प्रतिशोध ...
अर्थात् बदला ...
संसार में भला ऐसा कौन है जिसके भीतर कभी बदले की भावना न उपजी हो? मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक के भीतर बदले की भावना उपजती है। यही कारण है कि कुत्ता तक कुत्ते पर और कभी कभी इन्सान पर भी गुर्राने लगता है।
बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तक प्रतिशोध की भावना से मुक्त नहीं रह पाये हैं। विश्वमोहिनी की आसक्ति में डूबे हुए देवर्षि नारद तक ने भी भगवान विष्णु से बदला लेने के लिये उन्हें शाप दे डाला। फिर भला हम जैसे तुच्छ जन की औकात ही क्या है जो इस भावना से मुक्त रह पायें।
जिस प्रकार से किसी का किसी के प्रति प्रेम दूसरे के भीतर प्रेम उपजाता है उसी प्रकार से किसी का किसी दूसरे के प्रति बदले की भावना दूसरे के भीतर भी बदले की भावना ही उपजाती है। रावण ने बदले की भावना से सीता का हरण किया तो राम के भीतर भी उससे बदला लेने की भावना ही उत्पन्न हुई और उन्होंने रावण का वध कर डाला।
बदले की भावना के मूल में बैर होता है और बैर के मूल में क्रोध। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है "बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है"। यह बैर ही प्राणी को बदला लेने के लिये उकसाता है। बदले की भावना का आरम्भ सामने वाले को उकसाने से होता है और अन्त उसे कुण्ठाग्रस्त करने से। मनोविज्ञान में इस भावना की व्याख्या अंग्रेजी के चार शब्दों के द्वारा की जाती है - Provocation (अर्थात उकसाना), Irritation (अर्थात जलाना), Aggravation (अर्थात गम्भीर करना) और Frustration (अर्थात कुण्ठाग्रस्त करना)। अंग्रेजी के इन चारों शब्दों का आपस में बहुत ही गहरा सम्बन्ध होता है।
यह केवल बदले की भावना ही रही होगी जिसने कवि को लिखने के लिये प्रेरित कर दिया होगा किः
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोउ तू फूल।
तोको फूल को फूल है वाको है तिरसूल॥
किन्तु आजकल लोगों ने इस दोहे का बदल डाला है और इसे इस प्रकार से कहते हैं:
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोउ तू भाला।
बन जा बदले के लिये आफत का परकाला॥
उपरोक्त पहले दोहे में बदला लेने के लिये विवेक के प्रयोग पर जोर दिया गया है जबकि दूसरे दोहे में विवेक को ताक में रख देने की सलाह दी गई है। समय समय पर दोनों ही प्रकार से काम लेना पड़ता है। विवेक कहता है कि बदला लेने के लिये धैर्य आवश्यक है। धैर्य के साथ चुप बैठकर देखने से बहुत ही जल्दी पता चल जाता है कि बड़े-बड़े महापण्डित, जो कि वैदिक शिक्षा देते फिरते हैं, का महाज्ञान "धान पान" में बदल जाता है और वे सिर्फ "मे में" करके मिमियाने लगते हैं। किन्तु यह भी सही है कि कुत्ते की पूँछ को बारह साल तक भी पोंगली में रखो पर पोंगली से निकालने के बाद वह रहता है टेढ़ा का टेढ़ा ही। ऐसे कुत्ते की पूँछ जैसे लोगों के लिये उपरोक्त दूसरा दोहा ही उपयुक्त है क्योंकि उन्हें अच्छी शिक्षा देना भैंस के सामने बीन बजाना ही साबित होता है। लात के भूत क्या कभी बात से मानते हैं?
13 comments:
लात के भूत क्या कभी बात से मानते हैं? मगर ये समझते ही नहीं क्योंकि कुत्ते की दूम है.
आपके लेख के भाव तो समझ रहा हूँ अवधिया साहब, लेकिन ख़ास कुछ समझ नहीं पाया कि माजरा क्या है ? अगर इशारा गंदगी की तरफ है तो मेरा तो यही मानना है कि ईंट का जबाब पत्थर !
बेंगाणी जी और गोदियाल जी के साथ..
Sahmat...
ह्रदय परिवर्तन उनका होता है जिनके पास बुद्धि हो विवेक हो.
बड़ा होल्ला हो रहा है आज कल
जम्मो कुकुर हां सरग चल दिही
ता इंहा के पतरी ला कोन चाटही?
गगां नहाए ले कुकुर हां
गाय नई बन जाए, कुकुरे रही।
बने लिखे हस,
गाड़ा गाड़ा बधई।
आवधिया जी...
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोउ तू फूल।
तोको फूल को फूल है वाको है तिरसूल॥
बस फ़िर मोके का इंतजार करे जब वो फ़ूल को सुंधने लगे तो झट से तिरसूल घोप दो........
"जो तोको काँटा बुवै ताहि बोउ तू भाला।
वो भी साला याद करेगा किससे पड़ा था पाला"
आपके ही ब्लॉग में कहीं पढ़ा था.
हमें तो खैर इस लेख के भाव और सन्दर्भ दोनों ही समझ में आ गये हैं......बाकि आपकी इस कुत्ते की पूँछ वाली बात भी सौ फीसदी सही है!
कुकुर के पूछी सोझ नैई होय सकै। काबर के ये ओखर प्रक्रित्ति प्रदत्त गुण आय। पर मनखे मन बर
(विवेकवान होये के नाते)यदि चाहै त लागू होय ल नैइ धरय। फेर बदला वाले बात घलो ह सोला आना फिट नैइ लगत हे। बदला लेना परिस्थिति जन्य होथे। ओइसे बने लिखे हस अवधिया जी। हिन्ग्लिश मा। ललित महराज के बात बने जमत हे।
अबधिया जी हम इसे सालो से ऐसे सुनाते आ रहे थे जो तोकू कान्टा बुबे
ताहि बोब तू भाला
वो भी बेटा मान जायेगा
पडा किसी से पाला
अबधिया जी हम इसे सालो से ऐसे सुनाते आ रहे थे जो तोकू कान्टा बुबे
ताहि बोब तू भाला
मजेदार.
- विजय
जो तोको कांटा बुए ताहि बुओ तू भाला
वो भी क्या समझेगा साला पड़ा किसी से पाला !
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