Thursday, September 6, 2007

कलंक का अंत

(रचयिता श्री हरिप्रसाद अवधिया)

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"गाड़ियाँ एकदम रोक दो।"

गम्भीर और कड़कती हुई आवाज चांदनी रात के वक्षस्थल पर थिरक उठी! समस्त वन-प्रांत गूँज उठा। वह ऊँची-नीची पथरीली पहाड़ी काँप सी गई! पर्वत-मालाओं में गम्भीरतम प्रतिध्वनि हुई!

पहाड़ी मार्ग के दोनों ओर घनघोर घने जंगल थे। विशाल वृक्ष स्तब्ध-से खड़े थे। उनके चौड़े पत्तों पर चन्द्र देव की स्निग्ध मुसकान मचल रही थी। सामने की पहाड़ी में बड़ी-सी खोह मुँह बाये वन को आतंकित कर रही थी। पहाड़ी मार्ग मालाकार पर्वत की परिक्रमा करता हुआ-सा सुदूर तक दृष्टिगत होकर झुरमुट में विलीन सा हो गया था। वन की बीहड़ता का सुनसान मृत्यु की विभीषिका से भी कराल हो रहा था! निशीथ के एकाकीपन में उस वन-खण्ड में जीवन का सर्वथा अभाव सा प्रतीत हो रहा था किन्तु दो बैलगाड़ियाँ मन्थर गति से चली जा रही थीं। उनकी गति शव-यात्रा की भाँति भयावह, सतर्क और गम्भीर थी! गाड़ीवान सतर्क थे कि गाड़ियों की घर्षण ध्वनि अल्पतम ही हो। सतर्क नेत्रों तथा बोझिल हृदय से वे इधर-उधर देख लिया करते थे किन्तु सभी प्रकार की सतर्कता का आश्रय निरर्थक सिद्ध हुआ। जिस बात का डर था वही हो गई। किसी के कर्कश स्वर से वन गूँज उठा- "गाड़ियाँ एकदम रोक दो।" किन्तु प्रभाव कुछ भी न पड़ा। गाड़ियाँ बेतहाशा दौड़ाई जाने लगीं। बैल जी तोड़ कर भागे। गाड़ियाँ असह्य रूप से खड़खड़ाने लगीं। गाड़ीवान बैलों पर कोड़े मार रहे थे। गाड़ी के भीतर के व्यक्ति भी सावधान हो गये थे। हाँफते हुये बैलों के पैरों में पंख लग गये थे।

"गाड़ियाँ रोको नहीं तो पछताओगे।"

फिर वही कड़कती हुई आवाज और वही निरर्थक प्रभाव! गाड़ियों की गति अधिकतम थी। अधिक बढ़ा हुआ हुआ भय कभी-कभी साहस को निःसीम कर देने में सफल होता है। गाड़ियों का बेतहाशा भागना भय-जनित साहस का मूर्तिमान स्वरूप ही था।

ये गाड़ियाँ किस हालत से भी आगे नहीं बढ़ाई जा सकतीं-" कहते-कहते कर्कश गर्जन से गाड़ियों को रोकने का आदेश देने वाले व्यक्ति और उसके साथियों ने खोह द्वार के आसपास वाले वृक्षों की घनी छाया में फैले अन्धकार में से बन्दूक दाग दी।

'धाँय, धाँय, धाँय'

निर्मम रक्त की प्यासी ध्वनि ने वन को कम्पित कर दिया! गोलियों के साथ-साथ उनकी बन्दूकें चिनगारियां उगलने लगीं। उधर गाड़ियाँ रुक गईं और गोलियों का उत्तर गोलियों से दिया जाने लगा। दोनों ओर से गोलियों की बौछारें हो रही थीं। घायल कराह-कराह कर दम तोड़ रहे थे। बैलों ने रस्सियाँ तोड़ डालीं और दूर जा भागे। इधर बन्दूकें दागी ही जा रही थीं और उधर गाड़ी वालों की गोलियाँ शांत हो चुकी थी। यह देखकर इधर वालों ने भी गोली चलाना बन्द कर दिया और पेड़ों की छाया से बाहर निकल कर सिंह की चाल से गाड़ियों की ओर कदम बढ़ाये।

उन लोगों में एक हृष्ट-पुष्ट प्रौढ़ व्यक्ति था किन्तु उसकी प्रौढ़ता भी युवक की सी शक्ति बिखेर रही थी। उसके बल में बाल भर भी बल नहीं पड़ने पाया था। विशाल वक्ष, रोबीला चेहरा, ऐंठी हुई मूछें, चमकीली आँखें, चौड़ा ललाट था उसका। विजय गर्व उसके ओंठों पर मुस्कुरा रहा था। कंधे पर बन्दूकें रखी हुई उसकी टोली दोनो बैलगाड़ियों के पास पहुँची। उसने साथियों से गरज कर कहा, "पहले मुझे देख लेने दो। तब तक कोई कुछ न करे।" फिर उसने चमकती आँखों से देखना प्रारम्भ किया। गाड़ियों के पास पड़ी हुई रक्तरंजित लाशें ऐश्वर्य की चमक बिखेर रही थीं। सभी मृत व्यक्ति धनी जान पड़ते थे। उनके शरीरों पर बेशकीमती कपड़े थे, हाथों में सोने की चेन वाली कलाई घड़ियाँ और उँगलियों में हीरे की अँगूठियाँ थीं। सबके सब मौत की नींद सो रहे थे।

"दिलेर सिंह से मुकाबला करने चले थे। इनको मौत ही इन्हें यहाँ ले आई थी--" कहते हुये वह व्यक्ति मुर्दों को देखने में फिर व्यस्त हो गया। दिलेर सिंह ही उसका नाम था। वह अपनी उस टोली का सरदार था। आसपास के इलाके में डाकू दिलेर सिंह से लोग काल की भाँति डरते थे। साथ ही दिलेर सिंह ने अपने साथियों को भी अनुमति दे दी और वे कीमती वस्तुयें बटोरने में लग गये।

दिलेर सिंह तीन लाशों को देखने के बाद चौथी और अन्तिम लाश के पास पहुँचा। वह एक सुन्दर युवती की लाश थी जिसके घुंघराले बाल, कजरारी आँखें, गोल कपोल और मोहक चिबुक पर मौत की भयानकता गहरी होती जा रही थी। उसके हाथ अब भी बन्दूक को जकड़े हुये थे। स्पष्ट था कि गोली चलाने में वह भी तीनों पुरुषों का साथ दे रही थी और अन्त में उसे भी काल के गाल में समाना पड़ा था।

मृत व्यक्तियों को छोड़कर दिलेर सिंह एक गाड़ी के भीतर घुसा। उसमें दो 'ट्रंक' रखे थे। एक ट्रंक के ऊपर ढाई तीन वर्ष का बालक मूर्छित पड़ा था। दिलेर सिंह ने लपक कर उसे उठा लिया और हृदय से लगाकर बार-बार उसका मुख चूमने लगा। वह भूल सा गया कि बालक बेसुध है। अचानक उसकी बेसुधी की याद आते ही वह उसे लेकर पास ही कल-कल कर बहते हुये झरने के पास गया और शीतल जल के छीटों से उसकी मूर्छा दूर करने का प्रयत्न करने लगा। झरने के चारों ओर स्निग्ध चांदनी में इठलाती हुई प्रकृति मुस्कुरा रही थी। चारों ओर से उन झरने को घेरने वाली पर्वत माला के सन्नाटे में जीवन स्पन्दन का आभास हो रहा था। निर्झर की संगीत-लहरी नव-जीवन का सन्देश दे रही थी। बालक ने धीरे से आँखें खोलीं, चेतना का पुनरागमन हुआ और जीवन लगराने लगा। दिलेर सिंह का दिल खुशी से उछलने लगा। कौन कह सकता था कि कठोर मुद्रा वाले डाकू दिलेर सिंह का हृदय वात्सल्य की कोमलता से लहराता हुआ होगा। चेतना प्राप्त होते ही बालक के कंठ से आकुल स्वर निकला- "माँ!" और अपने आपको अपरिचित की भुजाओं में पाकर वह रोने लगा। दिलेर सिंह उसे चुप कराने में अपने हृदय की कोमलता उंडेल रहा था पर बालक चुप नहीं हुआ। उसे सहलाते हुये दिलेर सिंह उसे उस महिला की लाश के पास ले आया। माता को देखते ही बच्चा चुप होकर उसकी ओर लपकते हुये उतरने का प्रयत्न करने लगा। दिलेर सिंह ने उसे संभाल कर पुचकारते हुये कहा, "बेटा, तेरी माँ सो रही है। चल मेरे साथ। फिर उसके पास आवेंगे। हम तुम्हें दूध देंगे, मिठाई देंगे।"

बालक प्रेम-पूर्ण आश्वासन पाकर बीच-बीच में सिसकियाँ लेते हुये चुप हो गया। उसे क्या पता था कि उसकी जननी चिर निद्रा में निमग्न हो गई है। दिलेर सिंह बालक को लेकर धीरे-धीरे गुफा की ओर चला जा रहा था। उसके साथी स्तब्ध, आश्चर्यचकित किन्तु बालक की भोली अनजान छवि के कारण मुग्ध और प्रसन्न थे।

नभ में धुंघले प्रकाश की मोहक छाया बिखर रही थी। पूर्व में उषा की मुसकान अठखेलियाँ करने लगी थी। कंकुम-सी उसकी लाल साड़ी फहरा रही थी। पवन की सुगन्धित श्वाँस से कलियाँ अलसाकर अधमुंदी आँखों से देख रही थीं। दिलेर सिंह के हृदय में उषा की लालिमा सी आनन्द-लहरियाँ हिलोरें ले रही थीं, फूल की सुगन्ध-सी स्निग्ध भावना थिरक उठी थी। वह बार-बार बालक का गुलाब-सा मुख चूम रहा था।

(क्रमशः)

2 comments:

संजीव कुमार said...

प्रकृति को बहुत ही अच्छ तरह से पेश किया है.

धन्यवाद

MD. SHAMIM said...

uttam