Sunday, November 22, 2009

महन्त जी कैसे हैं? ... कोई नई रख ली है या ... उर्फ कहानी सम्पन्न महन्त और उसके प्यारे कुत्ते की

धन-धान्य से परिपूर्ण एक मठ था। अत्यन्त ही श्री सम्पन्न! मठ का महन्त ही मठ की सम्पत्ति का स्वामी होता है अतः उस मठ के महन्त जी भी धनकुबेर ही थे।

उस मठ में बाहर से आनेवाले साधु महात्माओं और श्रद्धालुजनों के ठहरने के लिये एक धर्मशाला थी। एक बार तिब्बत से एक लामा उस मठ में दर्शन के लिये पधारे और वहाँ के धर्मशाला में एक रात के लिये ठहर गये। बातों ही बातों में लामा ने महन्त जी को बताया कि उनके देश में एक संस्था ऐसी है जो कुत्तों को भी इंसान की तरह बोलना सिखा देती है। महन्त जी ने भी एक कुत्ता पाल रखा था। उस कुत्ते को वे बहुत चाहते थे। एक प्रकार से वह कुत्ता महन्त जी की कमजोरी थी। महन्त जी की इच्छा हुई कि अपने कुत्ते को बोलना सिखा दें। उन्होंने लामा से तिब्बत की उस संस्था के विषय में समस्त जानकारी ले ली।

कुत्ते को बोलना सिखाने का कोर्स तीन माह का था और फीस बड़ी तगड़ी थी, समझ लीजिये कि दस लाख रुपये। दूसरे दिन महन्त जी ने अपने प्रिय शिष्य को बुला कर कुत्ता उसके हवाले किया, फीस और दिगर खर्चा-पानी के लिये रकम दी और कुत्ते को बोलना सिखा कर वापस ले आने की आज्ञा दे दी।

महन्त जी का वह चेला 'चेला' कम और 'चालू' ज्यादा था। कुत्ते को लेकर वह तिब्बत न जाकर सीधे अपने पसंद के महानगर में जा पहुँचा। वहाँ पहुँचते ही उसने कुत्ते को मार कर उससे पीछा छुड़ाया और खूब ऐश के साथ समय बिताने लग गया।

तीन महीना बीत जाने पर नियत समय में वह अकेले फिर से वापस महन्त जी के पास मठ में पहुँच गया।

उसके साथ कुत्ते को न देखकर महन्त जी ने पूछा, "क्यों, कुत्ता कहाँ है? उसने बोलना सीखा कि नहीं?"

चेले ने कहा, "गुरूजी! आपका कुत्ता तो बहुत बुद्धिमान निकला और बहुत अच्छी तरह से बोलना सीख गया। वह भी आपसे उतना ही प्यार करता था जितना कि आप उसे। जब मैं उसे ले कर वापस आ रहा था तो उसको आपकी ही चिन्ता थी। रास्ते में उसने मुझसे पूछा था कि महन्त जी कैसे हैं? कोई नई रख ली है या उसी बुधियारिनबाई से काम चलाते हैं?"

फिर चेले ने रोनी सूरत बनाकर आगे कहा, "मैंने सोचा कि कुत्ता तो कुत्ता है, अगर मठ में सभी से यही पूछता फिरेगा तो गुरूजी की कितनी बदनामी होगी। इसीलिये मुझे उसे मार डालना पड़ा।"


चलते-चलते

संस्कृत के प्राध्यापक ने कक्षा मे विद्यार्थियों से निम्न श्लोक का अर्थ पूछाः

त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानसि कुतो मनुष्यः॥

एक विद्यार्थी ने यह अर्थ बताया, "(त्रिया चरित्रं अर्थात्) त्रिया के चरित्र और (पुरुषस्य भाग्यं अर्थात्) पुरुष के भाग्य को (देवो न जानसि अर्थात्) देवता भी नही जान सकते (कुतो मनुष्यः अर्थात्) फिर मनुष्य तो कुत्ता है।"

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दो मक्खियाँ फिल्म देख कर निकलीं और एक ने दूसरी से 'आटो कर लें या तांगा' के तर्ज में पूछा, "अब घर जाने के लिये आदमी कर लें या कुत्ता?"


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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः

तारा का विलाप - किष्किन्धाकाण्ड (6)

8 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

हा-हा... मजेदार वाकया अवधिया साहब !

शिवम् मिश्रा said...

वाह जी वाह क्या क्या बताते हो आप भी !!
आनंद आ गया पढ़ कर !

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

hahahhaahaha.......... chela bahut hi syaana tha.....

mazaa aa gyaa .....

राज भाटिय़ा said...

अवधिया जी क्या बात है, मजे दार जी, यह चेला अपना ताऊ तो नही था? ओर चलते चलते भी मजे दार

Khushdeep Sehgal said...

अवधिया जी,
जिस गुरु का चेला इतना होनहार हो उसे मोक्ष के लिए तपस्या की ज़रूरत क्या है...

ये आपकी दोनों मक्खियां हो न हो मेरी आज की पोस्ट वाली फ्लाई ही होंगी...वैसे आदमी या कुत्ता...दोनों में फर्क
ही क्या है...

जय हिंद...

प्रवीण said...

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आदरणीय अवधिया जी,

अच्छा हुआ चेले ने कुत्ते को मार दिया नहीं तो बजाय यह पूछने के कि "महन्त जी कैसे हैं? कोई नई रख ली है या उसी बुधियारिनबाई से काम चलाते हैं?" कहीं महन्त जी से यह पूछ बैठता कि चेले की गैरमौजूदगी में बुधियारिन बाई ने किस से काम चलाया तो महन्त जी तो जीते जी मर ही जाते।

"त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानसि कुतो मनुष्यः॥"

इसका अर्थ मेरे अनुसार तो यह है " स्त्री के चरित्र को देख पुरूष भाग गया, देवता तक यह नहीं जानते कि मनुष्य कहाँ गया।"... :)

आओ 'शाश्वत सत्य' को अंगीकार करें........प्रवीण शाह

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

ये महन्त जी तो बडे पहुँचे हुए निकले...ओर चेला तो गुरू का भी गुरू ।

चलते चलते में लडके नें कुछ गलत तो नहीं कहा....हो सकता है कि ऎसा उसने विवाहित पुरूष के बारे में कहा हो कि " मनुष्य तो कुता है " :)

Murari Pareek said...

हा..हा.. सचमुच चेला बहुत चालाक था!!!