बनाया है उसने?
मान लीजिये एक साबुन की कीमत पन्द्रह रुपये हैं तो दो साबुन के दाम अर्थात् तीस रुपये में आपको तीन साबुन मिलते हैं। जरा सोचिये, साबुन बनाने वाली कम्पनी बेवकूफ तो है नहीं जो कि बिना किसी लाभ के साबुन बेचेगी। तीस रुपये में तीन साबुन बेचने पर भी उसे लाभ ही हो रहा है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि एक साबुन का मूल्य मात्र दस रुपये हैं। तो इस हिसाब से कम्पनी को साबुन का दाम पन्द्रह रुपये से कम करके दस रुपये कर देना चाहिये। पर कम्पनी दाम कम न कर के आपको एक मुफ्त साबुन का लालच देती है और आप लालच में आकर एक साबुन के बदले तीन साबुन खरीद लेते हैं जबकि दो अतिरिक्त खरीदे गये साबुनों की आपको फिलहाल बिल्कुल आवश्यकता नहीं है। यदि कम्पनी ने दाम कम कर दिया होता तो आप दस रुपये में एक ही साबुन खरीदते और बाकी बीस रुपये का कहीं और सदुपयोग करते। इस तरह से दाम न घटाने का कम्पनी को एक और फायदा होता है वह यह कि यदि आप केवल एक साबुन खरीदेंगे तो आपको पन्द्रह रुपये देने पड़ेंगे। इस प्रकार से सिर्फ एक साबुन खरीदने पर मुनाफाखोर कम्पनी आपके पाँच रुपये जबरन लूट लेगी। बताइये यह व्यापार है या लूट?
भाई मेरे, यदि साबुन बिल्कुल मुफ्त है तो मुफ्त में दो ना, चाहे कोई दो साबुन खरीदे या ना खरीदे। ये दो साबुन खरीदने की शर्त क्यों रखते हो?
विडम्बना तो यह है कि अपनी गाढ़ी कमाई की रकम को लुटाने के लिये हम सभी मजबूर हैं क्योंकि सरकार ऐसे मामलों अनदेखा करती रहती है। इन कम्पनियों से सभी राजनीतिक दलों को मोटी रकम जो मिलती है चन्दे के रूप में।
सच बात तो यह है कि फ्री या मुफ्त में कोई किसी को कुछ भी नहीं देता। किसी जमाने में पानी मुफ्त मिला करता था पर आज तो उसके भी दाम देने पड़ते हैं।
यदि कोई कुछ भी चीज मुफ्त में देता है तो अवश्य ही उसका स्वार्थ रहता है उसमें।
देखा जाए तो यह लोभ या लालच संसार की सबसे बुरी बला है। चारे की लालच में मछली बंशी में फँस कर जान गवाँ देती है, दाने की लालच में पक्षी जाल में फँस जाते हैं, सहज में भोजन पाने के लालच में वन्य पशु भी मनुष्य की गिरफ्त में आ जाते हैं।
किन्तु यह भी ध्रुव सत्य है कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति लोभी या लालची होता है, लालच या लोभ प्राणीमात्र की स्वाभाविक मानसिकता है। और प्राणीमात्र की इस कमजोरी का ही फायदा उठा कर मनुष्य मछली, पक्षी, वन्य पशुओं आदि को फाँस लेता है।
मनुष्य न केवल अन्य प्राणियों के बल्कि मनुष्यों के भी लालच की मानसिकता का फायदा उठाता है चारे के रूप में "फोकट" या "मुफ्त" शब्द का इस्तेमाल करके। वास्तव में "फ्री", "मुफ्त", "फोकट" जैसे शब्द अचूक हथियार हैं लोगों के भीतर की लालच को उभारने के लिए। ये शब्द लोगों को बरबस ही आकर्षित कर लेते हैं। मुफ्त में मिलने वाली चीज को छोड़ देना कोई भी पसंद नहीं करता। वो कहते हैं ना “माले मुफ्त दिले बेरहम”। किन्तु इस मुफ्त पाने के चक्कर में हम लोगों को कितना लूटा जाता है यह बहुत कम लोगों को ही पता होगा।
बाजार में आप "दो साबुन खरीदने पर एक साबुन बिल्कुल मुफ्त!" जैसी स्कीम रोज ही देखते होंगे। और इस स्कीम को जान कर हम खुश हो जाते हैं यह सोचकर कि एक साबुन हमें मुफ्त मिल रहा है, परिणामस्वरूप हम एक के बजाय तीन साबुन खरीद लेते हैं। तीन साबुन की फिलहाल हमें कतइ जरूरत नहीं है फिर भी हम तीन साबुन खरीद लेते हैं। क्यों? सिर्फ लालच में आकर। किन्तु हमें यह पता होना चाहिए कि जिसने हमें दो साबुन की कीमत में तीन साबुन दिए हैं उसने घाटा खाने के लिए दुकान नहीं खोला है, उसने हमसे कुछ न कुछ कमाया ही है। उसने अपनी कमाई के लिए हमारी लालच की मानसिकता का लाभ उठाते हुए हमें बेवकूफ बनाया है।
कैसे बेवकूफ बनाया है उसने?
मान लीजिये एक साबुन की कीमत पन्द्रह रुपये हैं तो दो साबुन के दाम अर्थात् तीस रुपये में आपको तीन साबुन मिलते हैं। जरा सोचिये, साबुन बनाने वाली कम्पनी बेवकूफ तो है नहीं जो कि बिना किसी लाभ के साबुन बेचेगी। तीस रुपये में तीन साबुन बेचने पर भी उसे लाभ ही हो रहा है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि एक साबुन का मूल्य मात्र दस रुपये हैं। तो इस हिसाब से कम्पनी को साबुन का दाम पन्द्रह रुपये से कम करके दस रुपये कर देना चाहिये। पर कम्पनी दाम कम न कर के आपको एक मुफ्त साबुन का लालच देती है और आप लालच में आकर एक साबुन के बदले तीन साबुन खरीद लेते हैं जबकि दो अतिरिक्त खरीदे गये साबुनों की आपको फिलहाल बिल्कुल आवश्यकता नहीं है। यदि कम्पनी ने दाम कम कर दिया होता तो आप दस रुपये में एक ही साबुन खरीदते और बाकी बीस रुपये का कहीं और सदुपयोग करते। इस तरह से दाम न घटाने का कम्पनी को एक और फायदा होता है वह यह कि यदि आप केवल एक साबुन खरीदेंगे तो आपको पन्द्रह रुपये देने पड़ेंगे। इस प्रकार से सिर्फ एक साबुन खरीदने पर मुनाफाखोर कम्पनी आपके पाँच रुपये जबरन लूट लेगी। बताइये यह व्यापार है या लूट?
भाई मेरे, यदि साबुन बिल्कुल मुफ्त है तो मुफ्त में दो ना, चाहे कोई दो साबुन खरीदे या ना खरीदे। ये दो साबुन खरीदने की शर्त क्यों रखते हो?
विडम्बना तो यह है कि अपनी गाढ़ी कमाई की रकम को लुटाने के लिये हम सभी मजबूर हैं क्योंकि सरकार ऐसे मामलों अनदेखा करती रहती है। इन कम्पनियों से सभी राजनीतिक दलों को मोटी रकम जो मिलती है चन्दे के रूप में।
सच बात तो यह है कि फ्री या मुफ्त में कोई किसी को कुछ भी नहीं देता। किसी जमाने में पानी मुफ्त मिला करता था पर आज तो उसके भी दाम देने पड़ते हैं।
यदि कोई कुछ भी चीज मुफ्त में देता है तो अवश्य ही उसका स्वार्थ रहता है उसमें।
4 comments:
यह बिजनेस है।
ठगे बर लोभिया बनाए बर परथे, तभे तो मन्से ठगाथे.
लोभी ही ठगायेंगे।
हम ठगे ही तब जाते हे जब हमारे अंदर लालच आ जाये, सहमत हे जी आप की कहावत से
Post a Comment