(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
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यह टाटानगर है जिसे मजदूर आबाद किये हुये हैं। लोहे की भट्टी का भीषण ताप सह कर, खून को पसीना बनाकर, लोहे जैसे हाथों से लोहा ढ़ो कर ये निरीह मजदूर संसार को रेल की पाँत, लोहे की छड़े और अन्य उपयोगी वस्तुएं देते हैं जिनसे संसार सभ्य बने रहने का दावा करता है। आजकल भोला और श्यामवती यहीं रह रहे हैं। यहाँ आकर भोला ने परसादी के मुहल्ले और घर का पता लगाया और परसादी के पड़ोस मे ही उसे किराये से मकान भी मिल गया। परसादी सिकोला से ही भोला के स्वभाव को बहुत कुछ जान चुका था। इसलिये उसने उससे अधिक घनिष्ठता और दोस्ती नहीं बढ़ाई। हाँ, उसे श्यामवती के प्रति सहानुभूति अवश्य ही थी।
बलिष्ठ होने के कारण भोला को जल्दी ही कारखाने में नौकरी मिल गई। वह तो दिन भर कारखाने में काम करता था और श्यामवती घर का काम-काज करने के बाद कोई न कोई पुस्तक पढ़ती रहती थी। यद्यपि अन्य मजदूरों की स्त्रियाँ भी काम करने जाया करती थीं तो भी भोला श्यामा को काम करने के लिये बाहरे भेजने के पक्ष में नहीं था।
जब से वे दोनों टाटानगर आये थे तब से अब तक उन दोनों ने घर में न तो एक चिट्ठी ही भेजी थी और न कमाई की एक पाई ही। भोला तो इस विचार का था कि घर कुछ न भेजा जाय और श्यामा उसके उग्र स्वभाव के कारण विवश थी। वह नहीं चाहता था कि दुर्गाप्रसाद को उन लोगों का पता लग जावे।
कुछ दिनों तक कारखाने में काम करने के बाद भोला को एक नई लत लग गई। जलती ज्वाला के सामने काम करने के बाद उसे भयानक शिथिलता मालूम होती थी। एक दिन उसने वहाँ के एक मजदूर बुधराम, जिसका स्वभाव भी भोला के जैसा ही था, से कहा, "यार, काम करते करते तो शरीर टूटने लगता है। क्या किया जाय?"
बुधराम हँस कर बोला, "आज ही शाम को मैं तुम्हें एक ऐसा उपाय बताउँगा जिससे तुम्हारी सारी थकावट दूर हो जायेगी।"
भोला ने पूछा, "ऐसा कौन सा उपाय है?"
इस पर बुधराम ने कहा, "इतना बेचैन क्यों हो रहे हो, शाम को तो तुम्हें पता चल ही जायेगा।"
शाम को बुधराम भोला को एक मकान में ले गया, जहाँ कुछ लोग अर्द्धचेतना में लेटे हुये थे। कुछ लड़खड़ाते हुये इधर-उधर अकारण ही चल रहे थे। कुछ अपने आप बड़बड़ा रहे थे। वहाँ उन सबकी दिन भर की गाढ़ी कमाई, खून, शक्ति, स्वास्थ, बुद्धि, जीवन सब कुछ छिनता जा रहा था। भोला यह सब देख कर बुधराम से बोला, "कहाँ ले आये मुझे? चलो वापस चलें।"
बुधराम ने उत्तर दिया, यही तो वह जगह हैं जहाँ दिन भर की थकावट दूर होती है। तुम ठहरो। मैं अभी आया।"
भोला वहीं एक बेंच पर बैठ गया और बुधराम कोट-पैंट धारी कलवार या उस दूकान के दूकानदार के पास जा कर बोला, "नया पंछी लाया हूँ फाँस कर। पिंजड़ा देख कर घबरा रहा है। बोलो मेरा कमीशन दोगे या नहीं।"
"तुम्हारा कमीशन कब नहीं दिया जो ऐसा कह रहे हो" दूकानदार ने कहा।
"अच्छा भेज दो बोतल।" कह कर बुधराम भोला के पास आ कर बेंच पर बैठ गया। उसके पीछे ही दूकान का नौकर दो बोतलें ले कर आया। उनमें से एक को गिलास में डाल कर बुधराम ने भोला के देते हुये कहा, "यार, मैं तुम्हें ज्यादा पीने को थोड़े ही कह रहा हूँ। दवा के रूप में थोड़ी-सी लो, नहीं तो कारखाने की भयानक आँच में अधिक दिनों तक काम नहीं कर सकोगे।"
भोला का विवेक तो सदा से ही सोया था। उसके उद्दण्ड जीवन के मूल में क्षणिक आवेश और मूर्खता ही तो थी। बुधराम की बातों में उसे सत्यता का अंश ही अधिक मालूम हुआ। बुधराम ने बड़े प्रेम से उसका हाथ पकड़ कर उसके मुँह से गिलास लगा दिया। भोला ने प्रतिकार नहीं किया। मंत्र से बँधे हुये शैतान की तरह भोला ने एक घूँट गले के नीचे उतार ली। गले में असह्य जलन हुई और मुख कड़वाहट से भर गया। बुधराम ने तत्काल ही पापड़ का एक टुकड़ा उसके मुँह में रख दिया। इसके बाद तो भोला ने दो-तीन गिलास चढ़ाये और थोड़ी ही देर में झूम उठा। उसे लगा कि सचमुच ही उसकी थकावट दूर हो गई है। बुधराम से लड़खड़ाती जुबान में बोला, "वाह बुधराम भाई वाह! तुमने ठीक ही कहा था। मेरी स...ब थका....वट दूर हो गई है। चलो...... अब...... घ....र चलें।
बुधराम भोला से कई गुना अधिक काँइयाँ था। बोतल पर बोतल चढ़ा जाता पर डकार तक न लेता था। उसकी इस आदत में पूरी दृढ़ता आ गई थी। भोला को साथ ले वह बाहर बैठे हुये खोंचे वाले के पास आया। दोनों ने चटचटी चीजें खाईं। भोला को उन चीजों में आज नया स्वाद मिल रहा था। पैसा देने के समय बुधराम अपनी जेब टटोल कर बाहर खाली हाथ निकालते हुये बोला, "यार पैसे तो दूसरी कमीज में रह गये। अब तो इज्जत बचाने का सवाल है।"
भोला गर्व से कहने लगा, "यार बुधराम, जो टेरी इज्जट वो मेरी इज्जट। तू फिकर क्यों करता है। अभी मेरे पास बहुत पैसे हैं।" उसने एक रुपया निकाल कर खोंचे वाले के हाथ में दे दिया। दोनों ने छः आने का ही खाया था। नशे में चूर भोला बाकी पैसे माँगना भूल गया। पर बुधराम ने वे पैसे माँग कर अपनी जेब में रख लिये। इसके बाद बुधराम को भोला के घर के पास वाले चौराहे तक पहुँचा गया जहाँ से वह लड़खड़ाता-झूमता हुआ घर पहुँचा। घर का दरवाजा पार करते ही छपरी पर उसकी राह ताकती हुई वहीं खड़ी श्यामवती ने उसे संभाल लिया। वह बड़बड़ाने लगा, "नाय, नाय, मुझे छुवो मत। तुम क्या संभालोगी मुझे। मैं खुद संभल जाउँगा। अब कारखाने में काम करने में मुझे कोई थकावट नहीं होगी। कोई थका....." कहते कहते भोला बेसुध हो गया। श्यामा ने उसे पास ही बिछी हुई खाट पर लिटा दिया। वह बेहोशी की हालत में ही नींद में खो गया।
श्यामवती समझ गई कि आज भोला ने जिंदगी के और भी अधिक गंदे रास्ते पर कदम रख दिया है। भोजन ज्यों का त्यों धरा रह गया। उसने भी कुछ नहीं खाया। वह गहरी चिन्ता में डूब गई। भोलला जैसा कुछ था, था और श्यामा ने अपने आपको उसके अनुकूल बनाने का भरसक प्रयत्न भी किया था। जिन्दगी के सुख की उसने जो कल्पना की थी उस पर तो पहले ही वज्रपात हो गया था। अब नई विपत्ति सामने घोर अन्धकार की सेना लिये सामने खड़ी थी। श्यामवती खाट के पास बैठी थी। उसके उसके नेत्र लगातार आँसू बहा रहे थे। मन स्मृतियों के संसार में भटकने लगा। सबसे पहले इस विपत्ति में उसे अपनी माँ याद आई। राजवती की याद आते ही स्वाभाविक ही उसके प्रति श्यामा के मन में घृणा उत्पन्न हुई। उसने केवल अपने बिना सोचे समझे दिये हुये वचन की रक्षा के अभिमान में ही तो उसे भोला के पंजे में फेंक दिया था। क्या यह राजवती का स्वार्थ मात्र ही नहीं था जिसकी धधकती ज्वाला में बेटी के जीवन की आहुति दे दी गई थी। राजो ने दीनदयाल की भी नहीं चलने दी, नहीं तो वे ऐसा कभी नहीं होने देते। श्यामवती के स्मृति पटल पर दीनदयाल का चित्र खिंच गया। उस क्या पता था कि अब वे संसार में नहीं रहे। फिर सदाराम याद आया और उसके बाद महेन्द्र। महेन्द्र की याद आते ही वह सिर से पैर तक काँप उठी। उसका हृदय सिहर उठा। इसी बीच भोला ने करवट बदली और अर्द्धचेतना की अवस्था में उठ कर बैठ गया। उसका गला सूख रहा था। उसने पानी माँगा। श्यामवती ने तुरन्त ही गिलास भर कर पानी दे दिया जिसे भोला ने अन्तिम बून्द तक पी लिया। फिर बोला, "श्यामा, तुम अभी तक सोई नहीं हो क्या? सो जावो तुम भी।" तन्द्रा ने उस पर फिर आक्रमण कर दिया और वह नींद में खो गया। श्यामा ने न तो कुछ उत्तर ही दिया और न सोई ही। न जाने कब तक वह चिन्ता के महासागर में गोते लगाती रही और उसे पता ही न चला कि कब वह भोला के पैर के पास सो गई।
सुबह जब भोला उठा तो उसे बेहद सुस्ती मालूम हो रही थी। श्यावती पहले ही उठ कर नाश्ता बना चुकी थी। हाथ-मुँह धो कर भोला नाश्ता करने आ बैठा। अभी उसके पतन की यह पहली सीढ़ी ही थी। इसलिये वह ग्लानि से गड़ा जा रहा था। उसकी हिम्मत नहीं थी कि पिछली रात की बातों पर वह कुछ बोल सके। अवसर पाकर श्यामा बोली, "एक बात कहूँ तो बुरा तो न मानोगे?"
सुनते ही भोला का जी धक से हो गया। जिस बात का भय था वही सामने आई। वह शान्त रहा और धीरे से कहा, "कहो न।" श्यामवती कहने लगी, "तुम्हें मैं कुछ समझाऊँ यह बुद्धि तो मुझमें नहीं है। फिर भी कहती हूँ कि कल रात तुमने जो पी लिया था यह अच्छा नहीं है।" सुन कर भोला एक बार तो तिलमिला उठा। उसका मन कुछ उद्दण्डता और कुछ शान्ति के बीच झूलने लगा। उद्दण्डता इसलिये कि वह समझता था कि उसने तो केवल थकावट मिटाने के लिये ही पी थी, तो उसमें बुराई ही क्या है। और शान्ति इसलिये कि उसे गर्व हुआ कि श्यामा आखिर उसके भले के लिये ही कह रही है। उसने संयत मन से कहा, "वह तो मैंने केवल थकावट मिटाने के लिये ही पी थी।"
"लेकिन थकावट तो आप से आप ही मिट जाती।"
श्यामा की बात सुनकर भोला को अविश्वास और आश्चर्य हुआ। उसने सोचा श्यामा पढ़ी-लिखी है, शायद उसकी बात सच ही हो। फिर उसका प्रश्न था, "कैसे कह सकती हो कि थकावट आपसे आप मिट जाती।?"
"ऐसे कि शुरू शुरू में कड़ी मेहनत करने से थकावट मालूम होती है पर जब आदत पड़ जाती है तब थकावट महसूस नहीं होती। यही अपने परसादी को देखो न। वह तो कभी नहीं पीता। फिर भी कड़े से कड़े काम करता है।" श्यामा ने भोला को समझाया पर उसकी समझ में बात कुछ आई और कुछ नहीं आई। पर उसने श्याम के लिये प्रण किया कि वह अब शराब को छुयेगा भी नहीं।
(क्रमशः)
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