(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
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लक्ष्मी पूजा के दूसरे दिन दीनदयाल ने गोबर से गोवर्धन की मूर्ति और गोवर्धन पर्वत बनाकर आँगन में गोवर्धन पूजा की। अनेक प्रकार के व्यंजन बनाये गये। आज का दिन वही दिन है जब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी उँगली पर गोवर्धन पर्वत को उठा कर ब्रज की रक्षा की थी।
गोवर्धन पूजा के दूसरे दिन यम द्वितीया का पर्व था। इसे 'भाई दूज' कहते हैं। आज के दिन लोग अपनी बहिन के घर भोजन करने जाते हैं। महेन्द्र के सामने समस्या उठ खड़ी हुई कि वह कहाँ भोजन करे। सुमित्रा ने कहा, "महेन्द्र, जावो श्यामवती के घर से कुछ खाकर आ जावो, फिर घर में भोजन कर लेना।" महेन्द्र क्या कहता। पहले तो चुप रहा। फिर बात बना कर बोला, "नहीं, मैं नहीं जाउँगा। मुझे यह सब ढकोसला लगता है।" सच तो यह था कि वह मन से त्यौहार के महत्व को मान रहा था पर श्यामवती के घर न जाने कि लिये उसने ढकोसला कह कर बहाना बनाया।
"तुम पढ़-लिख कर यही तो कहोगे। तुम्हारी इच्छा नहीं है तो मत जाओ पर ऐसा कभी मत कहना।" कह कर सुमित्रा चुप हो गई। उस दिन धर्म के विधान के अनुसार दीनदयाल और महेन्द्र ने, बहिन न होने के कारण, गाय के कोठे में भोजन किया।
यम द्वितीया के दिन छत्तीसगढ़ के रावतों का बहुत बड़ा त्यौहार होता है जिसे 'मातर जागना' (मातृ जागरण) कहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्द्र के कोप और प्रलय-वर्षा से ब्रज के बच जाने पर मातृभूमि के प्रति अटूट स्नेह का प्रदर्शन करने और देवताओं को प्रसन्न करने के लिये यह उत्सव मनाया जाता हो। गाँव के सब रावतों ने सदाराम को घेर लिया और उसे साथ लेकर गाँव के मैदान में इकट्ठे हुये। वहाँ सिन्दूर से रंगे हुये दो-तीन पत्थर के देवता था। उनमें से एक का नाम 'सहाड़ा देव' था। उनके आसपास 'मड़ई' और 'बैरग' गड़ाये गये थे। लम्बे बाँस में दोनों ओर गोल पतले बांस के 'रिंग' बांध कर दोनों को रस्सियों से जोड़ देते हैं और उन रस्सियों में नीचे से ऊपर तक कुन्द पुष्प की पँखुड़ियाँ बाँध दी जाती हैं। इन्हें 'मड़ई' कहते हैं। बैरग में नीचे से ऊपर तक लाल-काले सफेद रंग के कपड़े की ध्वजायें बाँधी जाती हैं जो हवा में फहराती रहती हैं।
पास ही बड़े-बड़े चूल्हे में आग जल रही थी। उन पर बड़े-बड़े बर्तनों में दूध उबल रहा था जो गाँव भर से इकट्ठा किया गया था। श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठा कर ब्रज की जो रक्षा की थी उसी के उपलक्ष में आज भी यहाँ उत्साह मनाया जाता है जिसे 'मातर जागना' कहते हैं। सदाराम से पूजा करने की प्रार्थना की गई। उसने पूजा की और नारियल फोड़ा। फिर सबको दूध बाँटा गया। सभी रावत हर्ष में डूब कर मड़ई और बैरग के चारों ओर स्थानीय बाजे (जिसे कि गुदुम बाजा के नाम से भी जाना जाता है) के ताल पर नाचने लगे। सभी के हाथ में लाठियाँ थीं जिनको नाचते समय वे ऊपर उठाये हुये थे। मुँह पर प्रायः बहुतों ने पीला रंग मल लिया था। सभी के सिर पर रंग-बिरंगी पगड़ियाँ थीं और वे रंगीन मिर्जई, सफेद धोती या रंगीन पायजामा पहने हुये थे। कमर और पैर में घुँघरू बँधे थे। नाचते-नाचते उनमें से कोई 'हो हो रे भाई' कह उठता और बाजा रुक जाता। बाजा रुकने पर वह गा उठता -
"चलो सखी वहाँ जाइये, जहाँ बसत ब्रजराज।
गोरस बेचत हरि मिलै, एक पंथ दो काज॥"
गोरस बेचत हरि मिलै, एक पंथ दो काज॥"
दोहा समाप्त होते ही फिर बाजा बजने लग जाता और वे नाचने में व्यस्त हो जाते। दोहे और नाच का क्रम बहुत देर तक चलता रहा। सदाराम को भी सबका साथ देना पड़ा।
(क्रमशः)
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