"एक पूरी तो और लीजिये, बिल्कुल गरम है!"
"बस, अब और नहीं ले सकता, पेट भर गया है।"
"अच्छा एक गुलाबजामुन ले लीजिये!"
एक जमाना था जब किसी निमन्त्रण में जाते थे तो ऐसे संवाद सुनने को मिलते थे। खाने वाले का पेट भर जाता था पर परसने वाले थे कि प्रेमपूर्वक आग्रह पर आग्रह किया करते थे और खिलाने के लिये। खाकर निकलते समय दरवाजे पर खड़ा निमन्त्रण देने वाले परिवार का बुजुर्ग हाथ जोड़ कर पूछता था कि खाया या नहीं? यदि पता चल जाये कि किसी ने किसी कारणवश खाना नहीं खाया तो परिवार के सारे लोग जुट जाते थे मान मनौवल करने के लिये। निमन्त्रण में आकर कोई बिना खाना खाये चला जाये यह निमन्त्रण देने वाले के लिये बहुत बड़ा अपमान माना जाता था।
पर आज जमाना बदल गया है। निमन्त्रण देना हमारा काम था सो दे दिया, खाना खाना आपका काम है सो खाना है तो खाओ, नहीं खाना तो मत खाओ। बफे सिस्टम में परसने का भला क्या काम? निकालो और खाओ। हमें तो यह 'बफे सिस्टम' नहीं 'बफेलो सिस्टम' लगता है, हुबेल हुबेल कर खाओ।
आज निमन्त्रित करने वाले को न तो प्रेम से खिलाने की ललक है और न निमन्त्रण में आये व्यक्ति को मान सम्मान पाने की उम्मीद। आज जो भी होता है उसके पीछे प्रेम कम और मजबूरियाँ अधिक होती हैं। प्रेम का स्थान स्वार्थ ने ले लिया है। निमन्त्रित करने वाले को गिफ्ट की उम्मीद होती है और निमन्त्रण में आने वाला सोचता है कि जब रु.101/- का गिफ्ट दिया है तो कम से कम उतने का खाना तो खाना ही चाहिये। प्लेट तो छोटा होता है किन्तु खाने के सभी सामान उसमें एक बार में ही भर लेता है वो, डर लगा रहता है कि बाद में कहीं कोई सामान खत्म न हो जाये। एक सब्जी में दूसरी सब्जी मिल रही है और दोनों सब्जियों में रसगुल्ले या गुलाबजामुन की चाशनी। पापड़ रखने की जगह ही नहीं बची है इसलिये उसे सलाद के ऊपर रख दिया और वह एकदम नरम पड़ गया।
न कोई प्रेम से परसने वाला और न कोई पूछने वाला कि खाया या नहीं? क्यों पूछें? हमें तो पहले से पता है कि गिफ्ट दिया है तो बिना खाये तो जायेगा ही नहीं।
प्रेम के साथ खाने खिलाने का जमाना क्या फिर कभी लौट कर वापस आयेगा?
8 comments:
अवधिया जी, मुझे याद है बचपन में जब पंगतों में बैठकर खाते थे तब लोग न-न करते-करते भी पूरी लड्डू अदि पत्तल पर रखकर भाग जाते थे. उस समय बहुत गुस्सा आता था क्योंकि हमारी खुराक कम थी और अन्न को जूठा छोड़ना भाता नहीं था. आजकल आपसे कोई नहीं पूछता की अच्छे से भोजन किया या नहीं.
अब वो जमाना वापस नहीं आएगा. बहुत प्रेम से भोजन कराते थे पहले लोग. आज तो पच्चीस स्टाल होते हैं लेकिन खाने में मज़ा नहीं आता.
आजकल जो ना हो वह कम है साहब !!
हाँ मैनपुरी जैसे छोटे शहरों में आज भी कही कही आप कों पातो पर बैठ कर भोजन पाते लोग मिल जायेगे पर यह भी सच है की परम्पराएँ बहुत तेज़ी से बदल रही है !
अच्छा विषय उठाया है आपने. वाकई पहले का सोचो तो रोमांच हो आता है. शादियों में तो जीजाओं, सालों की जो गत होती थी --- हर कोई एक पूड़ी रखने को आतुर. प्रेम से खिलाने की होड़ पर अब कहाँ --- खाना हो तो खाओ वरना ---
आप भी कहाँ पहले ज़माने की बात कर रहे हैं....अब तो किसी निमंत्रण में जा कर ऐसा लगता है कि किसी कैदी कि तरह प्लेट हाथ में लिए अपने नंबर का इंतज़ार कर रहे हैं...और दूसरों के यहाँ क्यों? शायद हमारे बुलावे पर और लोग ऐसा सोचते हों....होता तो सब जगह ऐसा ही है ना ..
अवधिया साहब , पुराने जमाने में खाने में परोसने के लिए आइटम कम होती थी इसलिए प्रेम परोसा जाता था ! आजकल आइटम ज्यादा हो गए है तो नेचुरल सी बात है कि प्रेम कम होगा :)
सचमुच ये तो प्यार की इन्तहा होती थी ।
लेकिन अब तो तरसते हैं ऐसे प्यार के लिए ।
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
sir ji, hamare yahan ab bhi prem se khilate hain, lekin sirf gaawon me.
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