Tuesday, October 2, 2007

धान के देश में - 24

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 24 -

दीनदयाल के स्वर्गवास हो जाने के बाद महेन्द्र के जीवन में गहरी उदासीनता आई। वह सदाराम के साथ नागपुर चला गया क्योंकि बी। एजी। की अन्तिम परीक्षा देना अनिवार्य था अन्यथा दीनदयाल की आत्मा को शान्ति नहीं मिलती। किन्तु जब कभी महेन्द्र पुस्तक लेकर पढ़ने बैठता तब दीनदयाल की मूर्ति पन्नों मे दिखाई देती। पुस्तक से आँखें हटाकर जिधर भी देखता उधर वही सौम्य मूर्ति ही दिखती। अन्त में मन को बहलाकर उसे पढ़ाई में लगाने के लिये महेन्द्र और सदाराम ने निश्चय किया कि इतवारी जाकर अधारी से मिलें और कुछ काम करें।
उसी दिन शाम को दोनों इतवारी गये। वहाँ अधारी से भेंट हुई। अधारी को उनसे मिलने की एक ओर जहाँ बेहद खुशी हई वहीं महेन्द्र के घर का दुःख सुनकर वह दुःखी भी हुआ। जब अधारी से कहा गया कि छत्तीसगढ़ के उन निवासियों के लिये अच्छे काम करने की योजना बनाई जाय और व्यावहारिक रूप से कुछ किया जाय तब अधारी उत्साहपूर्वक तुरन्त ही राजी हो गया। योजना के अनुसार सबसे पहले इतवारी में रहने वाले छत्तीसगढ़ के सभी मजदूरों, हमालों और दूसरे काम करने वाले स्त्री-पुरुषों की बैठक बुलाई गई। गिनती करने पर कोई पाँच सौ निकले। सबने एक स्वर और एक मत से अधारी को ही अपना मुखिया चुना। यह तय किया गया कि महेन्द्र जो कुछ भी कहेगा वह आँख मूँद कर माना और किया जावेगा-कोई उसमें जरा सा भी मीन मेख नहीं निकालेगा।
सबसे पहले रामायण मण्डली और भजन मण्डली का संगठन किया गया। बहुत कम लोग पढ़े-लिखे मिले जो रामायण का पाठ कर सकते थे। महेन्द्र और सदाराम ने स्वयं उत्साह दिखाया और उन सीधे-सादे ग्रामीण मजदूरों को प्रोत्साहन दिया। रोज शाम को सामूहिक रूप से कथा होने लगी। अब की बार महेन्द्र और सदाराम होस्टल में न रह कर किराये का मकान लेकर रहते थे जिससे वे रामायण में सहज ही सम्मिलित हो जाते थे। प्रति शनिवार की रात नौ बजे से ग्यारह बजे तक खंजरी और इकतारा बजा कर भजन किया जाने लगा। परिणाम यह हुआ कि 'स्वधर्म' के प्रति उन लोगों की रुचि दृढ़ होती गई और अन्य धर्मों के प्रति भी वे स्वधर्म को न छोड़ते हुये सम्मान का भाव रखने लगे।
इतवारी के जिस क्षेत्र में वे रहते थे वहाँ उनके लिये कोई सार्वजनिक स्थान नहीं था। इसलिये सब आयोजन अधारी के घर होता था। महेन्द्र की इच्छा थी कि एक सार्वजनिक स्थान बन जावे तो बहुत अच्छा हो। उस बस्ती में एक खण्डहर था। महेन्द्र की दृष्टि उस पर थी। पता लगा कि वह किसी सेठ का था और वह उस खण्डहर की जमीन को बेचना भी चाहता था। उससे बात करने के पहले महेन्द्र ने अधारी को सार्वजनिक स्थान के विषय में अपना विचार बताया। दूसरे ही दिन अधारी ने सब लोगों की बैठक बुलाई और उनके सामने यह विचार रखा। सबने पसंद किया और अपनी अपनी शक्ति के अनुसार कुछ न कुछ चन्दा दिया। तो-तीन दिनों में ही पाँच सौ रुपये इकट्ठे हो गये। अब महेन्द्र ने सेठ से बात की और दो सौ में सौदा पक्का हो गया। रजिस्ट्री कराई गई और जमीन मजदूरों की हो गई। सबके निश्चय के अनुसार खण्डहर का बचा हुआ भाग हटाकर जमीन साफ की गई। वहाँ एक चबूतरा बनाकर उसके एक किनारे हनुमान जी के छोटे से मन्दिर का निर्माण किया गया। चबूतरे के चारों ओर दीवाल का घेरा बना कर सामने की ओर दरवाजा रखा गया। चबूतरे पर चारों ओर खम्भे गड़ा कर टीन के छत बना दी गई। अब भजन-रामायण और बैठक वहीं होने लगी।
इतना सब कुछ करते हुये भी महेन्द्र नियमित रूप से अपनी पढ़ाई करता था। उसे अपने स्वर्गीय दादा दीनदयाल पर बड़ा गर्व था। वह उनकी उदारता और दयालुता को अब भली-भाँति समझ चुका था और उनके चरण-चिह्नों पर चलना चाहता था। इस प्रकार का सार्वजनिक कार्य करने से उसे ऐसा लगता था कि दीनदयाल की आत्मा अब प्रसन्न है और उसे शान्ति मिल रही है। साथ ही अब शोक, मोह, दुश्चिंता भी उसके हृदय से भाग गई थी। उसका मन पढ़ने में खूब लगता था। अपने दादा की भाँति वह भी गीता का स्वाध्याय करने लगा था।
एक दिन संध्या का समय था। सूर्यास्त प्रायः हो चुका था और कहीं कहीं बत्तियाँ भी जला दी गई थीं। सदाराम अकेले ही इतवारी आया। वह सीधे हनुमान जी के मन्दिर में गया। हाथ जोड़ कर प्रणाम कर ही रहा था कि किसी ने मन्दिर की घण्टी बजाई। सदाराम ने पीछे मुड़ कर देखा तो सत्रह-अठारह वर्ष की तरुणी थी। वह उसे देखते ही रह गया। उस तरुणी ने भी सदाराम को देखा और उसकी अपलक आँखें उसके चेहरे पर रुक गई। दो क्षण बाद ही दोनों की दृष्टि हनुमान जी की सुन्दर मूर्ति को श्रद्धा से निहार रहीं थीं।
(क्रमशः)
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