Monday, September 24, 2007

धान के देश में - 16

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 16 -

दीनदयाल के कमरे में महेन्द्र और सदाराम बैठे थे। दीनदयाल ने खास तौर से उन्हें अपने पास बुलाया था। उन्हें देख कर बूढ़े दीनदयाल ने नेत्र और हृदय शान्त, शीतल और हर्षित हो रहे थे। उन दोनों के मन में भी अनेकों भाव उठ रहे थे। उनके मन में जिज्ञासा थी कि दादा ने उन्हें किसलिये बुलवाया है। दीनदयाल उन दोनों को अपलक देखते हुये भावों में खो गये। महेन्द्र को देख कर उन्हें श्यामलाल की याद आ गई। महेन्द्र ने श्यामलाल के ही नेत्र, नाक और माथा पाया था। बाल भी पिता के बालों की तरह मुलायम और घुँघराले थे। गौर से महेन्द्र को देखने से दीनदयाल को श्यामलाल की सुधि आ गई। चेहरे पर उदासी और हर्ष के भाव एक साथ झलक उठे। उदासी इसलिये कि आज उनका श्यामलाल संसार में नहीं था और हर्ष इसलिये कि उन्होंने महेन्द्र के रूप में श्यामलाल को पुनः पा लिया था। वे भर्राये गले से बोले, "बेटा महेन्द्र, मैं अभागा तो हूँ ही जिसका जवान बेटा आँखों के सामने ही चल बसा था पर मेरा भाग्य किसी से कम भी नहीं है जो तुम जैसे योग्य पोते के साथ साथ सदाराम जैसे तुम्हारे सच्चे मित्र को भी नाती के रूप में पाया है।" दीनदयाल के मुँह से अपनी प्रशंसा सुन कर महेन्द्र और सदाराम को आनन्द और गौरव का अनुभव हुआ। अब वे दोनों यह जानने के लिये उत्सुक थे कि दादा कौन- सी खास बात कहेंगे।
दीनदयाल कहने लगे, "महेन्द्र, मैंने तुमसे कुछ कहने के लिये बुलाया है। मैं तो मौत के घाट लग ही चुका हूँ। मेरे बाद तुमको ही तो यह गाँव और सब कुछ संभालना पड़ेगा। सोचा, तुम्हें सब बातों से सूचित और परिचित कर दूँ।"
उनकी बात सुन कर महेन्द्र को पहली बार जीवन में विषम वेदना का अनुभव हुआ। सभी प्रकार से सुखों में उसका पालन-पोषण किया गया था। दीनदयाल की छत्रच्छाया में वह सभी ओर से निश्चिन्त था। वह शायद सोचता था कि दीनदयाल की ममता ढाल बनकर सदा उसकी रक्षा करती रहेगी।
दीनदयाल भी सभी की तरह जन्म लेकर ध्रुव निश्चित मृत्यु का ग्रास बन जाने वाला है - यह बात सपने में भी उसके ध्यान में नहीं आई थी। उसने दुःखी मन से कहा, "दादा, ऐसा मत कहिये। आपके न रहने से मैं निराधार हो जाउँगा।"
"बेटा, किसके माँ-बाप, दादा-दादी सदा साथ रहे हैं। मेरी बूढ़ी हड्डियाँ काम करते करते पूरी तरह थक चुकी हैं। जीते रहने की साध किसे नहीं रहती। मुझे भी है लेकिन तभी तक जब तक तुम स्वयं सब कुछ संभाल न लो।"
"दादा, आप निश्चिन्त रहिये। आपकी आँखों के सामने ही यह सब हो जावेगा।" महेन्द्र ने उत्तर दिया।
"पर कैसे! बेटा, मैं समझता हूँ कि तुम्हें अंग्रेजी पढ़ा कर मैंने तो कोई गलती नहीं की। हाँ, अंग्रेजी की शिक्षा ही ऐसी है जो गाँव वालों को सदा के लिये शहर ले जाती है। मुझे डर है कि कहीं तुम भी शहर के आकर्षण चक्र में न पड़ जावो और यह गाँव निराधार होकर अपनी सभी प्रकार की अवनति देखता हुआ सिर धनुता रहे।"
"ऐसा कभी नहीं होगा दादा।" महेन्द्र ने दीनदयाल को आश्वासन दिया।
"अच्छा, अभी तो तुम मैट्रिक में हो। उसके बाद क्या करोगे?" दीनदयाल ने गम्भीरता से पूछा।
"मैं इंजीनियरिंग कॉलेज जाने की सोच रहा हूँ" महेन्द्र ने शीघ्र ही उल्लासपूर्वक उत्तर दिया।
"यही तो मैं सोच रहा था कि मेरे बाद इस गाँव, खेती-बाड़ी और अन्न देने वाली भूमि का क्या होगा। तुम तो इंजीनियर बन कर सरकारी नौकरी करते हुये आलीशान बंगले में रह कर नहरों और इमारतों का निर्माण करोगे, मोटर में दौरे के बहाने सैर-सपाटे करोगे और इस गाँव का क्या होगा? और यदि अपने कहने के अनुसार तुम शहर के चक्कर में नहीं पड़ोगे तो तुम्हारी इंजीनियरिंग की शिक्षा का कुछ भी अर्थ नहीं होगा।" कहते-कहते दीनदयाल कुछ निराश और अधिक गम्भीर हो गये। सुन कर महेन्द्र को लगा कि अभी उसका लड़कपन ही उसके जीवन में लहरा रहा है। उसने अपनी ओर से तो गम्भीरतापूर्वक ही गाँव से सदैव सम्बन्ध बनाये रखने की बात कही थी पर आगे के अध्ययन सम्बन्धी उसका विचार कितना विवेकहीन था। उसने पूछा, "तो क्या करना चाहिये दादा?"
"मेरी मानो तो मैट्रिक के बाद कृषि महाविद्यालय में दाखिल हो जावो। तभी तुम गाँव से नाता बनाये रख सकोगे।" दीनदयाल ने अपने विचार महेन्द्र के सामने रखा।
"दादा, मैं आपकी आज्ञा के अनुसार ही काम करूँगा।" महेन्द्र बोला।
महेन्द्र की बात सुन कर दीनदयाल को परम संतोष मिला। उन्हें अपना संसार, जो कुछ देर पहले मिटता हुआ-सा लग रहा था, अब अनन्त जान पड़ने लगा। अब उन्होंने सदाराम की और रुख करके कहना प्रारम्भ किया, "और सदाराम, तुम्हें भी महेन्द्र के साथ कृषि-विद्या पढ़ने के लिये जाना होगा।"
सदाराम चुपचाप दीनदयाल और महेन्द्र की बातें सुन रहा था। अपने बारे में दीनदयाल का निर्णय सुन कर वह हाथ जोड़ कर बोला, "दादा, मैंने तो सोचा था कि मैं मेट्रिक के बाद कहीं क्लर्क हो जाउँगा। आपने हम लोगों के साथ जो उपकार किये हैं वे क्या कम हैं।"
दीनदयाल ने कहा, "इसमें उपकार की क्या बात है बेटा। मैंने तो वही किया जो मेरा कर्तव्य था। राजो बिटिया के साथ ममता न होती तो बात दूसरी थी। देखो, तुम्हें महेन्द्र के साथ एग्रीकल्चर कॉलेज जाना ही होगा।"
सदाराम अब क्या कहता। कृतज्ञता से उसने अपनी मौन स्वीकृति दे दी।
"हाँ, तो मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों की मित्रता भी सदा बनी रहे। यदि किसी भी कारण से तुम दोनों की दोस्ती टूट गई तो मरने के बाद भी मेरी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी।" दीनदयाल ने अपनी इच्छा व्यक्त की।
"दादा, महेन्द्र मुझे लात मार कर भी दूर करेंगे तो मैं उनसे दूर नहीं होउँगा।" सदाराम ने अपना दृढ़ निश्य व्यक्त किया।
"वाह! मैं भला तुम्हें लात क्यों मारने लगा?" कह कर महेन्द्र मुस्कुराने लगा। सदाराम के ओंठों पर भी हँसी खेल गई।
"हाँ, हाँ, मुझे विश्वास है कि तुम दोनों सदा एक साथ रहोगे।" दीनदयाल ने भी हँसते हुये कहा।
इतने में किसी के आने की आहट मिली और राजवती ने प्रवेश किया। उसके आते ही दीनदयाल ने महेन्द्र और सदाराम से कहा, "अच्छा, अब तुम लोग जावो।" दोनों के चले जाने पर एक ओर भूमि पर बैठती हुई राजवती बोली, "क्या बातें हो रही थीं काका इन लोगो के साथ बड़ी देर तक?"
"कुछ नहीं, इधर-उधर की गप्पें हाँक रहे थे हम लोग।" दीनदयाल ने राजो को इतना ही बताया। वे जानते थे कि राजवती पढ़ाई के विषय में कुछ समझेगी नहीं। इसीलिये उन्होंने बात टाल दी।
"काका, तुम इन छोकरों के साथ गप्पें लड़ा रहे हो और मैं चिन्ता से घुली जा रही हूँ।" कहकर राजवती ने प्रसंग छेड़ने के लिये भूमिका बाँधी।
"किस बात की चिन्ता?" दीनदयाल ने शान्त चित्त से पूछा।
"यही तुम्हारी नातिन श्यामवती की। अब वह ब्याह के लायक हो गई है पर आप चुपचाप बैठे हैं। आखिर मैं पराई हूँ न।" राजवती ने अपनापन जताते हुये कहा।
"पराई क्यों राजो। मुझे सबकी चिन्ता है, लेकिन मेरी इच्छा कुछ दूसरी ही है।" दीनदयाल की बातों में स्नेह था।
"क्या इच्छा है आपकी?" राजो ने पूछा।
"मैं चाहता हूँ कि वह भी मैट्रिक पास कर ले। उसके बाद ही उसका ब्याह हो" कह कर दीनदयाल ने राजवती की इच्छा जानने की आशा से उसकी ओर देखा।
"लेकिन काका, पहले तो मेरी समझ से सामबती की पढ़ाई पहले ही बहुत हो चुकी है। दूसरे यह कि लड़का वाला ठहरे तब न।" राजो की बात सुन कर दीनदयाल चौंक उठे। समझ गये कि वह पहले से ही कुछ तय कर चुकी है और सलाह लेना शिष्टाचार के लिये है। पूछा, "लड़का वाला कौन है?"
"वही सिकोला का दुर्गाप्रसाद। उसका भोला सामबती के लिये कैसा रहेगा?"
"जब तुमने निश्चय कर ही लिया है तब मुझसे क्या पूछती हो।" दीनदयाल के स्वर में रूखापन तो नहीं पर उदासीनता अवश्य ही थी जिसे राजो ने भाँप लिया। वह बोली, "नहीं ऐसी बात तो नहीं है। जो कुछ होगा वह आप ही के किये होगा। मैं आपके बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ूँगी।"
मामला कहाँ तक बढ़ चुका है यह जानने के लिये दीनदयाल लने पूछा, "दुर्गा की ओर से भी बातचीत हुई है या तुम्हीं कह रही हो?"
राजवती दीनदयाल से कुछ भी नहीं छुपा सकती थी। बोली, "काका, यों तो पहले ही मैंने दुर्गा को वचन दे दिया था और फिर कुँआर में वह इसी सिलसिले में मेरे पास आया भी था।"
"तुमने क्या उत्तर दिया।" अधीर होकर दीनदयाल ने पूछा।
"मैंने कह दिया कि मैं अपने वचन पर अटल हूँ।" राजो ने सहमे-से स्वर में कहा।
दीनदयाल को जिस बात का डर था वही हो चुकी थी। उन्होंने धीरे से कहा, "ठीक है पर भोला के बारे में मैंने जो सुना है उससे तो उसके साथ बँध जाने पर श्यामा सुखी नहीं रह सकेगी।"
दीनदयाल की बात से राजो का हृदय काँप उठा। उसे लगा मानो उससे बड़ी भूल हो गई है। उसने भर्राये हुये स्वर से कहा, "भोला के बारे में सुना तो मैंने भी बहुत कुछ है काका, मैं आज ही सिकोला जा कर दुर्गाप्रसाद से कह दूँगी कि यह ब्याह नहीं हो सकेगा। आपको दुःखा कर और आपकी इच्छा के विरुद्ध मैं कुछ भी नहीं करूँगी।"
राजवती की बात सुन कर दीनदयाल बहुत गम्भीर हो गये। एक ओर उनकी इच्छा थी तो दूसरी ओर दु्र्गाप्रसाद को दिया हुआ राजो का वचन, जिसके टूट जाने से उसकी जाति में उसकी प्रतिष्ठा मिट सकती थी। और भविष्य! वास्तव में उसे जानता ही कौन है। कुछ देर तक सोचने के बाद बोले, "राजो, मेरी खुशी इसी बात में है कि तुम्हारा वचन न टूटे।"
राजवती कुछ देर तक सिर नीचा किये बैठी रही। उसकी आत्मा कह रही थी 'यह सब अच्छा नहीं हुआ'। दीनदयाल के माथे पर भी चिन्ता की रेखायें उभर आईं। थोड़ी देर बाद दीनदयाल खेत जाने के लिये उठ खड़े हुये और राजवती भी अपने घर चली गई।
(क्रमशः)

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