Wednesday, September 5, 2007

शबरी के बेर

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित खण्ड-काव्य)

भारत के दक्षिण भागों में,
फैले थे बीहड़ वन-खण्ड।
दण्डक-वन कहलाते थे वे,
जीव-जन्तु थे वहाँ प्रचण्ड॥1॥

छा कर पत्तों की कुटी वहाँ,
ऋषि-मुनि सुख से रहते थे।
भक्ति तपस्या परमेश्वर की,
निशिदिन सब मिल करते थे॥2॥

बुढ़िया भिल्लिनि भी एक वहाँ,
मुनियों के सँग रहती थी।
बेच-बेच कर लकड़ी वन की,
निज-निर्वाह वह करती थी॥3॥

बतला सकता है क्या कोई,
क्या था उस भिल्लिनि का नाम?
सुनो उसे शबरी कहते थे,
जपती सदा राम का नाम॥4॥

शूद्रा थी, पर भक्त बड़ी थी,
बूढ़ी थी और बाल पके थे।
लटक रही थी मुख पर झुर्री,
युग कपोल भी पिचके थे॥5॥

आश्रम के सब बच्चे उसको,
"नानी-नानी" कहते थे।
बड़े प्रेम से उसकी बातें,
हँसी-खुशी से सुनते थे॥6॥

बूढ़ी होने पर भी उसकी,
ताकत ज्यों की त्यों ही थी।
इसीलिये कामों में उसके,
बिजली की-सी फुर्ती थी॥7॥

सुना एक दिन जब शबरी ने,
'वन में आवेंगे श्री राम।
मुनयों के सँग उसको भी प्रभु,
दर्शन देंगे ललित ललाम'॥8॥

उस दिन से गाया करती थी,
"मेरे घर आवेंगे राम।
सँग में सीता लक्ष्मण होंगे,
साधु वेश में अति अभिराम॥9॥

देखूँगी मैं उनको छक कर,
जन्म सुफल निज जानूंगी।
पूजा करके भोग लगा कर,
पद रज ले सुख मानूंगी"॥10॥

लगी इकट्ठा करने तब से,
वन के मीठे-मीठे बेर।
बड़े प्रेम से प्रभु को देने,
बड़े-बड़े वे सुन्दर बेर॥11॥

बेर तोड़ती थी पेड़ों से,
फिर करती थी सोच-विचार।
"मीठे होंगे या खट्टे ये,
कैसे हो मुझको इतबार?"॥12॥

एक युक्ति झट सोची उसने,
'चख कर क्यों न करूँ पहचान।
चखने से से ही हो सकता है,
खट्टे और मीठे का ज्ञान'॥13॥

बस! फिर क्या था उन बेरों को,
चख कर रखना शुरू किया।
रक्खा मीठे बेरों को ही,
खट्टे को सब फेंक दिया॥14॥

इधर अयोध्या में दशरथ ने,
सोचा-"अब मैं वृद्ध हुआ।
राज्य सौंप दूँ रामचन्द्र को,"
सोच नृपति मन-मग्न हुआ॥15॥

किन्तु कैकेयी ने तिकड़म कर,
माँगे दशरथ से दो वर।
पहले में-'राजा भरत बने-
राज-दण्ड को धारण कर'॥16॥

फिर माँगा वरदान दूसरा-
'निज राज-वेश को तज कर-
राम चला जावे दण्डक वन,
साधु-वेश को धारण कर'॥17॥

लक्ष्मण-सीता सहित राम तब,
पूज्य पिता की आज्ञा से।
रोते सबको त्याग चले वन,
पावन पुरी अयोध्या से॥18॥

छाया गहरा शोक अवध में,
सुख को दुःख ने जीत लिया।
अन्धकार ने पुर-प्रकाश पर,
महा भयानक राज्य किया॥19॥

पर्ण कुटी से सीता जी का,
रावण ने अपहरण किया।
चुरा दुष्ट ने वैदेही को,
प्रभु को दारुण कष्ट दिया॥20॥

लक्ष्मण के सँग सीता जी के,
अन्वेषण में राम चले।
कण्टक-मय पथरीले पथ पर,
सहते दोनों घाम चले॥21॥

समाचार शबरी ने पाये,
आश्रम ढिग आये हैं राम,
दौड़ी आई मारग में झट,
तजकर आश्रम के सब काम॥22॥

लिपट गई पैरों से प्रभु के,
हाँफ रही थी वह प्रति क्षण।
आँसू नयनों से बहते थे,
डूब रहा था सुख में मन॥23॥

उठा लिया झट उसे राम ने,
और अभय वरदान दिया।
रामचन्द्र ने पतित जनों का,
ऐसा पावन मान किया॥24॥

बोली प्रभु से गद् गद होकर,
"प्रभु मैं भिल्लिनि हूँ अति नीच।
किन्तु पुण्य से पूर्व जन्म के,
रहती हूँ मुनियों के बीच॥25॥

दर्शन की आशा से मैंने,
अब तक घट में प्राण रखे।
धन्य-धन्य नयनों को मेरे,
जिनने सुन्दर रूप लखे॥26॥

मेरे आश्रम तक न चलोगे,
क्या जगदीश्वर दीनानाथ?
चल कर पावन कर दो मुझको,
अनुज लखन को लेकर साथ"॥27॥

विहँसे प्रभु लक्ष्मण को लख कर,
लक्ष्मण भी तब मुसकाये।
प्रेम भरे, मीठे, शबरी के,
वचन राम को अति भाये॥28॥

शबरी ले सानन्द राम को,
आ पहुँची निज आश्रम में।
हुआ सफल था जीवन उसका,
मुक्ति मिली थी जीवन में॥29॥

पद-प्रक्षालन कर दोनों के,
बैठा कुश के आसन में।
पूजा की जी भर कर उसने,
ललक-ललक छिन-छिन मन में॥30॥

बोली, "भोग लगाने को मैं,
लेकर आती हूँ कुछ बेर।
चले न जाना, हाँ, देखो तुम,
यदि हो जावे मुझको देर॥31॥

इतना कह कक्ष दूसरे में,
गई तुरत हँसती-हँसती।
और बेर की हाँड़ी लेकर,
आई झट गरती पड़ती॥32॥

पत्तल पर रख दिये बेर वे,
और लगी कहने शबरी-
"मीठे हैं सब खा लो इनको,
आवेदन करती शबरी॥33॥

बोली वह फिर बड़े गर्व से,
"खट्टा इनमें एक नहीं।
देख चुकी हूँ चख कर इनको,
मेरा रहा विवेक सही"॥34॥

खाये राघव ने बेर सभी,
प्रेम-भाव से सने हुये।
आग्रह कर-कर रही खिलाती,
वश में उसके राम हुये॥35॥

खाते-खाते मुसकाते थे,
करते बेरों का गुण-गान।
कैसे मीठे हैं सुन्दर भी,
मन के भावों के हैं दान॥36॥

सौभाग्य उदित था शबरी का,
मिला रंक को सुर-तरु था।
ईश्वर ही वश में थे उसके,
खेल भक्ति का अनुपम था॥37॥

जीवन सार्थक किया राम ने,
नीच भीलनी शबरी का।
मिटे कष्ट सब जन्म-मरण के,
दिव्य रूप था शबरी का॥38॥

बड़े प्रेम से खाते थे प्रभु,
करते सीता जी की याद।
भाव भरे जूठे बेरों में,
मिला उन्हें अमृत का स्वाद॥39॥

खिला-खिला कर बेर उन्हें वह,
फूली नहीं समाती थी।
देख-देख मुख-चन्द्र राम का,
बनी चकोरी जाती थी॥40॥

3 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

"बोली वह फिर बड़े गर्व से,
"खट्टा इनमें एक नहीं।
देख चुकी हूँ चख कर इनको,
मेरा रहा विवेक सही"

अनुपम सरलता शबरी की. न केवल चखा, वरन कहने में भी सन्कोच नहीं - दुराव नहीं!
बहुत अच्छा लगा!

Sanjeet Tripathi said...

सुंदर!!

MD. SHAMIM said...

ati sunder