आम... अंबिया... कैरी....
एक समय था कि मेरे घर में कच्चे आमों के ढेर लगे रहते थे इन दिनों में और मेरी माँ तथा दादी उनका अचार बनाने की प्रक्रिया में व्यस्त रहती थीं। स्वयं के अठारह पेड़ों से तोड़ कर लाए जाते थे ये आम। चकरी (पत्थर की छोटी चक्की) में माँ सरसों दलती थीं और दादी दले हुए सरसों को सूप में डालकर उनका छिलटा अलग करती रहती थीं। फिर लाल मिर्च, नमक, करायत आदि मसाले कूटे जाते थे तथा तराजू में मसालों को निश्चित अनुपात में तौल कर मिलाया जाता था। सरौते के द्वारा कुछ कैरियों के टुकड़े कर दिए जाते थे पर अधिकतर आमों का भरवाँ अचार बनाने के लिए सिर्फ दो फाँकों मे ही विभक्त किया जाता था जो कि नीचे से जुड़े होते थे। सूजे के द्वारा भीतर की गुठली निकाल कर ठूँस-ठूँस कर अचार का मसाला भरा जाता था उनके भीतर। आज न माँ हैं, न दादी, न हमारे वो आम के पेड़ और न उस प्रकार से घर में अचार बनाने की प्रक्रिया। बहुएँ अब भरवाँ अचार बनाती ही नहीं।
अचार बनाने का कार्य तो मई जून में होता था किन्तु अप्रैल माह में रामनवमी के दिन आम के अपरिपक्व फलों का "गुराम" अवश्य ही बनाया जाता था, चाशनी में डुबोकर पकाए गए गुराम के बिना भगवान राम के जन्मोत्सव की खुशी अधूरी मानी जाती थी।
अप्रैल माह में गर्मी की शुरवात होते ही आम फलों का आवक शुरू हो जाता है, बाजार में जहाँ देखो आम ही आम नजर आने लगते हैं, कच्चे और पक्के दोनों ही प्रकार के। अब भला किसका जी न ललचा जाएगा आमों को देखकर! शायद हर किसी के जी को ललचा देने के इस गुण के कारण ही आम को फलों का राजा माना गया है। जहाँ कच्चे आमों को देख कर मुँह में पानी भरने लगता है वहीं पक्के आमों को देखकर उनके लाजवाब और बेमिसाल स्वाद की कल्पना अनायास मन में घर करने लगती है।
भारत में आम कितने प्राचीन काल से लोकप्रिय है इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वेदों में आम को विलास का प्रतीक बताया गया है, शतपथ ब्राह्मण में इस फल का उल्लेख मिलता है, आदिकाल से हवन में होम करने के लिए आम्रवृक्ष की लकड़ियों का ही प्रयोग किया जाता है, कालिदास ने अपने नाटकों में इसका गुण गाया है, सिकन्दर ने इसकी सराहना की है और मुगल बादशाह अकबर को तो आम इतने पसन्द थे कि उन्होंने दरभंगा में आम के एक लाख वृक्षारोपण किया था। आज भी अकबर का वह आम का बगीचा लाखी बाग के नाम से जाना जाता है।
आज भी भारत में मांगलिक कार्यों के लिए आम की लकड़ी, पत्ते और फलों को शुभ माना जाता है।
जहाँ कच्चे आम का अचार, मुरब्बा, चटनी आदि बना कर उसे लम्बे अरसे के लिए सुरक्षित किया जाता है वहीं पके आमों का अमरस या अमावट बनाकर।
आम की प्रजातियाँ भी अनेक प्रकार की होती हैं जिनमें से प्रमुख हैं - हापुस या अलफांजो, नीलम, सुन्दरी, तोतापरी, लंगड़ा, दसहरी, चौसा आदि। अलग-अलग प्रजातियों के आम की मँहक और स्वाद भी अलग-अलग होते हैं। प्रमुख प्रजातियों के अलावा देश के हरेक हिस्से में आम की अलग-अलग स्थानीय प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं।
आम न केवल भारत का राष्ट्रीय फल है और भारत में प्रतिवर्ष एक करोड़ टन से भी अधिक आम, जो कि संसार के कुल आम उत्पादन का लगभग 52% है, पैदा होता है बल्कि समस्त उष्ण कटिबंध के फलों में सर्वाधिक लोकप्रिय फल है। उल्लेखनीय है कि यदि आम के पेड़ को अनुकूल जलवायु मिले तो आम का वृक्ष पचास-साठ फुट तक ऊँचा हो जाता है।
बाजार में आम देखकर उसके विषय में कुछ अधिक जानकारी प्राप्त करने की इच्छा हुई तो थोड़ा गूगलिंग कर लिया जिससे जानकारी तो मिली ही और यह पोस्ट भी बन गई, तो इसे ही कहते हैं "आम के आम और गुठलियों के दाम"।
एक समय था कि मेरे घर में कच्चे आमों के ढेर लगे रहते थे इन दिनों में और मेरी माँ तथा दादी उनका अचार बनाने की प्रक्रिया में व्यस्त रहती थीं। स्वयं के अठारह पेड़ों से तोड़ कर लाए जाते थे ये आम। चकरी (पत्थर की छोटी चक्की) में माँ सरसों दलती थीं और दादी दले हुए सरसों को सूप में डालकर उनका छिलटा अलग करती रहती थीं। फिर लाल मिर्च, नमक, करायत आदि मसाले कूटे जाते थे तथा तराजू में मसालों को निश्चित अनुपात में तौल कर मिलाया जाता था। सरौते के द्वारा कुछ कैरियों के टुकड़े कर दिए जाते थे पर अधिकतर आमों का भरवाँ अचार बनाने के लिए सिर्फ दो फाँकों मे ही विभक्त किया जाता था जो कि नीचे से जुड़े होते थे। सूजे के द्वारा भीतर की गुठली निकाल कर ठूँस-ठूँस कर अचार का मसाला भरा जाता था उनके भीतर। आज न माँ हैं, न दादी, न हमारे वो आम के पेड़ और न उस प्रकार से घर में अचार बनाने की प्रक्रिया। बहुएँ अब भरवाँ अचार बनाती ही नहीं।
अचार बनाने का कार्य तो मई जून में होता था किन्तु अप्रैल माह में रामनवमी के दिन आम के अपरिपक्व फलों का "गुराम" अवश्य ही बनाया जाता था, चाशनी में डुबोकर पकाए गए गुराम के बिना भगवान राम के जन्मोत्सव की खुशी अधूरी मानी जाती थी।
अप्रैल माह में गर्मी की शुरवात होते ही आम फलों का आवक शुरू हो जाता है, बाजार में जहाँ देखो आम ही आम नजर आने लगते हैं, कच्चे और पक्के दोनों ही प्रकार के। अब भला किसका जी न ललचा जाएगा आमों को देखकर! शायद हर किसी के जी को ललचा देने के इस गुण के कारण ही आम को फलों का राजा माना गया है। जहाँ कच्चे आमों को देख कर मुँह में पानी भरने लगता है वहीं पक्के आमों को देखकर उनके लाजवाब और बेमिसाल स्वाद की कल्पना अनायास मन में घर करने लगती है।
भारत में आम कितने प्राचीन काल से लोकप्रिय है इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वेदों में आम को विलास का प्रतीक बताया गया है, शतपथ ब्राह्मण में इस फल का उल्लेख मिलता है, आदिकाल से हवन में होम करने के लिए आम्रवृक्ष की लकड़ियों का ही प्रयोग किया जाता है, कालिदास ने अपने नाटकों में इसका गुण गाया है, सिकन्दर ने इसकी सराहना की है और मुगल बादशाह अकबर को तो आम इतने पसन्द थे कि उन्होंने दरभंगा में आम के एक लाख वृक्षारोपण किया था। आज भी अकबर का वह आम का बगीचा लाखी बाग के नाम से जाना जाता है।
आज भी भारत में मांगलिक कार्यों के लिए आम की लकड़ी, पत्ते और फलों को शुभ माना जाता है।
जहाँ कच्चे आम का अचार, मुरब्बा, चटनी आदि बना कर उसे लम्बे अरसे के लिए सुरक्षित किया जाता है वहीं पके आमों का अमरस या अमावट बनाकर।
आम की प्रजातियाँ भी अनेक प्रकार की होती हैं जिनमें से प्रमुख हैं - हापुस या अलफांजो, नीलम, सुन्दरी, तोतापरी, लंगड़ा, दसहरी, चौसा आदि। अलग-अलग प्रजातियों के आम की मँहक और स्वाद भी अलग-अलग होते हैं। प्रमुख प्रजातियों के अलावा देश के हरेक हिस्से में आम की अलग-अलग स्थानीय प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं।
आम न केवल भारत का राष्ट्रीय फल है और भारत में प्रतिवर्ष एक करोड़ टन से भी अधिक आम, जो कि संसार के कुल आम उत्पादन का लगभग 52% है, पैदा होता है बल्कि समस्त उष्ण कटिबंध के फलों में सर्वाधिक लोकप्रिय फल है। उल्लेखनीय है कि यदि आम के पेड़ को अनुकूल जलवायु मिले तो आम का वृक्ष पचास-साठ फुट तक ऊँचा हो जाता है।
बाजार में आम देखकर उसके विषय में कुछ अधिक जानकारी प्राप्त करने की इच्छा हुई तो थोड़ा गूगलिंग कर लिया जिससे जानकारी तो मिली ही और यह पोस्ट भी बन गई, तो इसे ही कहते हैं "आम के आम और गुठलियों के दाम"।
4 comments:
आम बड़ा खास है हम सबके लिये।
sachmuch aapne siddh kar diya
aam ke aam, guthliyon ke daam
बहुत सुंदर यादे जी, हमारी यादो मे भी कुछ ऎसी ही यादे छुपी हे
आम के नाम पर तो 'आम फिर बौरा गए' याद आता है.
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