एक आदमी वो होता है कि काल का ग्रास बन जाने जैसे हादसे का शिकार होकर भी रुपया कमा लेता है और एक हम हैं कि ब्लोगिंग कर के कुछ भी नहीं कमा सकते। दो-दो लाख रुपये मिल गये ज्ञानेश्वरी एक्प्रेस में मरने वालों के परिवार को किन्तु यदि ब्लोगिंग करते हुए यदि हम इहलोक त्याग दें तो हमारे परिवार को दो रुपये भी नसीब नहीं होगे।
हम पहले भी कई बार बता चुके हैं कि नेट की दुनिया में हम कमाई करने के उद्देश्य से ही आये थे और आज भी हमारा उद्देश्य नहीं बदला है। पर क्या करें? फँस गये हिन्दी ब्लोगिंग के चक्कर में। याने कि "आये थे हरि भजन को और ओटन लगे कपास"। इस हिन्दी ब्लोगिंग से एक रुपये की भी कमाई तो होने से रही उल्टे कभी-कभी हमारा लिखा किसी को पसन्द ना आये तो चार बातें भी सुनने को मिल जाती हैं। अब कड़ुवी बातें सुनने से किसी को खुशी तो होने से रही, कड़ुवाहट ही होती है।
हाँ ब्लोगिंग से टिप्पणियाँ अवश्य मिल जाती हैं! पर इन टिप्पणियों के मिलने से खुशी एक, और सिर्फ एक, आदमी को ही मिलती है और वो हैं हम! ये टिप्पणियाँ हमारे सिवा और किसी को भी खुशियाँ नहीं देतीं, यहाँ तक कि हमारी श्रीमती जी को भी नहीं। यदि हम श्रीमती जी को बताते हैं कि आज हमने अनुवाद करके दो हजार रुपये कमाये हैं तो वे अत्यन्त प्रसन्न हो जाती हैं किन्तु जब हम उन्हें लहक कर बताते हैं की आज हमारे पोस्ट को बहुत सारी टिप्पणियाँ मिली हैं और वह टॉप में चल रहा है तो वे मुँह फुला कर कहती हैं "तो ले आईये इन टिप्पणियों से राशन-पानी और साग-सब्जी"।
उनका मुँह फुलाना नाजायज भी नहीं है। क्योंकि ज्येष्ठ होने के नाते हमने हमेशा उनकी अपेक्षा अपने माँ-बाप और भाई-बहनों की ओर ही अधिक ध्यान दिया। कभी चार पैसे इकट्ठे हुए और सोचा कि श्रीमती जी के लिये एक नेकलेस ले दें तो पता चला कि माता जी की साँस वाली बीमारी ने फिर जोर पकड़ लिया है। उनके इलाज में वे सारे रुपये तो खत्म हो गये और ऊपर से चार-पाँच हजार की उधारी हो गई सो अलग। फिर कभी कुछ रुपये जमा हुए तो बेटे ने बाइक लेने की जिद पकड़ ली और श्रीमती जी के नेकलेस का सपना सपना ही रह गया। चाहे बहन की शादी हो या भाई-बहू का ऑपरेशन, आर्थिक जिम्मेदारी हमारे ही सिर पर आ जाती थी।कुछ कुढ़ने के बावजूद भी, भले ही बेमन से सही, वे हमारे इस कार्य में हमारा साथ देती रहीं।
आज माँ-बाप रहे नहीं और भाई-बहनों के अपने परिवार हो गये। सभी का साथ छूट गया, साथ रहा तो सिर्फ श्रीमती जी का। पर कभी भी तो उन्हें खुशी नहीं दे पाये हम। तो आज उनके मुँह फुलाने को नाजायज कैसे कहें? और आज भी हम इतने स्वार्थी हैं कि टिप्पणियाँ बटोर खुद खुश होने की सोचते हैं। पहले अपनी खुशी का खयाल आता है और बाद में उनकी खुशी का। इस हिन्दी ब्लोगिंग ने बेहद स्वार्थी बना दिया है।
इतना सब कुछ होने के बावजूद भी जब देखते हैं कि उन्हें पहले हमारी खुशी का ही ध्यान रहता है तो सोचने लगते हैं -
ब्लोगिंग से कमाई तो होने से रही ... काश ज्ञानेश्वरी एक्प्रेस में ही रहे होते ...
20 comments:
वाह अवधिया जी सच्चाई को सार्थक अंदाज में बयान करना कोई आपसे सीखे ,उम्दा प्रस्तुती ,बस भगवान से दुआ कीजिये की ब्लॉग जनहित के मुद्दों पर खोजी पत्रकारिता का रूप ले ले उस दिन आपको ईमानदारी भरे आर्थिक आधार से कुछ ईमानदारी भरा आर्थिक कमाई भी होने लगेगा ,आशावादी बने रहिये हर रात के बाद सुबह तो जरूर आएगी |
सच कहा आपने
रोचक और विचारणीय !!!
ऐसी कमाई किसी भी पत्नी को नहीं चाहिए होती है...आप ऐसा सोचना छोड़ दें....
ये आपने ही लिखा है ना ...
कुछ कुढ़ने के बावजूद भी, भले ही बेमन से सही, वे हमारे इस कार्य में हमारा साथ देती रहीं।
फिर कैसे सोच भी सकते हैं ऐसा?
बहुत मार्मिक बात कह दी जिसमें जीवन के प्रति व्यंग भी है
अवधिया जी, ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में ये भी तो हो सकता था कि -
1) लाश ही नहीं मिलती
2) मिलती भी तो, पहले DNA टेस्ट के बाद ही सरकारी अधिकारी उसे वापस देते
3) 2 लाख रुपये लेने के लिये, 1 लाख की रिश्वत देना पड़ती (मिदनापुर और कोलकाता से दिल्ली तक)
4) बचे हुए 1 लाख लेकर आते और कोई रास्ते में ही लूट लेता।
5) लुटेरा पीटता भी, तो फ़िर अस्पताल का खर्चा भी करना पड़ता…
दो लाख नहीं मिले अच्छा ही हुआ ना… :)
तात्पर्य यह कि हिन्दी ब्लॉगिंग में यह सब खतरे नहीं है… इसी में खुश रहिये… :) :)
टिप्पणी दो-टिप्पणी लो… जय हिन्दी ब्लॉगिंग…
चाची जी को यह पोस्ट पढवा दीजिये और यकीन मानिये इसे वो किसी नेकलेस कम नहीं मानेंगीं।
प्रणाम
Sir i know that how to wrote this blog your interest never let down but keep romantic think.
पहली बात तो यह की सुरेश जी से पूरी तरह सहमत . सरकारी मुआवजा एक मुह बंद करने का लौली पॉप है, पहले तो इन सरकारों की मुआवजे की घोषणा ही कोरी बकवास है, दूसरा जिनके सब मरगये, कौन मुआवजे का दावा करेगा , तीसरा, थोड़ा खाते पीते जिस इंसान ने अपना कोई प्रिय खो दिया, क्या वह ऐसा मुआवजा चाहेगा ? चौथा , मेरी समझ में नहीं आता की ये सरकारे लाख दो लाख में किसी की जिन्दगी की कीमार कैसे लगा लेते है ?
और हां, भाभी जी को यह पता चला की आपने क्या लिखा है तो आज रात को आपका जबरन उपवास समझो :)
बहुत कठिन है डगर पनघट की
मरबे ता पैसा घलो नई मिलय
चाहे ज्ञानेश्वरी मरस या जोगेश्वरी मा
हवई जिहाज मा जाबे त ज्यादा मिलही।
फ़ेर उन्हा चिन्हे के समस्या आ जाही
बने कहात हे सुरेश भाई हां
जीव ला ठौर में मड़हा अऊ शांति के साथ ब्लागिंग कर, शांति के मैं सर्च मार के लिंक देवत हंव्।
चिंता झन कर
मै त हंव गा
कम से मैं तो नहीं चाहता कि आप इस दुनिया को इतनी जल्दी टाटा-टाटा अंबानी बोलकर निकल जाए। अभी मेरा बहुत सा काम है जो केवल आप ही कर सकते है और कोई दूसरा नहीं। पता नहीं किस दुखद घडी में आपने यह स्वप्न देखा है। अवधियाजी बी पाजीटिव सर...
@ सुरेश चिपलूणकर
गज़ब... :)
अभी तो आप इस ख्याल को त्याग देवे
टिप्पणी की कमाई पर संतोष करें
सच कहा आपने........
अवधिया जी, हमारे नेता कुत्ते की तरह से भॊंक देते है कि दो लाख, तीन लाख.... जनाब भोपाल कांड मै अमेरिका ने तो भुगतान कर दिया... लेकिन वो पेसा क्या उन पिडितो को मिला??? देश के लिये शहीद होने वालो को पेट्रोल पंप मिले??? अजी आप तो चीज के घोंसे मै मांस का टुकडा ढुढ रहे है... भगवान आप की लम्बी उम्र करे छोडिये इन बातो को ओर राम नाम जपिये
सुरेश जी की बात सुनिये और यह विचार झटक कर निकाल दें...शुभकामनाऎँ.
ये भी खूब रही!
चलिए यदि ब्लोगिंग के साथ साथ स्मोकिंग भी करते हों तो आज से ही छोड़ दीजिये ।
देखिये कितनी बचत होती है ।
अजी अवधिया जी,
हम क्या गधे हैं कि ट्रेनों में इधर से उधर बेमकसद चक्कर काटते रहते हैं। हमारा भी तो एक लक्ष्य यही है।
दिल की बात ज़ुबान पर आ गई चलादी कलम। बाकी मरे के बाद कोन जानथे का चीज काला मिलथे। बहुत बढिया ढंग से व्यंगपूर्वक लिखे हौ। बने लागिस्।
अप भी कैसी बात करने लगे....चलिए उम्मीद पे दुनिया कायम है, वो दिन भी जरूर आएगा जब ब्लागिंग से नोट बरसा करेंगें :-)
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