Thursday, April 22, 2010

जूता जब पुराना होता है तभी तो पालिश की जरूरत पड़ती है

"लाख समझाओ इनको पर नतीजा 'वही ढाक के तीन पात'। फिर बैठ गये आप कम्प्यूटर के सामने?" श्रीमती जी बोलीं।

"अरे भई, हम हैं रिटायर्ड आदमी! ब्लोग ना पढ़ें और पोस्ट-टिप्पणियाँ ना लिखें तो समय कैसे कटे? 'खाली बनिया क्या करे, इस कोठी का धान उस कोठी में धरे'।" हमारा उत्तर था।

"सब्जी लेने जाने में भी समय कटता है इसलिये अब थोड़ा समय सब्जी लेने जाकर भी काटिये। अगर आप सब्जी लेने नहीं गये तो इस कम्प्यूटर को उठा कर फेंक दूँगी, 'ना नौ मन तेल होगा ना राधा रानी नाचेगी'।"

"सब्जी लेने के लिये अपने सुपुत्र को क्यों नहीं भेजती? अभी तक सोये पड़े हैं नवाबजादे, 'काम के ना काज के दुश्मन अनाज के'।"

"अच्छा, अब लड़के का आराम करना भी नहीं देखा जाता आपसे? आज आपकी नजरों में यह निठल्ला हो गया है, जब इसका जन्म हुआ था तो कहते थे 'पूत के पाँव पालने में नजर आते हैं'।"

"अच्छा भाई बहुत बड़ा सपूत है तुम्हारा लड़का! 'अपने पूत को भला कोई काना कहता है?', अब उसे उठाकर सब्जी लाने के लिये कहो।"

"नहीं जायेगा लड़का। आप को ही जाना पड़ेगा। जब देखो उसे ही काम में जोतने के लिये उतारू रहते हैं। कभी उसकी भलाई का भी सोचा है आपने? अपनी सारी कमाई भाई-बहनों को झोंक दिया, एक पैसा तो बचा कर रखा नहीं है उसके लिये।"

"क्यों, क्या वो अपने पैरों पर खुद खड़े होने के काबिल नहीं है? हमारे ही पिताजी ने हमारे लिये क्या छोड़ा था? फिर भी हमने क्या कमी की तुम्हें खुश रखने के लिये? 'पूत सपूत तो का धन संचय? पूत कपूत तो का धन संचय?'।"

"हाँ हाँ, बहुत खुश रखा है आपने मुझे! तन में ना कोई गहना और तीज-त्यौहार में ना कोई अच्छा कपड़ा। मेरे तो करम फूटे थे जो आपके पल्ले पड़ी। करमजली ना होती तो आपके साथ शादी के पहले जिस रईस की औलाद से मेरी शादी की बात चल रही थी उसी के साथ मेरी शादी ना हो गई होती? पर 'अपने किये का क्या इलाज'? आपकी बहन की बातों के चक्कर में आकर मैंने ही मना कर दिया था उससे शादी करने के लिये।

"अरे अभी तो लड़के से सब्जी मँगवा लो, शाम को मैं बाजार जाउँगा तो तुम्हारे लिये बढ़िया मेकअप का सामान लेते आउँगा।" हमने श्रीमती जी को खुश करने के उद्देश्य से कहा।

"हाय राम! अब क्या इस उमर में मैं मेकअप करूँगी?"

"क्यों, जूता जब पुराना होता है तभी तो पालिश की जरूरत पड़ती है।"

"क्या कहा?"

"अरे कुछ नहीं भई ..."

"क्या कुछ नहीं भई?"

"वो तो जरा ऐसे ही ..."

"क्या ऐसे ही?"

"वो जरा दिल की भड़ास निकल गई थी।" कहकर हमने श्रीमती जी को कुछ और सोचने और बोलने का मौका दिये बगैर जल्दी से कहा, "लाओ थैला दो, जा रहा हूँ सब्जी लेने के लिये।"

भुनभुनाते हुए वे थैला लाने चली गईं और हम अपनी आधी लिखी पोस्ट को सेव्ह करके कम्प्यूटर शटडाउन करने में लग गये।

6 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

"वो जरा दिल की भड़ास निकल गई थी।"

अवधिया जी लगता है भाभीजी बडी सीधी हैं और आप बडे भाग्यशाली हो जो इस तरह भडास निकाल ली. हमने निकाली होती तो ऐसे लठ्ठ पडते कि अस्पताल मे दो चार सप्ताह का प्लास्टर तो पक्का था.:)

बहुते गजब लिखा.

रामराम

राज भाटिय़ा said...

अरे बाप रे बडी हिम्मत है आप की जी,अगर हमारा ताऊ ऎसे बोल देता तो ताई के तेवर देख कर ही आधे पडोसी गश ख कर गिर जाते... अभी सब्जी लाये या अभी भी बचने की सोच रहे है.... जाईये पहले सब्जी ले आये फ़िर बात करेगे.

डॉ टी एस दराल said...

बढ़िया संवाद हैं अवधिया जी । बस ऐसे ही लगे रहो ।
दिलचस्प वाकया ।

दिनेशराय द्विवेदी said...

हम तो जब जब सब्जी लाए श्रीमती जी को जंची ही नहीं। अब वे लाने को कहती ही नहीं।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

ब्लागिंग यूँ बीच में छोडकर सब्जी लेने जाना पडे,इस से कष्टदायी कार्य भला क्या होगा :-)
हमें तो लगता है कि आपने शायद कहावतों,मुहावरों पर जरूर कोई पी.एच.डी.की हुई है :-)

Unknown said...

maja aa gaya ,kya shadi ke baad sabhi ke sath essa hi hota, jo aap ke saat hua.