Thursday, November 26, 2009

"बिल्कुल मुफ्त" याने कि लोगों को लूटने के लिये सबसे बड़ा हथियार

फ्री, मुफ्त, फोकट जैसे शब्द अचूक हथियार हैं लोगों का आकर्षित करने के लिये। "बिल्कुल मुफ्त" पर लोगों का ध्यान बरबस ही चला जाता है।

अब मुफ्त में मिलने वाली चीज को भला कौन छोड़ना पसंद करेगा? वो कहते हैं ना "माले मुफ्त दिले बेरहम"।

किन्तु इस मुफ्त पाने के चक्कर में हम लोगों को कितना लूटा जाता है यह बहुत कम लोगों को ही पता होगा।

आप एक साबुन खरीदने जाते हैं। दुकानदार आपको बताता हैः

दो साबुन खरीदने पर एक साबुन बिल्कुल मुफ्त!

कितना खुश हो जाते हैं आप कि एक साबुन आपको मुफ्त मिल रहा है और आप एक के बजाय तीन साबुन खरीद लेते हैं।

अब मान लीजिये एक साबुन का दाम पन्द्रह रुपये हैं तो दो साबुन के दाम अर्थात् तीस रुपये में आपको तीन साबुन मिलते हैं। जरा सोचिये, साबुन बनाने वाली कम्पनी बेवकूफ तो है नहीं जो कि बिना किसी लाभ के साबुन बेचेगी। तीस रुपये में तीन साबुन बेचने पर भी उसे लाभ ही हो रहा है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि एक साबुन का मूल्य मात्र दस रुपये हैं। तो इस हिसाब से कम्पनी को साबुन का दाम पन्द्रह रुपये से कम करके दस रुपये कर देना चाहिये। पर कम्पनी दाम कम न कर के आपको एक मुफ्त साबुन का लालच देती है और आप लालच में आकर एक साबुन के बदले तीन साबुन खरीद लेते हैं जबकि दो अतिरिक्त खरीदे गये साबुनों की आपको फिलहाल कतइ आवश्यकता नहीं है। यदि कम्पनी ने दाम कम कर दिया होता तो आप दस रुपये में एक ही साबुन खरीदते और बाकी बीस रुपये का कहीं और सदुपयोग करते। इस तरह से दाम न घटाने का कम्पनी को एक और फायदा होता है वह यह कि यदि आप केवल एक साबुन खरीदेंगे तो आपको पन्द्रह रुपये देने पड़ेंगे। इस प्रकार से सिर्फ एक साबुन खरीदने पर मुनाफाखोर कम्पनी आपके पाँच रुपये जबरन लूट लेगी। बताइये यह व्यापार है या लूट?

भाई मेरे, यदि साबुन बिल्कुल मुफ्त है तो मुफ्त में दो ना, चाहे कोई दो साबुन खरीदे या ना खरीदे। ये दो साबुन खरीदने की शर्त क्यों रखते हो?

"एक साबुन खरीदने पर एक शैम्पू बिल्कुल फ्री!" जैसे स्कीम्स भी मात्र आपको लूटने का ही तरीका है।

विडम्बना तो यह है कि अपनी गाढ़ी कमाई की रकम को लुटाने के लिये हम सभी मजबूर हैं क्योंकि सरकार ऐसे मामलों अनदेखा करती रहती है। इन कम्पनियों से सभी राजनीतिक दलों को मोटी रकम जो मिलती है चन्दे के रूप में।

इंटरनेट में भी ये फ्री शब्द अपना खूब जादू चलाता है, बिल्कुल फ्री ईबुक, बिल्कुल फ्री डाउनलोड जैसे कई फ्री मिलेंगे आपको। एक बार आप इस फ्री के चक्कर में पड़े कि हमेशा के लिये आपको अपने मेलबॉक्स मे विज्ञापन वाले ईमेल्स को झेलते रहना होगा। गनीमत है कि ये बीमार अभी तक अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में ही है, हिन्दी अभी इससे बचा हुआ है। किन्तु एक बार हिन्दी व्यावसायिक हुई नहीं कि ये बीमारी भी तत्काल फैल जायेगी।

सच बात तो यह है कि फ्री या मुफ्त में कोई किसी को कुछ भी नहीं देता। किसी जमाने में पानी मुफ्त मिला करता था पर आज तो उसके भी दाम देने पड़ते हैं।

यदि कोई कुछ भी चीज मुफ्त में देता है तो अवश्य ही उसका स्वार्थ रहता है उसमें।

चलते-चलते

ट्रेन में एक पढ़े लिखे शहरी सज्जन और एक देहाती साथ साथ बैठे थे। शहरी सज्जन का टाइम पास नहीं हो पा रहा था इसलिये उसने देहाती से कहा कि कुछ बातचीत करो यार!

देहाती बोला, "मैं भला आपसे क्या बातचीत कर सकता हूँ? मैं तो गँवार हूँ और आप पढ़े लिखे।"

"तो कुछ पहेली ही हो जाये, पर पहेली शर्त के साथ होगी" शहरी ने कहा।

देहाती फिर बोला, "साहब आप मुझसे ज्यादा बुद्धिमान हैं इसलिये यदि मैं कोई पहेली पूछूँगा और आप नहीं बता पायेंगे तो आपको मुझे सौ रुपये देने होंगे। पर जब आप पहेली पूछेंगे और मैं नहीं बता पाउँगा तो मैं आपको पचास रुपये ही दूँगा।"

शहरी मान गया और बोला, "अच्छा तो तुम्हीं शुरू करो।"

"वह कौन सी चिड़िया है जो उड़ती है तो उसके पंख आसमान में होते हैं और पैर जमीन पर?"

बहुत सोचने पर भी शहरी को जवाब नहीं सूझा इसलिये उसने देहाती को सौ रुपये देते हुए कहा, "मैं हार गया भाई, लो ये सौ रुपये और बताओ कि वो कौन सी चिड़िया होती है?"

सौ रुपये जेब में रख कर वापस पचास का नोट शहरी को देते हुए देहाती बोला, "मैं भी नहीं जानता, ये लीजिये आपके पचास रुपये।"

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दुकानदार के पास एक देहाती पहले ग्राहक के रूप में आ पहुँचा।

"ये साफा कितने का है?" देहाती ने पूछा।

"चालीस रुपये का।" दुकानदार ने कहा।

देहाती को गाँव से निकलते समय गाँव के सयाने ने समझाया था कि शहर वाले गाँव वालों को लूट लेते हैं। बिना मोलभाव किये कोई सामान मत लेना। इसलिये उसने दुकानदार से कहा, "बीस रुपये में दोगे तो दो।"

दुकानदार का नियम था कि पहले ग्राहक को वापस नहीं जाने देना है, भले ही घाटा खाना पड़े। इसलिये वह बोला, "ठीक है, बीस में ही ले लो।"

देहाती को लगा कि शायद उसने बीस रुपये में माँग कर गलती कर दी है। उसने फिर कहा, "नहीं बीस रुपये में मँहगा है, दस में देते हो तो दो।"

"ठीक है भाई, दस में ही ले लो।"

देहाती को सयाने की बात फिर से याद आ गई और उसने सोचा कि दस रुपये में ये साफा देकर दुकानदार मुझे लूट रहा है। इसलिये उसने कहा, "नहीं मैं तो इसे पाँच रुपये में लूँगा।"

अब दुकानदार ने झल्ला कर कहा, "मेरा नियम है कि मैं पहले ग्राहक को खाली नहीं जाने देता इसलिये भाई मेरे, तू अपने पाँच रुपये भी अपने पास रख और इसे मुफ्त में ले जा।"

"तो फिर दो साफा देना।"

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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः

वानरों को सीता की खोज का आदेश - किष्किन्धाकाण्ड (10)

8 comments:

संगीता पुरी said...

'मुफ्त' पर आपने जो आलेख लिखा .. वह बगडे स्‍तर पर व्‍यावसायिक मानसिकता रखनेवालों के लिए ही है .. छोटे मोटे दुकानदार भी कुछ दिन उधार देकर आने दुकान को समाप्‍त कर देते हैं .. बौद्धिक मानसिकता रखनेवाले तो सबकुछ मुफ्त में लुटा देते हैं .. और हमारे आपके जैसे ब्‍लागर ब्‍लागिंग में मुफ्त ही तो अपने ज्ञान का प्रदर्शन किए जा रहे हैं .. आपके दोनो चलते चलते पढकर यह गलतफहमी दूर हुई कि शहरी ही गांववालों को बेवकूफ बना सकते हैं !!

Khushdeep Sehgal said...

अवधिया जी,
हम हिंदुस्तानियों को फ्री में कुछ भी मिल रहा हो उसे लेने का चस्का है...मल्टीनेशन कंपनियां हमारी इस फितरत को खूब पहचानती हैं...वो पहले ही रेट बढ़ा देती हैं और फिर बाय वन गेट टू जैसी स्कीम निकालती है...और हम भी बिना सोचे समझे पसीने की गाढ़ी कमाई इन आफर्स पर लुटाते रहते हैं...

इस पर मुझे अपने पापा का सुनाया एक किस्सा याद आ रहा है...1947 से पहले की बात है। पाकिस्तान (तब पाकिस्तान भी भारत था) में एक बूढ़ी माई अपने दो पोतों के बाल कटाने नाई के पास ले गई...बाल कटाने का रेट पूछा तो नाई ने बताया...चार आने में तीन कटिंग...बूढी माई ने दोनों पोतों के बाल कटा लिए...नाई ने बाल कटाने के बाद उस्तरा वगैरहा संभालना शुरू कर दिया तो बूढ़ी माई बोली...सामान क्या संभाल रहा है, चार आने में तीन की कटिंग बताई है...चल मेरा सिर भी मूंढ...

जय हिंद...

जय हिंद...

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

ये इस तरह के फंडे भी मूर्ख लोगो को ही मूर्ख बनाने में कामयाव है ! सांफा वाला प्रसंग बढ़िया है !

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

गंजो के शहर मे कंघी बेचना
भोभला को मंजन बेचना
अंधे को अंजन बेचना
भुखे को चुरन बेचना
यही तो मार्केटिंग है अवधिया जी
बहेलिया आयेगा जाल बिछायेगा, जाल में नही फ़ंसना है और फ़िर फ़ंस जाते हैं।
बहुत बढिया चिंतन-आभार

अन्तर सोहिल said...

बहुत बढीया बात कही है जी आपने
एक बात और फ्री के चक्कर में हम लोग जो जरूरत से ज्यादा खरीदी करते हैं, इस कारण उस वस्तु का पूर्ण उपयोग भी नही हो पाता है। जैसे आपने साबुन ज्यादा खरीदा है तो जिस साबुन के टुकडे से एक दिन का काम और चल सकता था वो उपयोग करना थोडा असहज हो जाता है। क्योंकि हमारे पास दूसरा साबुन अतिरिक्त है।

चलते-चलते हर बार की तरह मजेदार

प्रणाम

रंजू भाटिया said...

सही लिखा है आपने यूँ ही मुफ्त के चक्कर में फंसते हैं .चलते चलते मजेदार है ..

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

लोगों को इतनी सी बात समझ में नहीं आती कि भला आज के जमाने में जहाँ हवा-पानी तक मुफ्त नहीं हैं..वहाँ आप लोग इन कम्पनी वालों से ये उम्मीद पाले बैठे हो कि वो लोग आपको मुफ्त में माल बाँट देंगें...
आपके बताए से हमें भी अब जाकर पता चला कि हमारे मेलबाक्स में इतनी स्पैम मेल्स कैसे इकट्ठी हो जाती हैं....शुरू शुरू में एक दो बार हम भी नैट से एन्टीवायरस और कुण्डली जैसे साफ्टवेयर फ्री के चक्कर में डाऊनलोड कर बैठे थे....

चलते चलते भी खूब रही :)

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

अवधिया जी, देखिये आजकल ग्राहकों को कैसे चूना लगाया जा रहा है. आमतौर पर हम यह मानते हैं की वाशिंग पाउडर का पैक एक किलो का होता है. कल मैं एक किलो फेना और एक किलो टाइड लेकर आया. फेना के पैक पर १५० ग्राम मुफ्त था और पैक का कुल वजन था १०५० ग्राम. टाइड के पैक पर भी १५० ग्राम पाउडर फ्री था और उसका कुल वजन था केवल ९०० ग्राम. हम यही समझते रहे की वाशिंग पाउडर पुराने दाम में ज्यादा मिल रहा है.

टी वी पर फर्जी प्रोडक्ट खूब दिखाते हैं जिनमें २००० रुपयों की खरीद करने पर ४००० रुपये के प्रोडक्ट फ्री देते हैं. और वे पूरे सप्ताह यह कहते हैं की दस मिनट के भीतर फोन करनेवालों को विशेष उपहार भीमिलेगा.